पत्रकारों के लिए कुछ मुद्दे जिनको वो खास फॉलो करते हैं काफी बार अडिक्टिव बन जाते हैं। मसलन बिहार-यूपी की राजनीति हो, क्रिकेट का करिश्मा, पाकिस्तान और चीन की कूटनीति या फिर कश्मीर का मसला। 25 सितंबर को जब से गृह मंत्री चिदंबरम साहब ने कैबिनेट की सुरक्षा समिति की बैठक के बाद आठ सूत्रीय कार्यक्रम का एलान किया और कहा कि केंद्र के वार्ताकार नियुक्त होंगे तबसे कश्मीर के हालात पर नज़र बनाए रखने वाले हम तमाम पत्रकारों में इसे लेकर चर्चाएं तेज़ हो गईं। जहां दो पत्रकार मिले, एक ही सवाल- आखिर कौन होंगे वार्ताकार।
थियरीज़ बनने लगीं, सबके सूत्र अलग-अलग नामों को उछालने लगे। पहले लगा शायद चीफ इंफर्मेशन कमिश्नर और कश्मीर में लंबा वक्त गुजार चुके वरिष्ठ कश्मीरी नौकरशाह वजाहत हबीबुल्लाह, जम्मू यूनिवर्सिटी के वाइस चांसेलर रह चुके और जेएनयू में प्रोफेसर अमिताभ मट्टू जैसे नाम शामिल होगें।
फिर हम सभी ने इन अटकलों को खारिज किया। हमें यकीन था इस बार केंद्र की मंशा गंभीर है, सो राजनीतिक चेहरे होंगे। फिर ख्याली पुलाव पकने लगे। किसी ने कहा कांग्रेस के फायरफाइटर प्रणब दा कहीं खुद मसले का कमान ना संभालें। पर फिर लगा नहीं वो इस के लिए बहुत ही ज्यादा वरिष्ठ हैं, उनकी इमेज को दांव पर नहीं लगाया जा सकता। पृथ्वीराज चौहाण का नाम आया, केंद्रीय मंत्री और जम्मू कश्मीर के लिए कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष। लेकिन लगा कि वो इस काम के लिए इम्मेच्युर होंगे।
जब अटकलों का बाज़ार गरम हो तो कुछ भी मुमकिन है, सो गड़े मुर्दों को भी उखाड़े जाने लगा। लगे हाथ कभी इंदिरा के करीबी रहे माखनलाल फोतेहदार का भी नाम सामने आ गया। लेकिन तमाम अटकलों के बीच एक नाम पर हम पत्रकारों ने राय बना ली थी। सीपीएम पोलित ब्यूरो सदस्य सीताराम येचुरी। जिनकी टीआरपी कश्मीर में एकाएक काफी बढ़ गई है। वैसे तो दिग्विजय सिंह और मणिशंकर अय्यर भी कश्मीरियों को इन दिनों भाते हैं, लेकिन लग रहा था कि ये दोनों ही कांग्रेस के बढ़बोले नेता हैं, इसीलिए पार्टी इन्हें ये ज़िम्मेदारी नहीं सौंपेगी।
ऑफ कैमरा बात करने पर लगा रहा था मानो सीताराम को भी यकीन हो चला था कि उन्हें प्रधानमंत्री कार्यालय से फोन आने ही वाला है। लाज़मी है क्योंकि जब मार्च 1990 के बाद पहली बार जम्मू कश्मीर दौरे पर 20 सितंबर को एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल पहुँचा था तो उसमें येचुरी ने खास भूमिका निभाई।
मैं भी इस ऑल पार्टी डेलिगेशन को कवर कर रही थी। श्रीनगर में बातचीत की वेन्यू एसकेआईसीसी को छावनी में तब्दील कर दिया गया था। शहर भर में इतना सख्त कर्फ्यू कि परिंदा भी पर ना मार सके। वेन्यू के अंदर डेलिगेशन से वही लोग मिलने पहुंच रहे थे जिन्हें सत्तारूढ़ नेशनल कॉन्फ्रेंस ने चुना था। हद तो तब हो गई जब पत्रकारों को भी एसकेआईसीसी के कॉंन्फ्रेंस हॉल में प्रवेश के बाद बाहर निकलने से रोक दिया गया। दरवाजे को सुरक्षाकर्मियों ने बाहर से बंद कर दिया। हम दिल्ली वाले पत्रकार खूब चीखे चिल्लाए थे क्योंकि हमें ऐसे बंदिशों की आदत नहीं। बहरहाल ये बातें इसलिए कह रहीं हूं कि ज्यादातर चीज़ें स्टेज मैनेज्ड होने के बावजूद कुछ सांसद ऐसे थे जिन्होंने कुछ एक्सट्रा माइल जाने की सोची। सीताराम, रामविलास पासवान, गुरुदास दासगुप्ता, असाउद्दीन ओवैसी, टी आर बालू जैसे नेता, खुद से निकल पड़े नजरबंद हुर्रियत नेताओं से मिलने। पहले दिन ये छोटे छोटे ग्रूप मे मिले तो दूसरे दिन सुबह कुछ सांसदों ने अलगाववादियों से अकेले भी मुलाकात की। कुछ ऐसे मौके भी आए जब सड़क पर तमाम प्रतिबंधों के बावजूद आम कश्मीरियों ने इन्हें हज़रत बल या अस्पताल मे घेर लिया और अपने गुस्से को जमकर ज़ाहिर किया। बीजेपी की भंवे तन गईं थी शेड्यूल से हटकर हुई इन मुलाकातों को लेकर। हालांकि इन मुलाकातों से उस दिन कुछ नहीं निकला था। सभी पक्ष अपने-अपने रुख पर कायम थे। लेकिन एक संदेशा गया था कि कम से कम भारत के संसद के नुमांइदे सही में कश्मीरियों की आवाज़ सुनना चाहते हैं। उन्हें समझने को लेकर गंभीर हैं। और ये संदेशा बेहद ज़रूरी था।
