म मता बनर्जी से भी बहुत पहले एक मृणाल गोरे थीं। सलवटों वाली साड़ी और भिंची हुई मुट्ठियां। यह समाजवादी नेता सड़कों पर उतरकर संघर्ष करने वाली सच्ची नेता थीं, जिन्होंने ७क् के दशक में मुंबई के मध्य वर्ग के बीच अपनी मजबूत छवि बनाई थी। उनका आंदोलन मुंबई के उपनगरों में स्वच्छ पेयजल के लिए था।
आंदोलन के कारण उनका नाम ही ‘पानीवाली बाई’ पड़ गया। उनके मुद्दे मध्य वर्ग के मुद्दे थे - स्वच्छ जल, सस्ते किफायती मकान, कम कीमतें। जब उन्होंने एक रैली का आयोजन किया तो सब लोग तुरंत उनके समर्थन में खड़े हो गए। २क्१क् का भारत 1970 का भारत नहीं है। यही कारण है कि जब इस हफ्ते विपक्ष ने भारत बंद का आयोजन किया तो न तो हमें मृणाल गोरे जैसी कोई शख्सियत इस बंद का नेतृत्व करती दिखाई दी और न ही शहरी मध्यवर्ग ने इस विरोध प्रदर्शन में शिरकत की।
विपक्ष का दावा है कि बढ़ती कीमतों के खिलाफ यह बंद काफी ‘सफल’ रहा। अगर आर्थिक अव्यवस्था और उथल-पुथल ही बंद के सफल होने की निशानी है तो संभवत: विपक्ष का कहना सही है। यदि विपक्षी ताकतों की एकता का प्रदर्शन ही बंद का लक्ष्य था तो बंद निश्चित ही सफल था। लेकिन यदि हिंदुस्तान के मध्य वर्ग का समर्थन और सहयोग हासिल करना लक्ष्य था तो यह बंद इस लक्ष्य को पाने में सफल नहीं हुआ। जो लोग सड़कों पर इकट्ठा हुए थे, उनमें से अधिकांश पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता थे।
कुछ मामलों में तो, खासतौर से मुंबई में शिवसेना के मामले में सड़कों पर जमा लोग अराजक तत्व थे, जिन्हें बंद के बहाने गुंडागर्दी और तोड़फोड़ करने का मौका मिल गया। दूसरी ओर देश के सामान्य नागरिकों के लिए यह बंद एक अतिरिक्त छुट्टी का दिन था, जिस दिन बैठकर कोई टीवी सीरियल देखा जा सकता है या फिर देर रात हुए वर्ल्ड कप मैच के पुन: प्रसारण का लुत्फ उठाया जा सकता है।
इस पूरे प्रकरण से कुछ महत्वपूर्ण सवाल खड़े होते हैं : हिंदुस्तान का मध्य वर्ग महंगाई जैसे मुद्दे के खिलाफ, जो उसकी रोजमर्रा की जिंदगी से बहुत सीधा ताल्लुक रखता है, बंद में हिस्सा लेने के प्रति इतना उदासीन क्यों है? जिन मुंबईवासियों ने 26/11 के हमले के बाद सड़कों पर अपना आक्रोश जाहिर किया था, वे महंगाई के खिलाफ भारत बंद में शामिल क्यों नहीं हुए?
जो दिल्लीवासी न्याय व्यवस्था के पतन के खिलाफ मोमबत्तियां जलाकर प्रदर्शन करते हैं, उन्होंने मुद्रास्फीति के विरुद्ध जनरैली में शिरकत क्यों नहीं की? इन सवालों का जवाब बहुत सीधा और स्पष्ट है : खाद्य पदार्थो की बढ़ती कीमतों पर हमें गुस्सा आता है, लेकिन ये सुनियोजित राजनीतिक बंद सामूहिक अराजकता का ही माहौल पैदा करते हैं।
इससे यह भी पता चलता है कि मध्य वर्ग और राजनीतिक नेतृत्व के बीच कितनी गहरी खाई है। 70 के दशक में मृणाल गोरे जैसी शख्सियतें जनता के समर्थन से जनता के मुद्दों के लिए हड़ताल करती थीं। ये ऐसे नेता नहीं थे, जो पूरे साल अपनी एयरकंडीशंड पजेरो में उड़ते-फिरते थे और अचानक एक दिन सड़कों पर प्रकट हो जाते।
मृणाल गोरे जैसे लोगों के लिए राजनीति जन सेवा के प्रति उनके समर्पण का ही एक रूप था। मध्य वर्ग ऐसे नेताओं और उनके द्वारा उठाए गए मुद्दों के साथ खुद को जोड़कर देखता था। आज का आम आदमी उन नेताओं के साथ खुद को नहीं जोड़ पाता, जिनकी जीवन शैली उसकी रोजमर्रा की परेशानियों और सवालों से दूर-दूर तक कोई ताल्लुक नहीं रखती।
