प्लीज, अनुराग कश्यप को कठघरे में खड़ा मत करिए
प्लीज, अनुराग कश्यप को कठघरे में खड़ा मत करिए
♦ मनोज बाजपेयी
पिछले दिनों काफी गहमागहमी रही। यहां का दस्तूर ही कुछ ऐसा है। जब तक आपकी फिल्म हिट न हो आपको व्यस्त नहीं रखा जाता। अभी तक मैं अपने जीवन में मशगूल था। अपने तरीके की छोटी बड़ी फिल्में करता था। लेकिन, कुछ दिनों से एक हिट का मुंह नहीं देखा था। इस कारण लोगों की नजरों में चढ़ा नहीं था। इज्जत थी, प्यार था, लेकिन गहमागहमी से दूर था। लेकिन, राजनीति की सफलता के साथ काफी कुछ बदल गया है। एक फिल्म के सफल होने के साथ ही कई सारे लोगों की आशाओं को पूरा करना पड़ता है। और फिर पारिवारिक जिम्मेदारियां। घर में सिर्फ मैं और मेरी पत्नी। और पूरा करने के लिए घर के बहुत सारे काम। इसी में उलझा रहा और लिखने से दूर भागता रहा। लेकिन, एक दो दिन पहले जब मुझे मोहल्ला लाइव द्वारा आयोजित बहस में अनुराग कश्यप को बुलाने और उनसे हुई बहस के बारे में जानकारी हुई तो मैंने उसे पढ़ा और फिर मुझे लगा कि लिख ही डालूं।
मेरी बहुत बड़ी शिकायत है हमारे पत्रकार मित्रों से। बहुतों से मैं लगातार मिलता हूं और कइयों से पहचान है मेरी। अनुराग कश्यप को बुलाकर उनके होने पर ही सवाल उठाकर आप क्या साबित करना चाहते हैं? जब अनुराग कश्यप, विशाल भारद्वाज, दिबाकर बनर्जी, नीरज पांडे जैसे युवा निर्देशक सामने आये तो उनकी संगत का भरपूर मजा लीजिए। न कि उनको कठघरे में खड़ा करना शुरू कीजिए। क्योंकि उन्होंने अपने सिनेमाई करियर की शुरुआत से लेकर अभी तक ऐसा कुछ नहीं किया है, जिसे लेकर उन्हें भड़कने पर मजबूर किया जाए। अनुराग कश्यप से समाज को बदलने की अपेक्षा क्यों रखी जाती है? अनुराग कश्यप अगर सिनेमाई भाषा की परिभाषा बदलने में लगे हैं तो उन्हें बधाई दीजिए। उनके साथ चाय पीजिए और उस याद को घर लेकर जाइए।
दलितों पर फिल्म नहीं बनायी जा सकती है, एक अच्छी कहानी पर फिल्म बनायी जा सकती है। और उस कहानी के केंद्र में दलित हो सकते हैं। उनके सामाजिक पहलू हो सकते हैं। और एक फिल्म बनाने के लिए एक कहानी की सख्त जरूरत होती है। सिनेमा समाज नहीं बदलता। मैं ये कई साल से कहता आ रहा हूं। अगर ऐसा होता तो गोविंद निहलानी और श्याम बेनेगल के वक्त में समाज कब का बदल गया होता। अमिताभ बच्चन जैसा सुपरस्टार हिंदुस्तानी फिल्म इंडस्ट्री ने कभी नहीं देखा, जिन्होंने रुपहले पर्दे पर हमेशा दबे कुचले लोगों का नेतृत्व किया। तो फिर दबे कुचले लोगों की स्थिति क्यों नहीं सुधर गयी?
