अपनी हमउम्र टेलीविजन एंकर दोस्तों से जब भी बात होती है तो खुद अपने ही बारे में कहा करती है- मुझे पता है कि पांच-छ साल बाद हमें कौन पूछेगा? इसलिए सोचती हूं कि अभी जितना बेहतर कर सकूं( इस बेहतर में काम,पैसा,नाम,स्टैब्लिश होना सब शामिल है) कर लेती हूं। फिर न तो ये चेहरा रहेगा और न ही हमारी अभी जैसी पूछ रहेगी।
सुनने में तो ये बात बहुत ही सहज लगती है और एक घड़ी को हम मान भी लेते हैं कि सही बात है कि जब उनके चेहरे पर वो चमक,वो फ्रेशनेस और वो चुस्ती झलकेगी ही नहीं तो कोई चैनल क्यों उन्हें भाव देगा? लेकिन इस सहजता से मान लेनेवाली बात को थोड़ा पलटकर एक सवाल की शक्ल में सामने रखें तो- क्या न्यूज चैनलों में फीमेल एंकर को सिर्फ और सिर्फ शक्ल के आधार पर रखा जाता है? यानी एंकरिंग के लिए सिर्फ अच्छी शक्ल का ही होना काफी है,इसके अलावे किसी तरह की काबिलियत की जरुरत नहीं होती? अगर इसका जबाब हां है तो फिर बेहतर है कि इस पेशे में आने के लिए मॉडलिंग के कोर्स करने चाहिए,लड़कियों आप मीडिया कोर्स करना छोड़ दें।
सुनने में तो ये बात बहुत ही सहज लगती है और एक घड़ी को हम मान भी लेते हैं कि सही बात है कि जब उनके चेहरे पर वो चमक,वो फ्रेशनेस और वो चुस्ती झलकेगी ही नहीं तो कोई चैनल क्यों उन्हें भाव देगा? लेकिन इस सहजता से मान लेनेवाली बात को थोड़ा पलटकर एक सवाल की शक्ल में सामने रखें तो- क्या न्यूज चैनलों में फीमेल एंकर को सिर्फ और सिर्फ शक्ल के आधार पर रखा जाता है? यानी एंकरिंग के लिए सिर्फ अच्छी शक्ल का ही होना काफी है,इसके अलावे किसी तरह की काबिलियत की जरुरत नहीं होती? अगर इसका जबाब हां है तो फिर बेहतर है कि इस पेशे में आने के लिए मॉडलिंग के कोर्स करने चाहिए,लड़कियों आप मीडिया कोर्स करना छोड़ दें।
ये समझ इसलिए भी पक्की हो सकती है कि पिछले साल जिस तरह से एक न्यूज चैनल ने अपनी ग्रांड ओपनिंग के मौके पर अपनी फीमेल एंकरों को रैंप पर चलवाया तो इससे साफ हो गया कि एंकर को लेकर चैनल मालिकों और उसके प्रबंधन से जुड़े लोगों के दिमाग में क्या चलता-रहता होगा? ये शायद गॉशिप हो लेकिन जो चैनल पूरी तरह से वीमेन इम्पावरमेंट के नाम पर खोला गया,उसके रसूकदार मालिक ने रसरंजन कर लेने की स्थिति में एक लड़की को देखकर कहा- इसे एंकर बनाना है।
पिछले दिनों सीएनएन में लंबे समय तक पत्रकारिता और अब मीडिया टीचिंग में लगे एक पत्रकार ने जब ये सवाल उठाया कि यहां के चैनलों में सिर्फ सुंदर लड़कियां ही एंकर क्यों होती है तो हम सबका ध्यान अचानक से इस सवाल से टकरा गया। आप गौर करें तो सीएनएन-आइबीएन की दो-तीन एंकरों को छोड़ दें तो बाकी चैनलों में जितनी भी एंकर हैं,उनमें से अधिकांश को पहली नजर में देखकर उनके रखे जाने का आधार क्या है? चेहरा सब ढंक देगा के अंदाज में जिस तेजी से एंकर होने की शर्तों को बदल दे रहा है,वो मीडिया इन्डस्ट्री के भीतर एक नए किस्म की स्थिति पैदा कर रहा है।
