राजदीप सरदेसाई
कुछ लोगों का विश्वास है कि फुटबॉल जिंदगी और मौत का मामला है। मैं इस रवैए से बहुत निराश हूं। मैं आपको पक्का यकीन दिला सकता हूं कि जीवन इससे कहीं, कहीं, कहीं ज्यादा कीमती है। - महान लिवरपूल फुटबॉल कोच बॉब पेस्ले।
यदि खेल आधुनिक युग का धर्म है तो फिर आने वाले पांच हफ्तों तक फुटबॉल एक वैश्विक पूज्य देवता होगा। अन्य किसी खेल ने इतनी सफलतापूर्वक पूरी दुनिया में लाखों लोगों के मन को नहीं छुआ है, जितना कि इस ‘खूबसूरत खेल’ ने। फीफा वर्ल्ड कप में 32 देश आपस में प्रतिस्पर्धा करेंगे। इस प्रतिस्पर्धा में छोटे से देश स्लोवेनिया से लेकर पांच बार वर्ल्ड कप जीतने वाला विशालकाय देश ब्राजील तक शामिल है।
1930 में जब पहली बार वर्ल्ड कप हुआ था, तब से लेकर अब तक काफी कुछ बदल चुका है। तब मुश्किल से 13 देशों ने मोंटेवेडियो (उरुग्वे की राजधानी, जहां पहला वर्ल्ड कप हुआ था) की यात्रा की थी। उसके बाद दक्षिण अफ्रीका तक के सफर में 208 देशों ने शिरकत की (ओलिंपिक और यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों से भी ज्यादा बड़ी संख्या)। यद्यपि एक चीज अब तक नहीं बदली है : भारत अब भी हाशिए पर बैठकर ही इस खेल को देखेगा।
विडंबना यह है कि भारत 1950 के वर्ल्ड कप में शामिल होने में सफल हो गया था, लेकिन उसे वर्ल्ड कप छोड़ना पड़ा क्योंकि नंगे पैर खेलने की भारत की मांग को फीफा ने ठुकरा दिया था। संभवत: 50 और 60 का दशक एकमात्र ऐसा दौर था, जब भारतीय फुटबॉल ने कुछ ऐसे संकेत दिए थे कि वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा कर सकने में सक्षम है। भारत ने 1951 और 1962 में एशियन गेम्स में गोल्ड मैडल जीता था और बहुत शानदार तरीके से 1956 में मेलबर्न ओलिंपिक में हम चौथे पायदान पर पहुंचने के साथ ऐसी टीम थे, जिसने आखिरकार जूते पहने। वर्तमान वरीयता क्रम में भारत 133वें नंबर पर है। भारत सिर्फ बरमूडा, ताजिकिस्तान और बारबाडोस से ऊपर है, लेकिन फैरो आइलैंड, फिजी और लक्जमबर्ग से नीचे है। इन तीनों देशों की जनसंख्या मुश्किल से दक्षिण दिल्ली की जनसंख्या के बराबर होगी।
ऐसा क्यों है कि दुनिया का दूसरा सबसे ज्यादा जनसंख्या वाला देश इस खेल में हिस्सा नहीं लेगा? बेशक इसके पीछे वही घिसा-पिटा तर्क है कि कैसे क्रिकेट के प्रति हमारी दीवानगी ने अन्य टीम वाले खेलों के प्रति हमारे जुनून को कम कर दिया है। यहां तक कि हमारे यहां ही पैदा हुआ राष्ट्रीय खेल हॉकी भी हाशिए पर जा पहुंचा है। संभवत: यह सच है। खासकर जिस दुखद और निंदनीय तरीके से अधिकांश कॉरपोरेटों ने क्रिकेट को छोड़कर बाकी सभी खेलों से किनाराकशी कर ली है। लेकिन फिर भी यह तर्क नाकाफी है कि क्यों फुटबॉल इस तरह बिल्कुल हाशिए पर जा पहुंचा है। ब्राजील के लोगों में फुटबॉल को लेकर कुछ वैसी ही दीवानगी है, जैसी हमारे देश में क्रिकेट को लेकर है। लेकिन बावजूद इसके फुटबॉल के प्रति उनका जुनून कई सारे दूसरे खेलों जैसे वॉलीबॉल या बास्केटबॉल में उन्हें विश्व स्तरीय टीम प्रदान करने में बाधा नहीं बना।
