आर जगन्नाथन
कश्मीर के हालिया संकट से हम अपने लिए कुछ सबक ले सकते हैं। यह हमारे लिए एक अवसर है कि हम केंद्र और राज्य के संबंधों पर पुनर्विचार करें। हमें राज्यों के समूह से आगे बढ़कर एक ‘भारतीय महासंघ’ (इंडियन फेडरेशन) बनाने की जरूरत है। घाटी में चल रहा संकट हमारे देश के सामने मुंह बाए खड़ी सबसे विकट चुनौतियों में से है। पुलिस और अर्धसैनिक बल घाटी के उग्र युवाओं के निशाने पर हैं। ‘आजादी’ की यह पुकार महज मुस्लिम अलगाववाद ही नहीं है। यह इससे कहीं ज्यादा ‘सशक्तीकरण’ की आवाज भी है।इसमें कोई दोराय नहीं कि हमने कश्मीर में स्थिति को संभालने के लिए सही कदम नहीं उठाए। इस तरह हमने घाटी के रहवासियों के असंतोष को इस सीमा तक जाने का मौका दिया कि वे राष्ट्रविरोधी तरीके अख्तियार करते हुए अपने गुस्से का इजहार करने लगे।
यह ऐसी स्थिति है, जिसे सामान्य नहीं कहा जा सकता, लिहाजा इससे निपटने के लिए भी सामान्य तरीके नाकाफी होंगे। महज थोड़ा बल प्रदर्शन कर और कुछ राहत पैकेज बांटकर हम इस समस्या से नहीं निपट सकते। कश्मीर की ‘स्वायत्तता’ के बारे में बात करने का भी कोई फायदा नहीं है, क्योंकि अलगाववादी उसे भी नकार देंगे। इससे भी महत्वपूर्ण यह कि एक राज्य को दूसरे से अधिक ‘आजादी’ देना भी कोई समझदारीभरा फैसला नहीं है। इसके बाद ये सवाल भी उठाए जाने लगेंगे कि बिहार या नगालैंड या तमिलनाडु को भी कश्मीर जितनी ही स्वायत्तता क्यों नहीं दी जा सकती।
कश्मीर का मसला हमें इसलिए विशेष मालूम हो रहा है क्योंकि हम उसे इसी नजर से देखते हैं। दरअसल हमारे सभी राज्यों को आपस में जोड़कर रखने वाला ढांचा न तो अपनी संरचना में संघीय है और न ही एकल। भारत एक संघ नहीं बल्कि राज्यों का समूह है। हमारे संविधान निर्माताओं ने स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े अनुभवों को ध्यान में रखते हुए केंद्र को राज्य से अधिक अधिकार सौंपे थे। हमारी राज्य सरकारों ने इस तंत्र की खामी को तब महसूस किया, जब कांग्रेस ने विपक्षी पार्टियों की सरकारों को सत्ता से बेदखल करने के मकसद से इन्हीं अधिकारों का दुरुपयोग किया।
१९८९ के बाद कश्मीर में बिगड़े हालात और देश के अन्य राज्यों में पनपी क्षेत्रवादी प्रवृत्तियों के बीच समानताएं खोजी जा सकती हैं। इसकी सबसे अहम वजह केंद्र और राज्यों के बीच सत्ता का असंतुलन ही है। बीते कुछ समय में देश के तकरीबन हर इलाके में क्षेत्रवादी प्रवृत्तियां बढ़ी हैं। केंद्र ने इस समस्या से निपटने के लिए और छोटे राज्य बना दिए। पूर्वोत्तर और अन्य राज्यों की अलगाववादी ताकतों से सौदेबाजी कर समस्या को हल करने की कोशिश की।
मुमकिन है ऐसी ही सौदेबाजी के बाद नया तेलंगाना राज्य बना दिया जाए। लेकिन बुनियादी समस्या जस की तस रही। हमने ज्यादा आर्थिक आजादी की चाह की तरफ ध्यान नहीं दिया। जरूरी नहीं कि नए राज्यों के निर्माण में राजनीतिक ‘पिरामिड’ से शक्ति नीचे तक पहुंचे। इससे केवल इतना ही होता है कि राज्यों का प्रबंधन आसान हो जाता है। हमें भारत के लिए संघीय प्रणाली अख्तियार करनी चाहिए, जिसमें राज्यों की यह मजबूरी न हो कि उन्हें बार-बार अपने प्रदेशवासियों के जीवन स्तर में सुधार के लिए केंद्र के सामने हाथ फैलाना पड़ें।