यही वजह थी कि बातचीत के प्रस्ताव को लगातार ठुकरा रहे अलगाववादियों से ऑफ कैमरा मिलने पर लग रहा था कि उन्हें भी इंतजार है वार्ताकारों की नियुक्ति का। उन्हें लग रहा था कि अगर अलग-अलग पार्टियों के कुछ नुमांइदे नियुक्त होते हैं तो उनके पास एक राजनीतिक मैंडेट होगा और इससे डायलॉग को वेटेज मिलेगा। वहां के आम लोग हों या स्थानीय पत्रकारों की भी राय थी कि इस बार नौकरशाहों से काम नहीं चलेगा ना ही डायलॉग को ढाल बनाने से।
पीपल्स कॉन्फ्रेंस के सज्जाद लोन ने मुझे एक अहम बात कही। उनका मानना था कि वार्ता को लेकर अगर नई दिल्ली गंभीर दिखे तो फिर फर्क नहीं पड़ता कि बातचीत की मेंज़ पर कौन-कौन पहुंचता है तब बातचीत से दूर रहने वालों को खमियाजा भुगतना पड़ेगा। लेकिन अगर बातचीत सिर्फ टाइम बायिंग की कोशिश दिखे तो मुख्यधारा के दलों और सभी अलगाववादी मिलकर भी इसे कामयाब नहीं कर पाएंगी।
आखिरकार जब चिंदबरम साहब ने बुधवार को वार्ताकारों के नाम का एलान किया तो हम सब भौंचक्के रह गए। जामिया में नेल्सन मंडेला इंस्टिट्युट ऑफ पीस की हेड प्रोफेसर राधा कुमार एकेडेमिशिन है। लेकिन उनके लिए कश्मीर शायद एक करियर है। दिलीप पाडगांवकार एक वरिष्ठ पत्रकार हैं। और कुछ सालों पहले पूर्व केंद्रीय मंत्री राम जेठमलानी की नेतृत्व वाली उस कश्मीर कमेटी के सदस्य थे जिससे कभी कुछ ठोस निकल कर सामने नहीं आया। इंफर्मेशन कमीश्नर एम.एम. अंसारी भी एक अर्थशास्त्री और शिक्षाविद् रह चुके हैं, लेकिन कश्मीर से कोई पुराना नाता नहीं।
इसमें शक नहीं कि तीनों ही नवनियुक्त वार्ताकार अपने अपने फील्ड में और सार्वजनिक जीवन में प्रतिष्ठित हैं। लेकिन घाटी में 110 मौतों और हिंसा के बाद मौजूदा माहौल में शुरू होने वाली वार्ता के लिए भरोसा या उम्मीद जगाने में ये नाम इस वक्त पूरी तरह विफल हैं। हो सकता है कि एक चौथे नाम का एलान जल्द हो (पूर्व स्पीकर सोमनाथ चैटर्जी को भी अब अटकलों की सूची में जोड़ा जा रहा है), लेकिन उससे भी कोई फर्क नहीं पड़ने वाला।
घाटी के लोगों को गुस्सा इस बात का है कि जहां कर्फ्यू हट जाए वहां स्थिति को सामान्य बताकर नई दिल्ली की वार्ता की मंशा बदल जाती है। और ये गलती है। क्योंकि गोलियां का नहीं चलना और सैंकड़ों सुरक्षा बंकरों के से होते हुए लोगों का सड़कों पर निकलना एक असहज शांति है, शांति और स्थायित्व नहीं।
इन नामों के एलान के साथ ही हुर्रियत हार्डलाइनर गिलानी ने बातचीत को पूरी तरह से ठुकरा दिया। वैसे गिलानी के हड़ताल कैलेंडर तय करते हैं कि सूबे की सरकार कब कर्फ्यू लगाए और कब माहौल में ढील दे। और कब बच्चे स्कूल जाएं।
अलगाववादियों की छोड़िए, खुद उमर अब्दुल्लाह भी इससे खुश नहीं। वो स्तब्ध हैं। घाटी में बिगड़े हालात के लिए सबसे ज्यादा किरकिरी इस नौजवान सीएम की ही हुई है। भले ही इन्हें कुर्सी से 10 जनपथ ने हटाया ना हो लेकिन ना ही सेना विशेषाधिकार कानून हटाए जाने पर इन्हें केंद्र का समर्थन मिला। और अब ना ही राजनीतिक समाधान के लिए राजनितिक वार्ताकारों की नियुक्ति हुई। औपचारिकता निभाने के लिए भले ही उमर इस कदम का स्वागत करें, लेकिन उन्हें लग रहा है कि खोदा पहाड़ और निकली चुहिया।
और आशंका यही है कि नौकरशाहों की मौजूदगी से जहां ये शायद एक डायलॉग ऑफ डेफ होता, वहीं इन नियुक्तियों के साथ शुरू होने के पहले ही डेथ ऑफ डायलॉग हो चुका।
ati sundar tatha yathartpark vivechana .... Ismita ji ki vivechana bahut hi vislekchanatmak aur tathya adharit hoti hai...
ReplyDeleteparantu yaha pr unnehey kuch apni tarf se sujhav dene chahiye they.
sundar lekh
ReplyDelete