ऐसा भी नहीं है कि भारतीयों में फुटबॉल के प्रति कोई जुनून है ही नहीं। मारगांव, शिलांग और कोझीकोडे का खेल देखिए। बड़ी संख्या में फुटबॉल प्रेमियों की मौजूदगी और उनके उल्लास की तुलना दुनिया के सबसे बेहतरीन फुटबॉल प्रेमियों से की जा सकती है। मैंने जानबूझकर भारतीय फुटबॉल के गढ़ कोलकाता का नाम नहीं लिया क्योंकि कोलकाता एक स्तर पर ऐसा प्रतीक बन गया है, जहां खेल हाशिए पर जा रहे हैं।
कोलकातावासियों के लिए फुटबॉल का मतलब बहुत लंबे समय तक एक किस्म का संकीर्ण क्षेत्रवाद था : पूर्वी बंगाल और मोहन बागान के बीच मैच का मतलब था, जिंदगी और मौत की लड़ाई। फुटबॉल क्लब को प्रोफेशनल बनाने के बजाय कोलकाता ने बाकी बंगाल की तरह उसे ओछेपन का हौज बन जाने की इजाजत दी। बहुत लंबे समय तक कोलकाता फुटबॉल लीग ने बहुत सीमित संसाधनों और सुविधाओं के साथ मैच खेले और खेल के प्रति बंगाली फुटबॉल प्रेमियों की भूख को संतुष्ट करने में सफल रही। लेकिन जब फुटबॉल प्रबंधकों की नींद खुली और उन्हें लीग को सचमुच प्रोफेशनल बनाने की जरूरत महसूस हुई, तब तक बहुत देर हो चुकी थी और बाकी दुनिया हमें पीछे छोड़कर बहुत आगे जा चुकी थी।
विडंबना यह है कि 1990 में सेटेलाइट टेलीविजन के बाद हमारी आंखें खुलीं। अचानक फुटबॉल प्रेमियों का दुनिया की सर्वश्रेष्ठ फुटबॉल प्रतिभाओं से साबका पड़ा और वह भी वर्ल्ड कप के दौरान हर चार साल में एक बार नहीं, बल्कि प्रमुख फुटबॉल लीगों के मैचों के द्वारा हर सप्ताहांत वे हमारे सामने आने लगे। उन मैचों में फुटबॉल के स्तर और उसकी गुणवत्ता ने हमें एहसास कराया कि बहुत तेजी से बदल रहे खेल में हम कितने पीछे रह गए हैं।
आज भारतीयों की ऐसी पीढ़ी पैदा हुई है, जो भारतीय फुटबॉल टीम की नहीं, बल्कि मैनचेस्टर यूनाइटेड और रीअल मैड्रिड की दीवानी है, जो खुद को बाइचुंग भूटिया से पहले वेन रूनी के साथ एकाकार महसूस करती है। एक तरह से खेल का यह ‘वैश्वीकरण’ एक मौका है कि हमारे देश में फिर से फुटबॉल को नए सिरे से जीवित किया जाए। इतना तय है कि आगामी कुछ हफ्तों के लिए इस देश में फुटबॉल मैच देखने के लिए जबर्दस्त दीवानगी होगी।