यहांआकर एयरहॉस्टेस,मॉडलिंग,ब्यूटीशियन,स्पा थेरेपी, इवेंट मैनेजमेंट,फैशन डिजाइनिंग और इन सबके बीच मीडिया कोर्स एक-दूसरे के बीच इस तरह से गड्डमड्ड हो जाते हैं कि संभव है आनेवाले दिनों में इस पेशे में आने के पहले लड़कियों के बीच अपने-आप ही गुपचुप तरीके से शर्तें तय हो जाने लगे कि अगर वो सुंदर नहीं है (इस सुंदर होने में गोरा होना भी शामिल है) तो किसी भी हाल में न्यूज एंकर बनने के सपने छोड़ दे। वही दूसरी तरह जो लड़कियां सुंदर है उसके दिमाग में ये बात मजबूती से बैठ जाए कि वो सुंदर है,कुछ नहीं तो कम से कम न्यूज एंकर तो बन ही जाएगी।ठीक उसी तरह से जिस तरह एक जमाने में साहित्य पढ़नेवाले, कम्युनिस्ट पार्टी की होलटाइमरी करनेवाले नौजवानों के दिमाग में ये बात भरी रहती थी कि अगर प्रोफेसरी या कमिशन की नौकरी नहीं मिली तो मीडिया की नौकरी तो धरी ही है। इस तरह की मानसिकता मीडिया के भीतर के उन प्रोफेशनल एप्रोच को ध्वस्त करती है,जिसके दावे के लिए अब निजी संस्थान लाखों रुपये ऐंठ रहे हैं।
यहांआकर एयरहॉस्टेस,मॉडलिंग,ब्यूटीशियन,स्पा थेरेपी, इवेंट मैनेजमेंट,फैशन डिजाइनिंग और इन सबके बीच मीडिया कोर्स एक-दूसरे के बीच इस तरह से गड्डमड्ड हो जाते हैं कि संभव है आनेवाले दिनों में इस पेशे में आने के पहले लड़कियों के बीच अपने-आप ही गुपचुप तरीके से शर्तें तय हो जाने लगे कि अगर वो सुंदर नहीं है (इस सुंदर होने में गोरा होना भी शामिल है) तो किसी भी हाल में न्यूज एंकर बनने के सपने छोड़ दे। वही दूसरी तरह जो लड़कियां सुंदर है उसके दिमाग में ये बात मजबूती से बैठ जाए कि वो सुंदर है,कुछ नहीं तो कम से कम न्यूज एंकर तो बन ही जाएगी।ठीक उसी तरह से जिस तरह एक जमाने में साहित्य पढ़नेवाले, कम्युनिस्ट पार्टी की होलटाइमरी करनेवाले नौजवानों के दिमाग में ये बात भरी रहती थी कि अगर प्रोफेसरी या कमिशन की नौकरी नहीं मिली तो मीडिया की नौकरी तो धरी ही है। इस तरह की मानसिकता मीडिया के भीतर के उन प्रोफेशनल एप्रोच को ध्वस्त करती है,जिसके दावे के लिए अब निजी संस्थान लाखों रुपये ऐंठ रहे हैं।
10-12 हजार रुपये की एंकर की नौकरी बारह तरह की झंझटों से गुजरने के बाद मिलती है जिसमें ग्लैमर की चमक के आगे तमाम दर्द को हवा में उड़ा देने की कोशिशें होती हैं। ऐसा होने से सुंदर लड़कियां भी अपनी तमाम योग्यता और एकेडमिक और मीडिया समझ के साथ आती भी है तो उसके आने में उसकी देह को ही प्रमुख माना जाएगा। चैनलों में लड़कों या फिर आपस में नहीं बननेवाली फीमेल कूलीग के एक-दूसरे के प्रति ये शब्द कि हमें खूब पता है कि वो किस बिना पर एंकर बनी है,इसी सोच का व्यावहारिक नतीजा है। इन सबके बीच मीडिया प्रोफेशनलिज्म कहां हवा हो जाती है,इस पर गंभीरता से विचार करने का काम अभी शुरु नहीं हुआ है?
