..15 अक्टूबर 2010...कॉमनवेल्थ गेम्स का आज आखिरी दिन था। क्या चकाचौंध थी, आतिशबाज़ी से सज़ा आसमान, स्टेडियम में हज़ारों थिरकते कदम, भारत का झंडा लिए हमारे खिलाड़ी जिन्होंने कमाल करते हुए पूरे 100 पदको का रिकॉर्ड कायम किया...एआर रहमान का जोशीला गाना और रौशनी से नहायी पूरी दिल्ली...पूरा शहर शेरा के पोस्टरों से सजा हुआ था...शेरा की टीशर्ट पहने बच्चे बड़े,शेरा की टोपी, शेरा का बैग, शेरा गुब्बारों पर शेरा मेट्रो की दीवारों पर, दिल्ली के बीआरटी कॉरिडोर में दौड़ती बसों पर...शेरा ही शेरा...भला हो इन कॉमनवेल्थ गेम्स का दिल्ली की तो शक्ल ही बदल गई है। पूरी दिल्ली मेट्रों से जुड़ गयी है, चौड़ी चिकनी सड़कों पर सरपट दौड़ती गाड़ियां, एक से दूसरे फ्लाएऔवर पर ट्रैफिक बिना गाड़ी चलाने का मज़ा। सफायी ऐसी की सिंगापुर को पछाड़ दे...बेहतरीन स्टेडियम, पांच सितारा होटल, गेम्स विलेज के आलीशान फ्लैट भई वाह...दिल्ली में रहने पर फख्र हो रहा है। माफ कर दीजिए शीलाजी, कलमाडी साहब...हम देख नहीं पाए आपका कमाल और बहुत बुरा भला कहा आपको। आपने तो जादू कर दिया, कहा जा रहा है कि इस आयोजन के बाद पर्यटकों की संख्या चार गुना बढ़ गई है। हमने तो सोचा है कि अब बेटे को निशानेबाज़ी सिखाएं, क्या खूबसूरत शूटिंग रेंज बनी है...
अरे ये क्या -ये साइरेन की आवाज़ कहां से रही है...ये मैं हूं कहां..सब कुछ धुंधला-धुंधला क्यों नज़र आ रहा है..ओह लगता है आंख लग गयी..
हां भई राजू, कहां पहुंचे
मैडम अच्छा हुआ आप सो लीं, एक घंटे से यहीं धौला कुआं में हैं। लगता है आगे वो खेलों की वजह से खुदी सड़क पर पानी भर गया है। अस्पताल पहुंचने में तो 1 घंटा और लगेगा।
तो लगता है कॉमनवेल्थ गेम्स के आयोजकों को गाली देते-देते आंख लग गई। रोज़ का ही तमाशा बन गया हैं। लंबे ट्रैफिक जाम,धसी हुईं सड़कें और अब डेंगू। जा रहे हैं अपनी दोस्त से मिलने, डेंगू हो गया है। मनहूस कॉमनवेल्थ गेम्स के चक्कर में दिल्ली खोद दी है। जगह जगह पानी भर गया है और मच्छरों ने यही अपना खानदान बसा लिया है।
सच में, मैं बहुत कोशिश कर रही हूं इस खेल के आयोजन में एक अच्छी बात ढूंढने की। पर क्या करूं कुछ दिखता नही। 10 में से सिर्फ एक आदमी शायद जानता हो कि राष्ट्रमंडल देशों के समूह में कौन-कौन से देश हैं, क्यों हुआ था इस समूह का गठन और ब्रिटेन से आज़ादी मिलने के बाद भी ये क्यों सक्रिय है। वहां से आगे बढ़ें तो सवाल की हमने क्यों हाथ उठाया जब आयोजन करने की बारी आयी। जिस देश में महंगाई,भुखमरी,बाढ़-सूखा,गरीबी, आतंकवाद,पीड़ितों के पुनर्वास जैसी गंभीर समस्याएं हों वहां खेलो के आयोजन में दस हज़ार करोड़ लगा दिए जाने का क्या औचित्य है।
चलिए ये पैसा इन तमाम समस्याओं के हल में न लगा कर अगर देश में खेलों के सुधार पर लगाया जाता या खिलाड़ियों के प्रशिक्षण में इस्तमाल होता तो भी सही होता, लेकिन नहीं, खेलों के आयोजन की इतनी महत्वाकांक्षी योजना बनायी गयी कि अब लेने के देने पड़ रहे हैं। क्रिकेट को छोड़ तमाम दूसरे खेलों से जुड़े लोग स्पॉन्सर न मिलने का रोना रोते हैं तब तो पैसा होता नहीं देने के लिए लेकिन हां बॉलिवुड सितारों को समारोह में थिरकने के लिए पैसा है, खिलाड़ियों को ठहराने के लिए 2-2 करोड़ के फ्लैट बनाने के लिए पैसा है। महंगी ट्रेडमिल चौगुने दाम पर खरीदने के लिए पैसा है।
भ्रष्टाचार में लिप्त अधिकारियों का ज़मीर कैसे उन्हें झूठ पर झूठ बोलने की हिम्मत देता है? कौन सी ऐसी चीज़ छोड़ी गयी है जिस पर इन्होंने पैसा नहीं खाया? खेलों का आयोजन सिर्फ पैसा बनाने के लिए ही किया गया लगता है? फिर मैं कैसे खेलों को लेकर आशावान रहूं, गौरव महसूस करूं कि खेल मेरी दिल्ली में हो रहे हैं। उम्मीद रखूं कि अगले महीने इसी तारीख को दिल्ली की शक्ल बदल जाएगी? तमाम देशों की सरकारें हिदायत दे रहीं हैं पर्यटकों को कि दिल्ली मत जाओ। सवाल पूंछ रही हैं कि डेंगू की रोकथाम के लिए क्या किया जा रहा है? सेना बुलायी गई है अब डेंगू की रोकथाम के लिए तो लगा लीजिए अंदाज़ा कि कैसे हालात हैं।
करा क्या जाए, बैठ कर तमाशा देखा जाए। और सपना सच होने का इंतज़ार किया जाए। पर सपने अगर सच होने लगे तो बात ही क्या थी। डर तो इस बात का है कि अभी तो जैसे-तैसे डेडलाइन के दबाव में काम हो रहा है। काम कैसा हो रहा है किस दर्जे का हो रहा है ये भी किसी से छुपा नहीं है। काम को बस खत्म करने की कोशिश की जा रही है जब खेल खत्म हो जाएगा और पैसा हजम हो जाएगा तब घटिया माल से बनी सड़कें फिर फटेंगी तब इन सड़कों को कौन भरेगा, छुपा हुआ मलबा कौन हटाएगा, डेंगू के मच्छर कौन भगाएगा- सेना या कछुआ छाप?
भ्रष्टाचार और कॉमनवेल्थ गेम्स का एक इतना गहरा रिश्ता बन चूका है जिसे याद रखा जायेगा....जितना भारत के उच्च प्रदर्शन को लेकर यह खेल जाना जायेगा उससे कही जायदा देश की गरिमा और मर्यादा को मिटटी में मिलाने के नाम पर जाना जायेगा !
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