चुनौती यह है कि फुटबॉल के लिए इस जबर्दस्त मांग को एक ईमानदार फुटबॉल संस्कृति में तब्दील किया जाए। इसके लिए सबसे पहले तो जरूरी है कि एक ऐसा खेल, जिसमें एक-दूसरे को छूना पड़ता है, उसके प्रति एक खास ब्राह्मणवादी तिरस्कार की भावना को समाप्त किया जाए। इस खेल के लोकतंत्रीकरण के लिए देश के हर स्कूल में फुटबॉल का मैदान होना चाहिए ताकि हर बच्च फुटबॉल पर किक मारने के लिए प्रेरित हो।
भारतीय क्रिकेट सफल हुआ है क्योंकि उसने मुंबई और भारत के बड़े महानगरों के पारंपरिक कुलीनों से ऊपर उठकर सच्चे अर्थो में अपना लोकतंत्रीकरण किया है। फुटबॉल भी एक ठोस जमीन तैयार करके वास्तव में एक शानदार प्रेरक खेल बन सकता है। यह रातोंरात नहीं होगा। इसके लिए बाकायदा 20 वर्षों की योजना की जरूरत है। संभवत: हम यूरोप और अफ्रीका के शारीरिक रूप से श्रेष्ठ लोगों का मुकाबला नहीं कर सकते, लेकिन जैसे जापान और चीन ने फुटबॉल में एक अपेक्षाकृत सफलता दिखाई है, वैसे ही यदि हममें भविष्य के लिए निवेश करने की इच्छाशक्ति हो तो एक समय में यह सफलता अर्जित की जा सकती है। हो सकता है कि मेरे जीवन काल में हम कभी फुटबॉल वर्ल्ड कप में न खेलें, लेकिन क्या हम कम से कम एशिया में पुन: कुछ गौरव और अभिमान हासिल नहीं कर सकते?
पुनश्च: चूंकि मैं वर्ल्ड कप में भारतीय झंडा नहीं फहरा सकता, इसलिए पुर्तगाल को अपनी टीम मानूंगा। मेरा गोअन खून भी मुझे कुछ और करने नहीं देगा।
लेखक सीएनएन 18 नेटवर्क के एडिटर-इन-चीफ हैं।
यदि खेल आधुनिक युग का धर्म है तो फिर आने वाले पांच हफ्तों तक फुटबॉल एक वैश्विक पूज्य देवता होगा। अन्य किसी खेल ने इतनी सफलतापूर्वक पूरी दुनिया में लाखों लोगों के मन को नहीं छुआ है, जितना कि इस ‘खूबसूरत खेल’ ने। फीफा वर्ल्ड कप में 32 देश आपस में प्रतिस्पर्धा करेंगे। इस प्रतिस्पर्धा में छोटे से देश स्लोवेनिया से लेकर पांच बार वर्ल्ड कप जीतने वाला विशालकाय देश ब्राजील तक शामिल है।
1930 में जब पहली बार वर्ल्ड कप हुआ था, तब से लेकर अब तक काफी कुछ बदल चुका है। तब मुश्किल से 13 देशों ने मोंटेवेडियो (उरुग्वे की राजधानी, जहां पहला वर्ल्ड कप हुआ था) की यात्रा की थी। उसके बाद दक्षिण अफ्रीका तक के सफर में 208 देशों ने शिरकत की (ओलिंपिक और यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों से भी ज्यादा बड़ी संख्या)। यद्यपि एक चीज अब तक नहीं बदली है : भारत अब भी हाशिए पर बैठकर ही इस खेल को देखेगा।
