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पहले आवाज फिर पत्थर

क. यतीश राजावत

सरकार केवल जबानी जमा-खर्च करती है। वह कहती भर है कि हमें समाज के हर तबके को साथ लेकर चलना है, लेकिन लगता नहीं कि देश के आम लोगों के लिए काम करने में उसकी कोई दिलचस्पी है। छोटे-बड़े हर मोर्चे पर केंद्र सरकार देशवासियों से दूर होती जा रही है। अगर यही रुख रहा तो केवल श्रीनगर में ही पत्थर नहीं फेंके जाएंगे, पूरे देश में यह हालत हो जाएगी।


उदाहरण के तौर पर केंद्रीय वाणिज्य मंत्रालय रिटेल (खुदरा) कारोबार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की योजना बना रहा है। मंत्रालय ने एक मसौदा प्रस्ताव तैयार किया है कि खुदरा उद्योग में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश होना चाहिए या नहीं? प्रस्ताव अंग्रेजी में है। अगर आपके पास इंटरनेट कनेक्शन है और आप इसे मंत्रालय की साइट पर जाकर देख सकते हैं तो आप इस पर ‘कमेंट’ दे सकते हैं।


मंत्रालय भलीभांति जानता है कि इस नीति से समाज के जिस तबके के ऊपर सबसे ज्यादा असर पड़ेगा, वह अंग्रेजी नहीं जानता। चाहे वह खिलौने बेचने वाला लुधियाना का कोई छोटा कारोबारी हो या दिल्ली की खारी बावली का कोई किराना व्यापारी या लखनऊ के हबीबगंज बाजार का कोई कुर्ता विक्रेता। इन सब लोगों को अंग्रेजी नहीं आती है। ये लोग इस बहस में शामिल नहीं हो सकते, लेकिन यही वो लोग हैं जो इस बहस से सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे। इस नीति का सबसे ज्यादा असर इन छोटे-मोटे कारोबारियों पर ही होगा। सरकार निचले तबके को साथ लेकर चलने की बात तो करती है, लेकिन जब नीतियों का सवाल आता है तो सरकार इसे दिल्ली में बैठे विदेशी भाषा बोलने वाले चंद लॉबिस्टों तक सीमित कर देती है।


मंत्रालय ने ऐसा कुछ भी नहीं किया जिससे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर उसका प्रस्ताव देश के लोगों को सहज उपलब्ध हो सके। इस पर अभी तक जो कमेंट आए हैं, उनमें से अधिकांश नकारात्मक हैं। केवल एक कमेंट सकारात्मक है, वह भी कंज्यूमर अफेयर्स डिपार्टमेंट का है। इसे सार्वजनिक नहीं किया गया है, लेकिन विभाग के मुताबिक इस कमेंट में खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का समर्थन किया गया है। सिर्फ भाव बढ़ाना काफी नहीं था, इसलिए कंज्यूमर अफेयर्स डिपार्टमेंट अब यह चाहता है कि नियोजित ढंग से भाव बढ़ें। यह डिपार्टमेंट कृषि मंत्रालय के अंतर्गत आता है, जिसके मंत्री शरद पवार हैं। मिनिस्टर साहब ज्यादातर तो गायब रहते हैं, जैसे कि जब सरकार महंगाई के मुद्दे पर घिर गई, तब भी वे गायब ही थे, मगर जहां बात विदेशी धन की आती है तो उनका डिपार्टमेंट तुरंत हरकत में आ जाता है।


अब किराना व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के पक्ष में दी गई दलीलों पर एक नजर डालते हैं। निश्चय ही उद्योग संगठनों के कुछ कमेंट इसके समर्थन में आए हैं, जिनमें अमेरिकन चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स और रिटेल चेन केयरफोर जैसे संगठन हैं।


श्वेत पत्र कहता है कि मल्टीनेशनल रिटेल कंपनियां भारत में अपने निवेश के जरिए हमारे किसानों की मदद करेंगी। इससे किसानों को उनकी उपज का बेहतर मूल्य मिल सकेगा। ये कंपनियां छोटे और मंझोले कारोबारियों से माल खरीदेंगी और ग्राहकों को वाजिब दाम पर चीजें मुहैया कराएंगी। सरकार इस नीति को मल्टीब्रांड रिटेल में एफडीआई की नीति कहती है। ऐसा कहकर भी वो गुमराह कर रही है। सीधी-सादी भाषा में कहें तो यह किराना स्टोरों का मालिकाना हक विदेशियों को देने की नीति है। सरकार देश के विशाल कारोबारी समुदाय के साथ टकराव से बचना चाहती है, इसलिए घुमा-फिराकर बात कर रही है।


