श्रवण गर्ग
पाकिस्तान में सत्ता प्रतिष्ठान और मीडिया के कुछ हिस्सों द्वारा यह धारणा बनाई जा रही है कि दोनों देशों के विदेश मंत्रियों एसएम कृष्णा और शाह महमूद कुरैशी के बीच बातचीत विफल हो गई है और ऐसा नई दिल्ली के रवैए में लचीलेपन की कमी के कारण हुआ है।
दूसरी ओर, भारतीय पक्ष बातचीत के नतीजे से आमतौर पर संतुष्ट है। उसका कहना है कि अपने नजरिए और अपनी चिंताओं को साफ और दो-टूक शब्दों में पाकिस्तान के सामने रखा है, जिसके लिए इस्लामाबाद पूरी तरह तैयार नहीं था।
बातचीत का संभावित नतीजा पाकिस्तानी वार्ताकारों और अन्य लोगों के लिए पहले ही जाहिर था क्योंकि आतंकवाद के बारे में और खासतौर पर मुंबई हमले को लेकर भारत की चिंताओं के समाधान की दिशा में पाकिस्तान ने कोई कदम नहीं उठाया था।
बातचीत में भारत का एजेंडा क्या होगा, यह पाकिस्तान को ठीक तभी पता चल गया था जब भारतीय विदेश मंत्री एसएम कृष्णा ने इस्लामाबाद हवाई अड्डे पर कदम रखने के फौरन बाद वहां प्रतीक्षारत भारतीय मीडियाकर्मियों और पाकिस्तानी अधिकारियों की मौजूदगी में पहले से तैयार बयान पढ़ा। इस बयान में उन्होंने जो कुछ कहा, उसको उसी दिन बाद में एक बार फिर दोहराने में भी कोई संकोच नहीं किया।
आधिकारिक वार्ता शुरू होने से पहले जब वह भारतीय इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के साथ बातचीत के लिए आए, तब उन्होंने उसी बयान को दोहराते हुए भारत का नजरिया फिर स्पष्ट कर दिया। इसलिए यह देखकर किसी को कोई हैरानी नहीं हुई कि बातचीत का स्वर और नतीजा सामान्य रूप से दोनों पक्षों को पहले से पता था।इस्लामाबाद में और दिल्ली में भी अब जो सवाल पूछा जा रहा है, वह यह है कि इस बातचीत के बाद दोनों देशों के बीच जो कथित गतिरोध की स्थिति है, उससे आगे दोनों देश कहां जाएंगे।
यह बात आश्चर्यजनक नहीं थी कि पाकिस्तानी मीडिया का एक हिस्सा विभिन्न मुद्दों पर भारत के रवैए से नाखुश होकर शत्रुतापूर्ण होता जा रहा है। इनमें खासकर जम्मू और कश्मीर सहित ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर पाकिस्तान अपनी चिंता व्यक्त करता रहा है। भारतीय प्रतिनिधि मंडल के नई दिल्ली पहुंचते ही इस्लामाबाद में पाक विदेश मंत्री पर राजनीतिक हमले शुरू हो चुके होंगे।
उन पर आरोप यह है कि ‘जब मंच के बाईं ओर कृष्णा ने उनकी मौजूदगी में यह कहकर उन्हें गलत साबित कर दिया कि इस्लामाबाद ने बलूचिस्तान में भारत का हाथ होने का किसी भी किस्म का कोई सबूत मुहैया नहीं करवाया है और अगर करवाया जाता है तो नई दिल्ली जिम्मेदारी स्वीकार करने को तैयार है, तब वह इसका जवाब नहीं दे पाए।’ कृष्णा का दृढ़ रुख इस बार पाकिस्तान के उन लोगों के लिए एक झटका था, जो अभी तक शर्म-अल-शेख के साझा बयान का फायदा उठाने की कोशिश कर रहे थे।
पाकिस्तानी मीडिया को इस बात से धक्का लगा कि कुरैशी ने कृष्णा के बयान को न स्वीकृत किया और न ही अस्वीकृत। ठीक यही तब भी हुआ, जब कुरैशी ने अपने उद्घाटक वक्तव्य में कश्मीर के हालात का जिक्र किया और एक पाकिस्तानी पत्रकार ने यही बात कृष्णा से सवाल की शक्ल में उठाई। इस पर भी भारतीय विदेश मंत्री ने परोक्ष रूप से यह जता दिया कि जम्मू और कश्मीर भारत का अभिन्न हिस्सा है और श्रीनगर में एक निर्वाचित सरकार कायम है।