विडंबना यह है कि भारत 1950 के वर्ल्ड कप में शामिल होने में सफल हो गया था, लेकिन उसे वर्ल्ड कप छोड़ना पड़ा क्योंकि नंगे पैर खेलने की भारत की मांग को फीफा ने ठुकरा दिया था। संभवत: 50 और 60 का दशक एकमात्र ऐसा दौर था, जब भारतीय फुटबॉल ने कुछ ऐसे संकेत दिए थे कि वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा कर सकने में सक्षम है। भारत ने 1951 और 1962 में एशियन गेम्स में गोल्ड मैडल जीता था और बहुत शानदार तरीके से 1956 में मेलबर्न ओलिंपिक में हम चौथे पायदान पर पहुंचने के साथ ऐसी टीम थे, जिसने आखिरकार जूते पहने। वर्तमान वरीयता क्रम में भारत 133वें नंबर पर है। भारत सिर्फ बरमूडा, ताजिकिस्तान और बारबाडोस से ऊपर है, लेकिन फैरो आइलैंड, फिजी और लक्जमबर्ग से नीचे है। इन तीनों देशों की जनसंख्या मुश्किल से दक्षिण दिल्ली की जनसंख्या के बराबर होगी।
ऐसा क्यों है कि दुनिया का दूसरा सबसे ज्यादा जनसंख्या वाला देश इस खेल में हिस्सा नहीं लेगा? बेशक इसके पीछे वही घिसा-पिटा तर्क है कि कैसे क्रिकेट के प्रति हमारी दीवानगी ने अन्य टीम वाले खेलों के प्रति हमारे जुनून को कम कर दिया है। यहां तक कि हमारे यहां ही पैदा हुआ राष्ट्रीय खेल हॉकी भी हाशिए पर जा पहुंचा है। संभवत: यह सच है। खासकर जिस दुखद और निंदनीय तरीके से अधिकांश कॉरपोरेटों ने क्रिकेट को छोड़कर बाकी सभी खेलों से किनाराकशी कर ली है। लेकिन फिर भी यह तर्क नाकाफी है कि क्यों फुटबॉल इस तरह बिल्कुल हाशिए पर जा पहुंचा है। ब्राजील के लोगों में फुटबॉल को लेकर कुछ वैसी ही दीवानगी है, जैसी हमारे देश में क्रिकेट को लेकर है। लेकिन बावजूद इसके फुटबॉल के प्रति उनका जुनून कई सारे दूसरे खेलों जैसे वॉलीबॉल या बास्केटबॉल में उन्हें विश्व स्तरीय टीम प्रदान करने में बाधा नहीं बना।
ऐसा भी नहीं है कि भारतीयों में फुटबॉल के प्रति कोई जुनून है ही नहीं। मारगांव, शिलांग और कोझीकोडे का खेल देखिए। बड़ी संख्या में फुटबॉल प्रेमियों की मौजूदगी और उनके उल्लास की तुलना दुनिया के सबसे बेहतरीन फुटबॉल प्रेमियों से की जा सकती है। मैंने जानबूझकर भारतीय फुटबॉल के गढ़ कोलकाता का नाम नहीं लिया क्योंकि कोलकाता एक स्तर पर ऐसा प्रतीक बन गया है, जहां खेल हाशिए पर जा रहे हैं।
कोलकातावासियों के लिए फुटबॉल का मतलब बहुत लंबे समय तक एक किस्म का संकीर्ण क्षेत्रवाद था : पूर्वी बंगाल और मोहन बागान के बीच मैच का मतलब था, जिंदगी और मौत की लड़ाई। फुटबॉल क्लब को प्रोफेशनल बनाने के बजाय कोलकाता ने बाकी बंगाल की तरह उसे ओछेपन का हौज बन जाने की इजाजत दी। बहुत लंबे समय तक कोलकाता फुटबॉल लीग ने बहुत सीमित संसाधनों और सुविधाओं के साथ मैच खेले और खेल के प्रति बंगाली फुटबॉल प्रेमियों की भूख को संतुष्ट करने में सफल रही। लेकिन जब फुटबॉल प्रबंधकों की नींद खुली और उन्हें लीग को सचमुच प्रोफेशनल बनाने की जरूरत महसूस हुई, तब तक बहुत देर हो चुकी थी और बाकी दुनिया हमें पीछे छोड़कर बहुत आगे जा चुकी थी।