हमारे सीनियर नसीरुद्दीन शाह ने कहा था कि सिनेमा से सिर्फ हेयर स्टाइल बदलता है, समाज नहीं। बहुत सही कहा था। ये बात सही है कि सिनेमा की रचनात्मकता को बरकरार रखा जाना चाहिए। उसके विकास पर लगातार काम होते रहना चाहिए। इसमें अनुराग कश्यप अग्रणी हैं। क्या उनके साथ सिनेमा की बदलती भाषा पर बात नहीं हो सकती? क्या उनसे किसी ने पूछा कि इस पूरे कमर्शियल बाजार में वो अपनी फिल्में भी कैसे बना लेते हैं? क्या किसी ने उनसे पूछा कि उन्होंने इस दौड़ में क्या क्या खोया है? क्या किसी को यह पता है कि वो अपनी फिल्म को आज तक रीलीज क्यों नहीं कर पाये? क्या आपको पता है कि ब्लैक फ्राइडे के रिलीज होने तक अनुराग कश्यप की क्या दुर्दशा रही? अपने सिनेमा की भाषा के प्रति इमानदार रहने की जिद में अनुराग कश्यप भी एक तेवर वाले निर्देशक हो चुके हैं। आप उन्हें भड़काइए मत। उन्हें आदर दीजिए। आप उन पर सवाल मत खड़े कीजिए। उनसे दोस्ती कीजिए। और उनसे बातें कीजिए। आपके सारे सवालों का जवाब तभी मिलेगा। और शायद हमारे कुछ बंधुओं को यह मालूम नहीं कि वो सचमुच में एक फिल्म, जिसके लिए मुझसे हामी ले चुके हैं, उसमें दलित केंद्र में है।
लेकिन मैं जानता हूं कि वो कभी भी इस तरह की बहसबाजी के वक्त इस बात को उठाकर अपना बचाव नहीं करेंगे। आप हमसे सिर्फ सिनेमा के प्रति ईमानदार होने की ही आशा कीजिए। अगर हम वो भी कर जाते हैं तो भी हम समाज में कहीं न कहीं अपना योगदान दे रहे हैं। अगर आपको हिंदुस्तान की फिल्म इंडस्ट्री के बाजारूपन का एहसास नहीं है तो आपको सवाल करने का भी कोई हक नहीं है। यहां पर वो लोग पूजे जाते हैं, जिन्हें नाचना आता है, जिन्हें दूसरे के बोलों पर सलीके से होंठ हिलाना आता है। उनके बीच भी खालिस फिल्म बनाना और अच्छी फिल्म बनाना बड़ी बात है। खैर, मेरा आपसे निवेदन है कि जो बहस हो चुकी है, वो हो चुकी। जिसे जो भड़ास निकालनी थी, निकाल चुका। अपने लेखों में। अपने इंटरव्यू में। मेरी गुजारिश है कि अपने देखने के नजरिये में थोड़ा सा बदलाव लाइए। थोड़ी इज्जत अनुराग कश्यप और विशाल भारद्वाज जैसे लोगों और हम लोगों को भी दीजिए क्योंकि आपकी एक थप्पी से हमें बहुत साहस मिलेगा। आशा करता हूं कि मेरी किसी बात से आपको दुख नहीं पहुंचा होगा। उस बहस को पढ़कर मुझे जो दुख हुआ, उसी को मैंने आपके सामने रखा है।
(मनोज बाजपेयी। फिल्म अभिनेता। बैंडिट क्वीन, सत्या, शूल, जुबैदा, अक्स, पिंजर, रोड, मनी है तो हनी है, जेल और राजनीति महत्वपूर्ण फिल्में। बिहार के पश्चिमी चंपारण के गांव बेलवा में पैदाइश। दिल्ली के रामजस कॉलेज से ग्रैजुएट। एनएसडी के लिए तीन बार कोशिश की, तीनों बार नाकामयाब। उनसे manojbajpayee@itzmyblog.com पर संपर्क किया जा सकते है।
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आपका बहुत - बहुत शुक्रिया जो आप यहाँ आए और अपनी राय दी,हम आपसे आशा करते है की आप आगे भी अपनी राय से हमे अवगत कराते रहेंगे!!
--- संजय सेन सागर