किराना व्यापार में विदेशी निवेश के पीछे सबसे जबर्दस्त दलील यह दी जा रही है कि इससे कृषि क्षेत्र में इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए निवेश में मदद मिलेगी। यह अजीबोगरीब दलील है। वे कहते हैं कि रिटेल में एफडीआई से प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी और इस तरह खुदरा व्यापारी ज्यादा उत्पादकता के लिए मजबूर होंगे। लिहाजा उन्हें सप्लाय चेन में निवेश बढ़ाना पड़ेगा। इस सप्लाय चेन में एक कड़ी किसानों को खुदरा व्यापारियों से जोड़ती है, इसलिए कृषि इन्फ्रास्ट्रक्चर में भी निवेश बढ़ेगा।


यह दलील उस अध्ययन में दी गई है, जो उद्योगों की ओर से लॉबी करने वाले संगठन फिक्की और निजी रियल एस्टेट फर्म आईसीआईसीआई प्रॉपर्टी सर्विसेस ने किया है। यह अध्ययन तो यहां तक कहता है कि रिटेल में एफडीआई के आने से पर्यटन क्षेत्र के विकास में भी मदद मिलेगी। यही नहीं यह सरकार को एसएसआई (स्माल स्केल इंडस्ट्रीज) रिजर्वेशन में ढील देने की भी सलाह देता है। हो सकता है आप इस अध्ययन को हास्यास्पद कहकर खारिज कर दें या इसे कॉपरेरेट के हितों को बढ़ाने वाला कहें, लेकिन सरकार के पास और भी कई तर्क हैं।


मसौदा प्रस्ताव शुरुआत में ही थिंक टैंक आईसीआरआईईआर (इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशंस) की दलील का हवाला देता है। उसकी दलील है, ‘यह दोनों के लिए ही अच्छा सौदा है। इसमें संगठित और असंगठित रिटेल दोनों साथ-साथ अच्छी तरह फले-फूलेंगे और दोनों के आकार में भी खासी बढ़ोतरी होगी।’ वह यह भी कहता है, ‘असंगठित रिटेल में बंदी की दर महज 4.2 प्रतिशत है, जो अंतरराष्ट्रीय दर से बहुत कम है।’ गनीमत है असंगठित क्षेत्र की खुदरा दुकानों के बंद होने की बात स्वीकार की गई है।


यह उस तरह से है कि गर्दन तो कटी है पर दुनिया से कम कटी है। खून तो बहा है, लेकिन दुनिया से कम बहा है, जबकि दसवीं योजना की मध्यावधि समीक्षा में सरकार ने दूसरी ही बात कही थी। प्रस्ताव में उसका भी हवाला है। यह कहता है, ‘मौजूदा खुदरा व्यापारियों पर बड़े पैमाने पर प्रतिकूल असर की आशंका को भी बढ़ा-चढ़ाकर बताया जा रहा है। तब तो और भी जब देश में आधुनिक घरेलू रिटेलिंग वैसे भी शुरू हो चुकी है।’ इससे पता चलता है कि योजना आयोग हमेशा की तरह सच्चाई से कितनी दूर है।


जब से बाजार में संगठित रिटेल आया है, तब से हरेक शहर में असंगठित खुदरा व्यापारियों की बिक्री में कमी देखी गई है। और इन शहरों के व्यापारी दिल्ली में कई बार प्रदर्शन करके अपनी शिकायतों का सार्वजनिक इजहार भी कर चुके है, लेकिन सरकार के कानों पर लगता है जूं नहीं रेंगी।


इतने सारे लोगों के विरोध के बावजूद अगर सरकार सुनने को तैयार नहीं है तो फिर ये आवाजें कहीं दूसरा मोड़ न ले लें। अगर करोड़ों कारोबारियों के धंधे खत्म हो जाएंगे, तो शायद पत्थर फेंकने वाले सिर्फ श्रीनगर में नहीं, हर शहर में पैदा हो जाएंगे। कश्मीर में २१ साल के नौजवान के हाथों में पत्थर इसलिए है क्योंकि उसके पास काम नहीं है। इसी तरह अगर करोड़ों खुदरा व्यापारियों की रोजी-रोटी छिन जाएगी तो उनके हाथों में भी पत्थर आते देर नहीं लगेगी।


लेखक दैनिक भास्कर के मैनेजिंग एडिटर हैं।


Comments

  1. बिल्कुल सही कहा है आपने...यदि यही हाल रहा तो पत्थर तो उठाएगें ही लोग.....।
    वैसे सरकारों के अब तक के कामों को देख कर तो यही लगता है कि उस के ऊपर कोई असर नही होनें वाला...जब पत्थर उठाए जाएगे तब शायद कुछ असर हो सरकार पर.....क्यों कि सरकार की नींद टूटती ही ऐसे है....;)

    समय रहते सरकार चेत जाए तो अच्छा है।

    ReplyDelete

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--- संजय सेन सागर

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