Source: हर्ष मंदर
आयशा तब महज नौ साल की थी, जब उसके पिता ने एक पंद्रह साल के रिक्शा चलाने वाले आदमी से उसकी शादी कर दी। शादी के बाद पहले दिन से उसका जेठ उसे जमींदार के खेतों में काम करने के लिए भेजने लगा। दिन भर काम करने के लिए उसे सिर्फ एक रोटी दी जाती। खेतों में जाने से पहले उसे घर का सारा काम निपटाना होता था, इसलिए वह सूरज उगने के बहुत पहले उठ जाती। वह अब भी छोटी बच्ची ही थी और उसे इतने कठिन श्रम की आदत नहीं थी। उसकी पीठ और छोटी-छोटी उंगलियों में दर्द होता था। उसका पति उसकी सारी कमाई दारू में उड़ा देता।
आयशा के लिए शादी का मतलब था कभी न खत्म होने वाले उबाऊ काम और हाड़तोड़ मेहनत, रात का मतलब था शराबी पति के लात-जूते और मारपीट। इनके बीच जचकी की एक लंबी श्रंखला थी। आज दो दशक बाद भी पिटाई के निशान उसकी देह पर बदस्तूर मौजूद हैं। जचकी के समय याद रखने वाली बस एक ही बात थी कि वैसे तो उसे जचकी के एक दिन पहले तक मजदूरी के लिए काम करना पड़ता था, लेकिन हर बार बच्चा होने के बाद रिवाज के चलते वह चालीस दिनों तक आराम कर सकती थी। ऐसे ही युवा विधवा के रूप में भी रिवाज के कारण शोक के समय उसने चालीस दिनों तक काम नहीं किया।
जितना याद आता है, नौ बरस की उमर में जब पिता ने उसका विवाह कर दिया था, उसके बाद से उसकी जिंदगी में आराम के यही दिन थे। शोक का वक्त पूरा होने के बाद उसने अपने पति के भाई से पनाह के लिए हाथ जोड़े। उन्होंने इस निर्दयी ताने के साथ उसे भगा दिया, ‘जिस तरह तुम इन बच्चों को दुनिया में लेकर आई, उसी तरह अब पालो भी। किसी चीज के लिए हमारा मुंह मत देखना।’ दशकों बाद अब वह पलटकर उस दिन के बाद से अपनी समूची जिंदगी की ओर देखती है, अनवरत संघर्षो से भरी हुई जिंदगी की ओर। वह ताना पति के परिवार से मुक्ति और अपनी ताकत और क्षमताओं को खोजने की राह थी।
पति के परिवार द्वारा निकाले जाने के बाद वह तीन दिनों तक भूखी बच्चों के साथ गांव की सड़क पर बैठी भीख मांगती रही। उसने अपनी हथेलियां फैलाई थीं, इसलिए दिल को कड़ा कर लिया था। चार और छह बरस की दो लड़कियों को उसने घरेलू नौकर की तरह काम करने के लिए हैदराबाद भेज दिया। दोनों को रहने-खाने के अलावा 25 रुपया महीना मिलता। उसका बड़ा बेटा सड़क किनारे के एक रेस्टोरेंट में काम करने लगा। उसे पचास रुपया महीना मिलता। आयशा की मां सिर्फ एक बेटे को अपने साथ रखना चाहती थी। इसीलिए वही इकलौता बच्चा था, जो सातवीं तक पढ़ सका।
खुद आयशा को भी गांव के पास सड़क निर्माण मजदूर का काम मिल गया। खाने की छुट्टी के वक्त जब बाकी मजदूर खाना खा रहे होते, वह पीछे झाड़ियों के नीचे सोने की कोशिश करती। जब भूख और बेकाबू हो जाती तो वह ढेर सारा पानी पी लेती और कमर के चारों ओर कसकर साड़ी बांधकर उसी दृढ़ निश्चय के साथ काम में लगी रहती। अगर रात में बच्चे रोते और उसके पास उन्हें खिलाने को कुछ न होता तो वह पड़ोस के मजदूरों के टैंट में जाकर थोड़ी सी गंजी (चावल का माड़) देने के लिए हाथ जोड़ती। हर बच्चा कुछ चम्मच गंजी पीने के बाद सो जाता। वह बड़े दार्शनिक लहजे में कहती है, ‘अगर गरीब को जिंदा रहना है तो उसे रोटी की भीख मांगना सीखना होगा।’ कभी-कभार शाम को सड़क बनाने का काम पूरा करने के बाद उसे लोगों के घरों में कुछ काम मिल जाता। लौटने में वे लोग उसे कुछ सूखी रोटियां दे देते और पूरा परिवार उन रोटियों का उत्सव मनाता था।