पाकिस्तानी मीडियाकर्मियों ने इस बात पर भी चिंता प्रकट की कि कुरैशी ने भारतीय कब्जे वाले कश्मीर की बजाय ‘जम्मू और कश्मीर में हालात’ कहकर इस मुद्दे का जिक्र किया। एक पाकिस्तानी पत्रकार ने बाद में इस भूल को सुधारने में भी कोई कोताही नहीं की। यह देखकर भी कोई हैरानी नहीं हुई कि इस्लामाबाद में कई जगहों पर बड़े-बड़े बैनर और पोस्टर लगाए गए थे, जिनमें कश्मीर का मुद्दा उठाया गया था।
चप्पे-चप्पे पर जबर्दस्त सुरक्षा व्यवस्था के बावजूद वहां की सरकार और सत्ता प्रतिष्ठान ने इन बैनर-पोस्टरों को हटाने की कोई कोशिश नहीं की।इस्लामाबाद वार्ता का एक पूरी तरह अप्रत्याशित और निराशाजनक नतीजा पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान के उदार तत्वों, मीडिया और सभ्य समाज के लिए आघात की तरह होगा। कुछ ही दिन पहले खुद कुरैशी ने ऑन रिकॉर्ड कहा था कि भारत के साथ रिश्तों को सामान्य बनाने की प्रक्रिया को पलटा नहीं जा सकता।
पाकिस्तान के सूचना मंत्री कमर जमां कैरा भारत के अच्छे दोस्त हैं और पाकिस्तानी मीडिया के भारत विरोधी कट्टर तत्वों की खुलेआम आलोचना करते हैं। अभी यह देखा जाना बाकी है कि इस्लामाबाद में कृष्णा के प्रदर्शन और बातचीत के नतीजे से नई दिल्ली में एक राजनेता विदेश मंत्री के रूप में उनकी हैसियत बढ़ती है या नहीं। कहने की जरूरत नहीं कि इस्लामाबाद वार्ता की पूर्व संध्या पर नई दिल्ली में हेडली से पूछताछ को लेकर दिए गए गृह सचिव जीके पिल्लई के बयान से कुरैशी के साथ बातचीत के दौरान कृष्णा को मुश्किलों का सामना करना पड़ा।
अगर दोनों देश एक-दूसरे के साथ संबंधों को लेकर सचमुच गंभीर हैं तो दोनों ओर से अब तक हुए नुकसान की भरपाई के लिए गंभीर प्रयत्न करने होंगे। वैसे भी देखा जाए तो इस्लामाबाद में इन दिनों काफी गर्मी थी और तापमान ३६ डिग्री पर पहुंच गया था। यहां माहौल में भूटान के थिंपू जैसी शीतलता नहीं थी, जहां कुछ समय पहले भारत के प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी की मुलाकात हुई थी और उन्होंने दोनों देशों के बीच बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ाने का फैसला किया था।
अब बातचीत को इस्लामाबाद के इस पड़ाव से आगे ले जाने के लिए निश्चय ही बहुत कठिनाइयों से होकर गुजरना होगा क्योंकि पाकिस्तान के भारत विरोधी कट्टर तत्व, जिन्हें सेना और आतंकवादी संगठनों के ताकतवर हिस्सों का समर्थन हासिल है, अपने हित में हालात का लाभ उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। पाकिस्तान में राजनीतिक स्थिति फिलहाल वैसे भी बहुत नाजुक है।
मुल्क के भीतर उन संतुलित और उदार तत्वों को दरकिनार करने की कोशिश की जा रही है, जो विश्वास के संकट को दूर करके भारत के साथ बेहतर रिश्तों की वकालत कर रहे हैं। दुर्भाग्य से हमारे पास पॉल बाबा जैसा कोई ऑक्टोपस नहीं है, जो यह भविष्यवाणी कर सके कि आपस में भरोसे का निर्माण करने के लिए की जा रही कोशिशों का क्या नतीजा निकलेगा। दिक्कत यह है कि पाकिस्तान जैसे अपने पड़ोसी के साथ विमुखता और उदासीनता बरतने के विलास की सुविधा भारत को हासिल नहीं है।
लेखक भास्कर के समूह संपादक हैं
very nice
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