इसके साथ जो दूसरी बड़ी और जरुरी बात है वो ये कि जब शुरु से ही इस नीयत से फीमेल एंकरों की भर्ती की जाती हो कि वो देखने में अनिवार्य रुप से सुंदर हो तो क्या इस सुंदर दिखने की मानसिकता यहीं आकर रुक जाती है? यहां यह ध्यान रहे कि टेलीविजन पर प्रजेंटेवल दिखना और शरीरी तौर पर सुंदर होना दो अलग-अलग चीजें हैं। स्क्रीन पर प्रजेंटेवल दिखाना ये मीडिया प्रोफेशनलिज्म का काम है जिसे कि वो लगातार नजरअंदाज करता है जबकि शरीरी तौर पर सुंदर होने को ज्यादा तबज्जो दिया जाता है।
ऐसा होने से चैनल के भीतर एक खास किस्म का कॉमप्लेक्स और शोषण की गुंजाईश तेजी से पनप सकती है। कुछ चैनलों के भीतर से इव टीजिंग और सेक्सुअल हर्सामेंट के मामले आने शुरु हुए हैं जिससे ये साफ हो रहा है कि सुंदर दिखाने की मानसिकता ऑडिएंस को अपनी तरफ खींचने तक जाकर ठहरती नहीं है बल्कि इसके पीछे भी एक सक्रिय खेल शुरु हो गए है। हालांकि ये कोई बंधा-बंधाया फार्मूला नहीं है कि इस तरह के काम सिर्फ सुंदर लड़कियों क साथ ही किया जा सकता है। जरुरी बात उस मानसिकता के तेजी से फैलने की है जहां आकर एक फीमेल एंकर पत्रकार का दर्जा आए दिन खोकर एक मॉडल,एयर हॉस्टेस या फिर दूसरे उन प्रोफेशन के तौर पर पाती हैं जहां वो अपनी आवाज सख्ती से नहीं उठाने पाती या फिर धीरे-धीरे इसे प्रोफेशन का हिस्सा मानकर चुप्प मार जाती है।
प्रोफेशन का हिस्सा मानकर चुप्प मार जाना जाहिर तौर पर एक फीमेल एंकर को पत्रकार के दर्जे से बिल्कुल अलग करके देखना है। मेरी दोस्तों ने जो पांच साल की करियर लाइफ वाला फार्मूला अपने आप ही मान लिया,ये उसी सोच का नतीजा है। न्यूज चैनल के भविष्य के लिए ये बहुत ही खतरनाक स्थिति है। फिर सालों से जो अनुभव हासिल किए,उसका लाभ चैनल को किस रुप में मिल सकेगा या फिर क्या चैनल को देह के स्तर की सुंदरता के आगे इसकी जरुरत नहीं रह जाती,ये भी अपने-आप में एक बड़ा सवाल है। एंकरिंग अनुभव को लेकर मेरे इस सवाल पर कि तुम कभी निधि कुलपति, अलका सक्सेना, या नीलम शर्मा जैसी क्यों नहीं बनना चाहती,क्या होता है उनका जबाब।
विनीत कुमार जी के ब्लॉग ''हुंकार''से साभार प्रकाशित
भाई आप को जलन होती है क्या
ReplyDeleteअच्छा तो है की सुंदर आवाज के साथ सुंदर चेहरा
कम से कम आदमी काम की न्यूज़ नही तो ................
अरे नहीं सरकार..जलन तो नहीं मगर लगता है न की कुछ रोजगार लड़कों को भी उपलब्ध हो सकता तो ठीक था..आगे जैसी आपकी मर्जी
ReplyDelete----बहुत सही बात उठाई गई है, पर आप क्या समझते हैं? सदा से ही महिलाओं के लिये हर क्षेत्र में सौन्दर्य ही मुख्य निर्धारक तत्व होता है और आज के मीडिया, शो-व्यवसाय -सिनेमा, फ़ैशन, मोडलिन्ग, यहां तक सेल्समेन, इश्योरेन्स, दुकानदारी,कम्पनी सेक्रेटरी, एयर होस्टेस आदि हर क्षेत्र में सुन्दरता के ही खरीददार हैं। सुन्दर न हो तो कोई भी महिलाओं को नौकरी पर नहीं रखेगा,चाहे कोई भी जौब हो। यहां तक कि परीक्षाओं एवं प्रोफ़ेशनल व उच्चतम सेवाओं में भी उन्हें इसी बात पर अधिक तरज़ीह मिलती है।
ReplyDelete---महिलाओं की दुनिया ही सुन्दरता पर टिकी हुई है। यदि महिलाएं अपने को उच्च प्रोफ़ेशनल या स्वतन्त्र कार्यों में अपना स्वतन्त्र दखल बनायें तभी सुन्दरता के बल पर कोई उनका शोषण नही कर पायेगा
-----पर सौन्दर्य से कौन बच पाया है.....जहां में? सभी पुरुष सुन्दरता पर मरते हैं तभी तो लडकियों को हर काम में लगाया जाता है, ग्राहकों को , खिलाडियों को, नेताओं को बौस को, विदेशियों को, क्रिकेट दर्शकों को......
सुंदरता है ही ऐसी चीज।
ReplyDelete---------
सुनामी: प्रलय का दूसरा नाम।
चमत्कार दिखाऍं, एक लाख का इनाम पाऍं।
सही कहा श्याम जी जब पुरुषों की नब्ज पकड़ने की बात आती है तो सुन्दरता को मुहरा बनाना जरुरी हो जाता है और यही तो मार्केटिंग है...
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