जब सड़क निर्माण का काम पूरा हो गया तो खुद आयशा भी हैदराबाद चली आई और डेढ़ सौ रुपए में एक घर में बाई की तरह काम करने लगी। बड़ा बेटा और बेटी, जब किशोर उम्र में पहुंचे तो प्लास्टिक बॉक्स बनाने वाली एक फैक्ट्री में काम करने लगे। एक दिन बेटी महमूदा का हाथ प्लास्टिक गलाने वाली मशीन में फंस गया और वह अपनी उंगलियां खो बैठी। जब उसकी बड़ी बेटी शहनाज सत्रह बरस की हुई तो आयशा ने उससे उम्र में दुगुने एक आदमी से उसका ब्याह तय कर दिया, जिसकी पत्नी तीन बच्चों के साथ उसे छोड़ गई थी। आयशा ने यह रिश्ता किया क्योंकि वह बिना किसी दहेज के शादी करने को राजी हो गया था। लेकिन निकाह की रात उसने शिकायत की कि शादी के खाने में मटन होना चाहिए। फिर उसने पांच जोड़ा कपड़ा, बर्तन, पानी की टंकी, एक घड़ी और बिस्तर की मांग की और कहा कि निकाह से पहले वह उसके हाथ में होना चाहिए।
आयशा बहुत गुस्से में थी, लेकिन उसके पड़ोसियों और बेटे ने किसी तरह व्यवस्था की। लेकिन अपने पति के घर में शहनाज की किस्मत अपनी मां से कुछ अलग न थी। वह भी शराब पीकर उसे पीटता और अपनी मां के घर से सोना-चांदी लाने की मांग करता। वह अपने भाई की दुकान पर चश्मा सुधारने का काम करता था, लेकिन उसने शहनाज को घर-घर काम करने के लिए भेजा। शहनाज ने एक लड़के को जन्म दिया और उसका पति वह बच्च अपनी नि:संतान बहन को देना चाहता था। उस भयावह रात को, जब उस आदमी ने न सिर्फ अपनी पत्नी, बल्कि उसकी मां और भाई को भी धक्के मारकर निकाल दिया तब पूरा परिवार अपने गांव नारायणपुर लौट आया। विधवा और उसके बच्चों के लिए उस गांव में यह कोई खुशियों से भरी वापसी नहीं थी, जहां एक बच्ची के रूप में वह ब्याहकर आई थी। छोटी बेटी महमूदा का ब्याह ज्यादा बड़ी चुनौती थी क्योंकि वह अपनी तीन उंगलियां खो चुकी थी। उसका दूल्हा भी चार बच्चों वाला शादीशुदा आदमी था। बेटे बड़े हुए तो आयशा को उम्मीद थी कि अब थोड़ी शांति मिलेगी, लेकिन उसका बड़ा बेटा बाप की तरह दारू पीता था और मुश्किल से ही पैसा घर लाता था। छोटा बेटा कुछ ठीक था, लेकिन एक दिन वह ट्रक से नीचे गिर पड़ा और उसका मानसिक संतुलन बिगड़ गया।
आज भी वह याद करती है, ‘जिंदगी के बारे में एक ही चीज याद आती है- बस दो रोटी घर लाने के लिए अथाह संघर्ष। यह सच है कि मैंने जिंदगी जी, लेकिन क्या जिंदगी ऐसी होनी चाहिए, हर दिन सिर्फ जिंदा रहने के लिए संघर्ष?’
लेखक राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य हैं.
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--- संजय सेन सागर