हाल ही में देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी. सीबीआई ने दिल्ली में कंपनी लॉ बोर्ड के एक सदस्य को घूस लेते रंगे हाथ धर-दबोचा। सीबीआई ने बाकायदा इसके लिए एक प्रेस रिलीज भी जारी की। लेकिन प्रेस रिलीज में ना तो इस बात का खुलासा किया गया कि कंपनी लॉ बोर्ड के इन महानुभाव को क्यों गिरफ्तार किया गया है और ना ही ये बताया गया कि वे किस कंपनी के झगड़े का निबटारा करने के लिए ये घूस की रकम हड़पना चाहते थे। ये खबर ना तो शायद किसी टी.वी चैनल में चली और ना ही शायद किसी अखबार में। अगर खबर आई भी तो इतनी कि “कंपनी लॉ बोर्ड का सदस्य घूस लेते गिरफ्तार”। लेकिन मीडिया में ये बात साफ हो चुकी थी कि ये कौन से कंपनी थी। बताया जा रहा है कि ये कंपनी कोई ऐसी-वैसी नहीं थी—उत्तरी भारत के सबसे लोकप्रिय माने जाने वाला अखबार, अमर उजाला। अखबार के बिजनेस पार्टनर्स के बीच कई सालों से चलती आ रही जंग का नतीजा थी ये खबर।
अमर उजाला की नींव कई साल पहले दो दोस्तों—डोरी लाल अग्रवाल और मुरारी लाल माहेश्वरी—ने डाली थी। आगरा और बरेली से प्रकाशित होने वाली इस अखबार ने पिछले दो दशकों में हिंदी भाषी क्षेत्र में अपनी अलग पहचान बनाई है। आज ये अखबार उत्तर भारत के डेढ़ दर्जन शहरों से प्रकाशित किया जाता है। लेकिन डोरी लाल और मुरारी लाल जी की मौत के बाद इस अखबार की बागडोर एक साथ दोनों के परिवारों को सयुंक्त रुप में आ गई। अखबार नई पीढ़ी के हाथों में आने के बाद दिन दोगुनी और रात चौगुनी तो करने लगा, लेकिन अंदर ही अंदर दोनों परिवारों के बीच शायद मन-मुटाव रहने लगा।
मेरे लिए अमर उजाला से जुड़ी खबर इसलिए भी हैरान करने वाली थी, क्योकि ये एक ऐसा अखबार है जिसे मैं पिछले करीब 25 सालों से पढ़ रहा हूं। मुझे याद है कि 1983 के क्रिकेट विश्वकप जीतने की खबर भी मैने इसी अखबार में पढ़ी थी और उसकी क्लीपिंग काट कर कई सालों तक संजोकर रखी थी—टी.वी पर 1983 विश्वकप की फाइनल की रिकॉर्डिंग देखने के बाद ही वो क्लीपिंग गायब हुई थी। आज, मीडिया में होने के चलते मेरे पास हिंदी अखबार पढ़ने के कई विकल्प है। लेकिन मुझे लगता है कि हिंदी अखबारों में अगर सबसे अच्छी क्राइम रिपोर्टिंग अगर कहीं होती है तो वो है अमर उजाला। हाल ही में एमेटी यूनिवर्सिटी में एक सेमिनार के दौरान जब छात्रों ने मुझसे पूछा कि क्राइम रिपोर्टिंग के लिए कौन सा अखबार पढ़ना चाहिए, तो बिना सोचे मेरा जबाब था, अमर उजाला।
खैर, ये खबर पता चलते ही कि अमर उजाला में कंपनी के बंटबारे को लेकर क्या पैतरे अपनाए जाते हैं, तो मुझे चार-पांच साल पुराना एक मामला याद आ गया। इसी तरह से उत्तर भारत के एक जाने-माने हिंदी अखबार के मालिक ने अपने बिजनेस पार्टनर की ‘सुपारी’ दी थी। उस अखबार में भी हिस्से को लेकर बंदरबाट चल रही थी।
एक दिन मैं अपने आफिस—सहारा टी.वी—में बैठा था कि एक ‘मित्र’ का फोन आया। उसने मुझे तुंरत अपने ऑफिस आने के लिए कहा। मैं तुंरत वहां पहुंच गया। उसने मेरे सामने एक सुपारी किलर का इकबालिया बयान रख दिया। बयान पढ़ते ही मैं चौंक गया। उसपर उत्तर प्रदेश के एक अखबार मालिक के दक्षिणी दिल्ली स्थित कोठी के बाहर जान से मारने का प्लान लिखा था। साथ ही लिखा था कि वो पिछले कुछ दिनों से उसकी रेकी (पीछा) कर रहा है—कहां जाता है, किससे मिलता है, इत्यादि। मेरे मित्र ने बताया कि इस हिंदी अखबार—ये भी उत्तर भारत के सर्वाधिक पढ़े जाने वाले अखबारों में से एक हैं—में कंपनी में हिस्से को लेकर लड़ाई छिड़ी हुई है। नौबत यहां तक पहुंच गई कि एक (बिजनेस) पार्टनर ने दूसरे पार्टनर की सुपारी तक दे डाली है।