अभी यह हो रहा है कि राजनीतिक सत्ता तो राज्य में है, लेकिन आर्थिक ताकत मुख्यत: केंद्र के पास है। यही कारण है कि ममता बनर्जी दिल्ली के बजाय पश्चिम बंगाल से रेल मंत्रालय चलाना चाहती हैं। यह संरचनागत दोष नहीं है। ये हालात भूमंडलीकरण के दबावों और कॉपरेरेट ताकतों के उभार के साथ उपजे हैं। आज क्षेत्रीय दल सही मायनों में सत्ता की कुंजी हैं, लेकिन वे केंद्र में भी सत्ता का बंटवारा चाहते हैं, क्योंकि आर्थिक ताकत तो केंद्र में है।
भूमंडलीकरण इतने बड़े पैमाने पर बहुराष्ट्रीय संरचनाओं का निर्माण कर रहा है कि अक्सर तो वे कई देशों से भी बड़ी होती हैं। ये बहुराष्ट्रीय ताकतें पलक झपकते ही संसाधनों का स्थानांतरण कर सकती हैं। इस स्थिति पर दिल्ली एक सीमा तक ही नियंत्रण रख सकती है, लेकिन राज्यों के स्तर पर ऐसा नहीं हो सकता। आज कॉपरेरेट ताकतें केंद्र पर दबाव बना रही हैं कि वह कर प्रणाली का सरलीकरण करे और परिवहन ढांचे में राष्ट्रव्यापी सुधार लाए। लेकिन ऐसा होने पर बची-खुची आर्थिक ताकत भी केंद्र के हिस्से में चली जाएगी। एक उदाहरण देखें।
आखिर क्या वजह है कि बृहन्मुंबई म्युनिसिपल कापरेरेशन चुंगी को समाप्त करना नहीं चाहती? जवाब है क्योंकि यह उसके लिए स्वतंत्र राजस्व का इकलौता स्रोत है। फिर सवाल उठता है कि सभी राज्यों में गुड्स एंड सर्विस टैक्स (जीएसटी) की दरें अलग-अलग क्यों हैं? जवाब है क्योंकि करों में एकरूपता लाने पर मनमर्जी नहीं की जा सकेगी। यदि अधिकांश राज्यों द्वारा जीएसटी को स्वीकार कर लिया जाता है तो इसके बाद कोई भी कंपनी ऐसे राज्य में निवेश नहीं करेगी, जो जीएसटी का हिस्सा नहीं है।
वेल्यू एडेड टैक्स (वैट) के साथ भी यही हुआ। अगर देखा जाए तो जीएसटी सुपर-वैट है। यदि किसी भी महत्वपूर्ण कर या फंड (जैसे आयकर, जीएसटी, कस्टम डच्यूटी और विदेशी निवेश) पर राज्यों का नियंत्रण नहीं रहेगा तो फिर क्षेत्रीय आर्थिक नीतियों का कोई मतलब ही नहीं रह जाएगा। राजस्व का एक हिस्सा पाना एक अलग बात है और आर्थिक नीतियों का निर्धारण करना दूसरी बात।
सत्ता के इस असंतुलन को पाटने के लिए ही राज्य स्तरीय राजनेता केंद्र की ओर खिंचे चले जा रहे हैं। विचारधारा और सिद्धांतों में बेमेल पार्टियों के गठजोड़ इसीलिए बनते हैं, क्योंकि सभी को आर्थिक सत्ता में अपना हिस्सा चाहिए। इससे बचने का एकमात्र तरीका यही है कि हम अपने संघीय ढांचे का नए सिरे से निर्माण करें और राज्यों को लगभग संपूर्ण आर्थिक स्वायत्तता प्रदान करें। प्रतिरक्षा, विदेश, मौद्रिक और वित्तीय नीतियों से जुड़े मामले पहले की तरह केंद्र के पास बने रहें।
अगर हम समय की मांग को समझें तो आर्थिक एकीकरण के दबावों को रोक पाना ज्यादा देर तक संभव नहीं हो सकेगा। यूरोपीय संघ इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। क्षेत्रवाद और सांप्रदायिकता की समस्याओं से भी केवल तभी जूझा जा सकता है, जब सत्ता का ढांचा संघीय हो। समय आ गया है कि अब हम केंद्र और राज्य के संबंधों को नए सिरे से तय करें। कश्मीरियों की आजादी की मांग का नाता कहीं न कहीं इंडियन फेडरेशन के एक नए विचार से भी है। बशर्ते इस पर गौर किया जाए। - लेखक डीएनए के एक्जीक्यूटिव एडिटर हैं
gujrat ka arthik utthan bhi to usiko achuut banata hai.
ReplyDelete