विडंबना यह है कि 1990 में सेटेलाइट टेलीविजन के बाद हमारी आंखें खुलीं। अचानक फुटबॉल प्रेमियों का दुनिया की सर्वश्रेष्ठ फुटबॉल प्रतिभाओं से साबका पड़ा और वह भी वर्ल्ड कप के दौरान हर चार साल में एक बार नहीं, बल्कि प्रमुख फुटबॉल लीगों के मैचों के द्वारा हर सप्ताहांत वे हमारे सामने आने लगे। उन मैचों में फुटबॉल के स्तर और उसकी गुणवत्ता ने हमें एहसास कराया कि बहुत तेजी से बदल रहे खेल में हम कितने पीछे रह गए हैं।
आज भारतीयों की ऐसी पीढ़ी पैदा हुई है, जो भारतीय फुटबॉल टीम की नहीं, बल्कि मैनचेस्टर यूनाइटेड और रीअल मैड्रिड की दीवानी है, जो खुद को बाइचुंग भूटिया से पहले वेन रूनी के साथ एकाकार महसूस करती है। एक तरह से खेल का यह ‘वैश्वीकरण’ एक मौका है कि हमारे देश में फिर से फुटबॉल को नए सिरे से जीवित किया जाए। इतना तय है कि आगामी कुछ हफ्तों के लिए इस देश में फुटबॉल मैच देखने के लिए जबर्दस्त दीवानगी होगी।
चुनौती यह है कि फुटबॉल के लिए इस जबर्दस्त मांग को एक ईमानदार फुटबॉल संस्कृति में तब्दील किया जाए। इसके लिए सबसे पहले तो जरूरी है कि एक ऐसा खेल, जिसमें एक-दूसरे को छूना पड़ता है, उसके प्रति एक खास ब्राह्मणवादी तिरस्कार की भावना को समाप्त किया जाए। इस खेल के लोकतंत्रीकरण के लिए देश के हर स्कूल में फुटबॉल का मैदान होना चाहिए ताकि हर बच्च फुटबॉल पर किक मारने के लिए प्रेरित हो।
भारतीय क्रिकेट सफल हुआ है क्योंकि उसने मुंबई और भारत के बड़े महानगरों के पारंपरिक कुलीनों से ऊपर उठकर सच्चे अर्थो में अपना लोकतंत्रीकरण किया है। फुटबॉल भी एक ठोस जमीन तैयार करके वास्तव में एक शानदार प्रेरक खेल बन सकता है। यह रातोंरात नहीं होगा। इसके लिए बाकायदा 20 वर्षों की योजना की जरूरत है। संभवत: हम यूरोप और अफ्रीका के शारीरिक रूप से श्रेष्ठ लोगों का मुकाबला नहीं कर सकते, लेकिन जैसे जापान और चीन ने फुटबॉल में एक अपेक्षाकृत सफलता दिखाई है, वैसे ही यदि हममें भविष्य के लिए निवेश करने की इच्छाशक्ति हो तो एक समय में यह सफलता अर्जित की जा सकती है। हो सकता है कि मेरे जीवन काल में हम कभी फुटबॉल वर्ल्ड कप में न खेलें, लेकिन क्या हम कम से कम एशिया में पुन: कुछ गौरव और अभिमान हासिल नहीं कर सकते?
पुनश्च: चूंकि मैं वर्ल्ड कप में भारतीय झंडा नहीं फहरा सकता, इसलिए पुर्तगाल को अपनी टीम मानूंगा। मेरा गोअन खून भी मुझे कुछ और करने नहीं देगा।
लेखक सीएनएन 18 नेटवर्क के एडिटर-इन-चीफ हैं।
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आपका बहुत - बहुत शुक्रिया जो आप यहाँ आए और अपनी राय दी,हम आपसे आशा करते है की आप आगे भी अपनी राय से हमे अवगत कराते रहेंगे!!
--- संजय सेन सागर