सुपारी किलर के बयान में लिखा था कि उसे ये काम (जान से मारने का) मेरठ जेल में बंद एक बड़े गैंगस्टर ने दिया है। उसके इस इकबालिया बयान को पढ़कर मुझे लगा कि ये मेरा अबतक सबसे बड़ा स्कूप (खुलासा) हो सकता है—अखबारवालों की सुपारी! लेकिन ऑफिस लौटने से पहले मेंरे उस मित्र ने कई बार कुरेद-कुरेद कर मुझसे पहुंचा, “स्टोरी चलाने का दम है।” मैने जवाब दिया, क्यों नहीं...जरुर चलेगी। ये वायदा करके मैं आफिस लौट आया।
लेकिन बॉस को स्टोरी बताने से पहले, मैं खुद इस इकबालिया बयान की तस्दीक करना चाहता था। स्टोरी को क्रॉस-चैक करने में दो-तीन दिन लग गए। इसी बीच, दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने पूर्वी दिल्ली में दो बदमाशों का एनकाउंटर कर डाला। अगर मैं गलत नहीं हूं तो उनसे से एक बदमाश का नाम था, अशोक उर्फ बंटी। कोई बड़ा एनकाउंटर नहीं था। खबर को ज्यादा तवज्जो नहीं दी गई क्योंकि कुछ हफ्ते पहले ही, दिल्ली पुलिस ने हरियाणा पुलिस के साथ मिलकर इन बदमाशों के सरगना, हेमंत उर्फ सोनू को गुंड़गांव में एक (लाइव) एनकाउंटर में ढेर किया था। लिहाजा, अशोक उर्फ बंटी का एनकाउंटर आया-गया हो गया—जैसे कंपनी लॉ बोर्ड के सदस्य की गिरफ्तारी का हो गया। हां, एनकाउंटर के कई साल बाद, अशोक उर्फ बंटी अखबार की सुर्खियों में एक बार फिर तब आया, जब पता चला कि वो दिल्ली में जिस्मफरोशी के धंधे की सबसे बड़ी दलाल, सोनू पंजाबन का पति भी रहा चुका था।
कुछ दिनों बाद के बाद मैने अखबारवालों की सुपारी वाली स्टोरी पर फिर से काम करना शुरु कर दिया। इस बार मैने दिल्ली पुलिस के आला-अधिकारियों से सुपारी मामले में संपर्क किया तो पता चला कि “सुपारी किलर की बात कन्फर्म नहीं हो पाई।” मैंने उन अधिकारी से जब इसका कारण पूछा, तो उन्होने बताया कि जब मेरठ जेल में बंद उस गैंगस्टर—जिसने इस किलर को सुपारी दी थी—से पूछताछ की गई तो उसने खुलासा किया कि उसे ये सुपारी किसी और ने नहीं अशोक उर्फ बंटी ने दी थी। इससे पहले की दिल्ली पुलिस बंटी से पूछताछ कर इस मामले की तहतक पहुंच पाती, उसका एनकाउंटर हो गया। ऐसे में पुलिस का मानना था कि जब मामले का “लिंक” ही टूट गया है तो “सुपारी किलर की बात पर कैसे भरोसा कर लें।” लिहाजा, अखबारवालों की अखबारवालों के लिए सुपारी का मामला ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।
यहां, ये भी बताना जरुरी है कि जैसे ही ये खबर मैने अपने बॉस को बताई, तो वे अपनी कुर्सी से उछल गए। “...अबे मरवाओगे क्या...ये खबर चलाकर...”, उनका जबाब था। लेकिन, मेरे जिद करने पर, वे इस स्टोरी को लेकर सुपर-बॉस के पास पहुंचे और फिर मुंह लटकाकर वापस आ गए। मैं समझ गया कि मेरी स्टोरी का क्या हश्र हुआ है। मेरे साथ ऐसा पहली बार नहीं हुआ था कि किसी स्टोरी को इसलिए ड्राप कर दिया गया था कि उसमें एक बड़े अखबार के मालिकों की काली-करतूत का भांडाफोड़ हो जाता या फिर किसी रसूखदार की साख पर बट्टा लगा जाता। मीडिया में काम करते हुए एक क्राइम रिपोर्टर को कई बार ऐसे दौर से गुजरना पड़ता है।
एक खबर तो मुझे आजतक याद है। ये बात करीब छह साल पुरानी है। पंजाब पुलिस के एक तेजतर्रार आईजी पर तीन लोगों के अपहरण और हत्या का मामला चल रहा है—आईजी का भाई एक सीनियर आईएएस आफिसर है और उस वक्त (केन्द्रीय) गृह मंत्रालय में तैनात था। उसकी कवरेज (ना) करने के लिए तो मुझे पंजाब से ही बीच शूट से लौटना पड़ा था। बॉस का स्टोरी ना करने का फोन जो आ गया था।
Comments
Post a Comment
आपका बहुत - बहुत शुक्रिया जो आप यहाँ आए और अपनी राय दी,हम आपसे आशा करते है की आप आगे भी अपनी राय से हमे अवगत कराते रहेंगे!!
--- संजय सेन सागर