लेकिन ये सिर्फ नेतागण ही नहीं हैं जो बदल गए हैं, हिंदुस्तान के मध्य वर्ग, खासतौर से ज्यादा समृद्ध अमीर तबके की प्राथमिकताएं भी बहुत नाटकीय ढंग से बदल गई हैं। वे पहले की तुलना में ज्यादा आत्मकेंद्रित हो गए हैं। क्रेडिट कार्ड, लालच और लाभ की संस्कृति का अर्थ है कि कल की चिंता बेकार है। जो है यहां और अभी है।
जब तक उपभोग के इस कभी न खत्म होने वाले चक्र को नहीं बदला जाता, तब तक दिहाड़ी पर काम करने वाले लोगों के प्रति सहानुभूति बहुत कम होगी, जो सिर्फ अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। दो अंकों की मुद्रास्फीति सिर्फ एक आंकड़ा है, हिला देने वाली गहरी चिंता नहीं है। यह वह यथार्थ है, जो इस सवाल का जवाब दे सकता है। क्यों मृणाल गोरे जैसे मध्यवर्ग के नेता राजनीतिक मानचित्र से बिल्कुल गायब हो गए।
इस संदर्भ में केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार का रुख बड़ा रोचक रहा है। हाल ही में हुई एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में जब उनसे यह सवाल किया गया कि लगातार बढ़ रही मुद्रास्फीति के खिलाफ वृहद पैमाने पर आंदोलन क्यों नहीं हो रहे हैं तो इस पर उनका कहना था कि 70 के दशक और वर्तमान समय में एक बुनियादी फर्क है। फर्क यह है कि आज जहां एक ओर कीमतें आसमान छू रही हैं, वहीं दूसरी ओर बाजार में कोई मंदी या अभाव नहीं है। उनके अनुसार आज से 30 साल पहले खाद्यान्न का अभाव लोगों में इतना आक्रोश भरने के लिए काफी था कि वे सड़कों पर उतर आएं।
आज बढ़ती कीमतें ऐसी चीज है, जिसके साथ भारतीय उपभोक्ता समझौता करने और तालमेल बिठाने को तैयार है क्योंकि दुकानें सामानों से भरी पड़ी हैं। आखिरी बार अगर कोई पार्टी महंगाई के मुद्दे पर चुनाव में हारी थी तो वह संभवत: 1998 का दिल्ली का चुनाव था। यह ‘प्याज’ के सवाल पर हुआ चुनाव था, जिसमें सुषमा स्वराज को यह समझ में आया कि चुनावों में कोई भी इस बेचारी सब्जी को नहीं हरा सकता। उसके बाद से राजनीतिक पार्टियों के भाग्य ने महंगाई के साथ तालमेल बिठा लिया है और उसके बाद से ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता कि खाद्यान्न कीमतों की अव्यवस्था के कारण किसी राजनीतिक पार्टी की कुर्सी छिनी हो।
शायद यही कारण है कि अब महंगाई पर बहस प्राय: सरकार के आत्मसंतोष और विपक्ष के प्रतीकात्मक विरोध के बीच ही घूमती रहती है। कितनी बार प्रधानमंत्री ने अर्थव्यवस्था पर पड़ रहे मुद्रास्फीति के दबाव के संबंध में देश की जनता को अपने विश्वास में लिया है? हमने कभी सोनिया गांधी या राहुल गांधी को उस मुद्दे पर बोलते क्यों नहीं सुना, जो उस आदमी के साथ बहुत गहरे जुड़ा है, जिस आम आदमी का प्रतीक होने का वे दावा करते हैं? दूसरी ओर कितनी बार विपक्ष ने पेट्रो कीमतों को मुक्त किए जाने के मुद्दे पर संसद में गंभीरता से बहस की है? ऐसा लगता है कि दोनों एक ऐसे मुद्दे पर हवाई लड़ाई लड़ रहे हैं, जिसका उनके चुनावी भविष्य पर तत्काल कोई प्रभाव पड़ने वाला नहीं है।
पुनश्च: यह विडंबना ही है कि वह नेता, जो 1974 की ऐतिहासिक देशव्यापी रेलवे हड़ताल समेत हड़ताल के इस विचार के अग्रदूत थे, उन्हें भारत बंद वाले दिन अल्जाइमर से पीड़ित होने के बावजूद अदालत में ले जाया गया। जॉर्ज फर्नाडीज नेताओं के उस युग से ताल्लुक रखते हैं, जिनके लिए सड़कों पर उतरकर आंदोलन और विरोध प्रदर्शन बहुत स्वाभाविक बात थी। बहुत दुखद है कि वह युग अब धीरे-धीरे अंत की ओर बढ़ रहा है
bahut sahi mudda uthayaa
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