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न समझोगे तो मिट जाओगे हिंदुस्तांवालो...

आशुतोष

बीस साल बाद भी उस अस्सी साल के बुजुर्ग का चेहरा मैं भूल नहीं पाया। झुर्रियों से अटे उस चेहरे से भरभर टपकते आंसू और खरखराती आवाज। वो आवाज आज भी मेरे कानों में गूंजती है। 'आज राजीव गांधी होते तो अमर हो जाते'। अयोध्या में विवादित जमीन के पास शिलान्यास के करीब खड़े उस बुजुर्ग ने बड़ी मासूमियत से कहा था। मैंने बस इतना पूछा था-बाबा आपको कैसा लग रहा है। ये पूछना था कि वो फफक-फफक के रो पड़े। मैं उन दिनों जेएनयू में पढ़ रहा था। सीपीआई ने अयोध्या में रैली का आह्वान किया था। सी. राजेश्वर राव सीपीआई के जनरल सेक्रेटरी थे। मैं और सुहेल रैली में शामिल होने चल पड़े थे। रामजन्मभूमि के नाम पर संघ परिवार का उन्माद अपने उफान पर था। ट्रेन में कई बार मारपीट होते-होते बची थी। बचते-बचाते हम अयोध्या पहुंचे। स्टेशन से उतरकर पैदल ही हम बाबरी मस्जिद की तरफ बढ़े। जैसे-जैसे हम आगे बढ़ रहे थे सुहेल के चेहरे की लकीरें बदलती जा रहीं थी। अचानक एक मोड़ पर सुहेल रुका और बोला-मैं अब आगे नहीं जाऊंगा। तुम चले जाओ। डर तो मुझे भी लग रहा था। पर मैं आगे बढ़ता गया। और इन बुजुर्ग से मुलाकात हुई।

बुजुर्ग की झुर्रियां मुझसे कह रह थीं कि राममंदिर मुद्दे ने किस तरह से एक तबके को झकझोर दिया था और सुहेल की लकीरें बता रही थीं कि इस धार्मिक उन्माद ने कैसे मुस्लिम तबके में डर और खौफ पैदा कर दिया था। हिंदुओं और मुसलमानों के बीच शक की एक मोटी दीवार खड़ी कर दी गई थी। एक तरफ से जितनी तेज हुंकार होती दूसरी तरफ से उससे तेज आवाज में जवाब देने की कोशिश होती। ये असाधारण काल था। तर्क और विवेक कहीं किसी काल कोठरी में छिप गए थे। ऐसे में 30 सितंबर को जब इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला आया और दोनों तरफ से कटु बातें नहीं हुईं तो मैंने चैन की सांस ली। यानी अब साधारण माहौल में बात हो सकती है।

माहौल में इस बदलाव की गंभीरता को कुछ लोग अभी भी समझना नहीं चाहते हैं। इनको अदालत का फैसला पंचायती फैसला लगता है। और वो कहते हैं कि तथ्यों और साक्ष्यों से ज्यादा आस्था पर भरोसा किया गया है जो खतरनाक है। पर क्या इस साधारण काल में भी ये कहना विवेकसम्मत होगा कि वो जगह रामलला की नहीं है और उन्हें वहां से हटा देना चाहिए? कानून की पेचीदगियों में फंसे लोगों को इस बात का एहसास ही नहीं है कि ऐसा करने का मतलब उस बुजुर्ग के लिए क्या होगा? और क्या महज जमीन विवाद का नाम देकर फैसला हिंदू या मुसलमान के पक्ष में कर दिया जाता? जिसे हिंदू राममंदिर मान रहे हों वो वहां से बेदखल कर दिये जाएं या फिर जो उसे मस्जिद कहते हैं उनसे वो जमीन छीन कर हिंदुओं को दे दी जाती? क्या लोगों को एहसास है कि इससे सुहेल पर क्या असर होता और किस तरह की भावनाएं फिर भड़कतीं? शायद नहीं। पूरी जमीन किसी के भी पक्ष में जाती दूसरा पक्ष अपने को ठगा हुआ महसूस करता और जाने अंजाने उसे साजिश की बू आती। कानून के जानकारों को समझना चाहिए कि ये मसला जमीन का होता तो कभी का निपट गया होता। ये मसला दोनों समुदायों के बीच आस्था का भी होता तो भी दोनों पक्षो के धर्म गुरु हल निकाल लेते। मसला 'इतिहास से बदला' लेने और 'वर्तमान में अपने अस्तित्व' को बचाये रखने का है। एक पक्ष को लगता है कि इतिहास में मुस्लिमों ने हिंदुओं पर भारी जुल्म किए हैं और अब बदला लेने का वक्त है। तो मुस्लिम पक्ष को लगता है कि बहुसंख्यक हिंदुओं के बीच अगर वो एक बार झुक गये तो उन्हें हमेशा झुकना पड़ेगा। और 'मेजारिटी डेमोक्रेसी' उनके लिए 'तानाशाही' का सबब बन जाएगी। क्योंकि संख्या बल में कम होने की वजह से हमेशा उनकी 'हार' होगी।

जस्टिस खान ने अकारण नहीं कहा है कि हमें वो काम दिया गया था जिसे करने से फरिश्ते भी डरते। चारों तरफ बारूदी सुरंगें बिछी हैं और हमें हल निकालना था। उनका इशारा साफ है कि दोनों पक्षों के इस 'फाल्स कांशसनेस' से तर्कों के आधार पर नहीं निपटा जा सकता। एक दूसरे पर लंबे समय तक किया गया अविश्वास यों नहीं मिटने वाला। और अगर ध्यान से देखें तो हाई कोर्ट का फैसला भी यही कहता है। उसने जमीन का फैसला किया ही नहीं है। अदालत कह रही है कि दोनों भाइयों को ये समझना होगा कि दोनों को यहीं रहना है, साथ-साथ। लिहाजा वो राम के अस्तित्व को भी मानती है और मस्जिद के लिये भी जमीन देती है। वो इशारा करती है कि जितनी जल्दी हो ये सचाई गले उतर जाए तो बेहतर है कि हिंदू और मुसलमान दोनों में से कोई भी हिंदुस्तान छोड़कर नहीं जाने वाला और जब यहीं रहना है तो फिर एक दूसरे का सम्मान करते हुये क्यों न रहा जाये। सहअस्तित्व के भाव से। ऐसे में राम और मस्जिद में झगड़ा क्यों? और कब तक? सुकून इस बात का है कि अठारह साल बाद अब दोनों पक्षों की जुबान बदली है। जो भरोसा देती है कि दोनों ही सचाई समझने लगे हैं। इसलिए संघ कहता है कि हमें ऐसी कोई भी बात नहीं कहनी चाहिये कि किसी को ठेस लगे और मुस्लिम पक्ष मायूस तो है लेकिन आक्रामक नहीं।

और इस समझदारी के बीच अदालत ने दोनों पक्षों के लिए सुलह सफाई के लिये रास्ता भी तय कर दिया है। एक अति सम्मानित कानूनविद के मुताबिक अदालती फैसले की मूल भावना को समझते हुए दोनों पक्ष मिल बैठकर बातचीत के जरिए किसी समझौते पर पहुंचे। फिर लोकतंत्र में अदालत का फरमान ना मानने का अर्थ है बहुसंख्यक जनता की नाराजगी मोल लेना, संविधान की गरिमा को ठेस पहुंचाना, लोगों की नजरों में गिरना। ऐसे में दोनो पक्ष 'इतिहास और अस्तित्व के संकट' से निकल कर वर्तमान में सांस लें और किसी भी फार्मूले को स्वीकार कर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाएं और इस विवाद को हमेशा के लिए खत्म करें। यही वक्त की नजाकत है और इसीलिये अल्लामा इकबाल के हवाले से जस्टिस खान लिखते हैं कि -ना समझोगे तो मिट जाओगे


Comments

  1. सही कहा आपने कुछ बातें भुलाने में ही सब की भलाई है , लेकिन आप उनके बारे में क्या कहेंगे , जिन्होंने ताजमहल मथुरा के ईदगाह वगैरह के बारे में दावे कर रखे हैं . और संघ परिवार ने जो हज़ार से अधिक जगह चिन्हित किया है , ये मामला यही ख़त्म नहीं होता ये हर एक मुसलमान जानता है , बात झुकने की नहीं बात आगे बढ़ने की है , सबसे पहले ऐसे उन्मादी तत्वों को जेल में डालना चाहिए , चाहे वो किसी भी धर्म से ताल्लुक रखते हों .

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  2. ""रामजन्मभूमि के नाम पर संघ परिवार का उन्माद अपने उफान पर था। ट्रेन में कई बार मारपीट होते-होते बची थी। बचते-बचाते हम अयोध्या पहुंचे।" वे लोग स्वयं क्यों अयोध्या जारहे थे ?"----क्या आसुतोष जैसे लोगों के लिये अब भी यह ’उन्माद’ था,न्याय व वास्तविकता के लिये संघर्ष नहीं जबकि राम जन्म भूमि पर हाई कोर्ट की मुहर लग चुकी है। एसे अविचारशील लोगों के कारण ही, भ्रम्पूर्ण स्थितियां, झगडे व झंझट खडे होते हैं।

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  3. "न समझोगे तो मिट जाओगे हिंदुस्तांवालो"--अल्लामा इकबाल ने यह अविभाजित भारत के लिये , अन्ग्रेज़ों के खिलाफ़ कहा था और बाद मे वे स्वयं ही बदल गये ,एसे कथन का क्या उदाहरण देना ।

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--- संजय सेन सागर

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