राजस्थान में राजस्थानी ही हो शिक्षा का माध्यम
गलती सुधारने का सुनहरा अवसर
गांधी जी के शब्द- 'जो बालक अपनी मातृभाषा के बजाय दूसरी भाषा
में शिक्षा प्राप्त करते हैं, वे आत्महत्या ही करते हैं।'
त्रिगुण सेन कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार प्रारम्भिक शिक्षा मातृभाषा के माध्यम से ही होनी चाहिए। दूसरी ओर राजस्थान के शिक्षा मंत्री मास्टर भंवरलाल का बचकाना बयान अखबारों में प्रकाशित हुआ है कि फिलहाल राज्य में हिन्दी ही मातृभाषा है। जबकि मां हमें जिस भाषा में दुलारती है, लोरियां सुनाती है, जिस भाषा के संस्कार पाकर हम पलते-बढ़ते हैं, वही हमारी मातृभाषा होती है। मंत्री महोदय के बयान पर तरस आता है और बरबस ही उनके लिए कुछ सवाल जेहन में खड़े हो जाते हैं। माननीय मंत्री महोदय भी इसी राज्य के हैं। क्या उनकी मातृभाषा हिन्दी है? क्या उन्होंने अपनी मां से हिन्दी भाषा में लोरियां सुनीं। हिन्दी में ही उनके घर पर विवाह आदि उत्सवों के गीत गाए जाते हैं? हिन्दी में ही वे वोट मांगते हैं? जनता से संवाद हिन्दी में करते हैं? जिस महानुभव को महज इतना-सा अनुभव नहीं, उन्हें राजस्थान के शिक्षा मंत्री बने रहने का कोई हक नहीं।
आजादी के पश्चात राजस्थान में शिक्षा के माध्यम के सम्बन्ध में जो गलत निर्णय हुआ उस गलती को सुधारने का अब एक सुनहरा अवसर आया है और राजस्थान की सरकार अगर गांधीजी के विचारों का तनिक भी सम्मान करती है तो प्रदेश में तत्काल मातृभाषा के माध्यम से अनिवार्य शिक्षा का नियम लागू कर देना चाहिए। राजस्थान के शिक्षा-नीति-निर्धारकों को गांधीजी के इन विचारों पर अमल करना चाहिए- 'शिक्षा का माध्यम तो एकदम और हर हालत में बदला जाना चाहिए, और प्रांतीय भाषाओं को उनका वाजिब स्थान मिलना चाहिए। यह जो काबिले-सजा बर्बादी रोज-ब-रोज हो रही है, इसके बजाय तो अस्थाई रूप से अव्यवस्था हो जाना भी मैं पसंद करूंगा।' अपने व्यक्तिगत अनुभव से गांधीजी को यह पक्का विश्वास हो गया था कि शिक्षा जब तक बालक को मातृभाषा के माध्यम से नहीं दी जाती, तब तक बालक की शक्तियों का पूरा विकास करने और उसे अपने समाज के जीवन में पूरी तरह सहयोग देने लायक बनाने का अपना हेतु भलीभांति सिद्ध नहीं कर पाती। भारत कुमारप्पा के संपादन में गांधीजी के विचारों पर आधारित 'शिक्षा का माध्यम' नामक पुस्तिका में उनके शब्द हैं, 'मातृभाषा मनुष्य के विकास के लिए उतनी ही स्वाभाविक है जितना छोटे बच्चे के शरीर के विकास के लिए मां का दूध। बच्चा अपना पहला पाठ अपनी मां से ही सीखता है। इसलिए मैं बच्चों के मानसिक विकास के लिए उन पर मां की भाषा को छोड़कर दूसरी कोई भाषा लादना मातृभूमि के प्रति पाप समझता हूं।' गांधीजी को इस बात का मलाल रहा कि उन्हें प्राथमिक शिक्षा अपनी मातृभाषा गुजराती में नहीं मिली। उन्होंने लिखा कि जितना गणित, रेखागणित, बीजगणित, रसायन शास्त्र और ज्योतिष सीखने में उन्हें चार साल लगे, अंग्रेजी के बजाय गुजराती में पढ़ा होता तो उतना एक ही एक साल में आसानी से सीख लिया होता। यही नहीं गांधीजी ने माना कि गुजराती माध्यम से पढऩे पर उनका गुजराती का शब्दज्ञान समृद्ध हो गया होता और उस ज्ञान का अपने घर में उपयोग किया होता। गांधीजी ने स्पष्ट कहा कि मातृभाषा के अलावा अन्य माध्यम से शिक्षा प्राप्त करने वाले बालक और उसके कुटुम्बियों के बीच एक अगम्य खाई निर्मित हो जाती है। 'हरिजन सेवक' और 'यंग इंडिया' नामक पत्रों में गांधीजी ने इस मुद्दे को लेकर अनेक लेख लिखे। मातृभाषा को उन्होंने जीवनदायिनी कहा और उसके सम्मान के लिए हर-सम्भव प्रयास की आवश्यकता जताई। उन्होंने कहा- 'मेरी मातृभाषा में कितनी ही खामियां क्यों न हो, मैं उससे उसी तरह चिपटा रहूंगा, जिस तरह अपनी मां की छाती से। वही मुझे जीवन प्रदान करने वाला दूध दे सकती है।'
काबिले-गौर बात यह भी है, जिसमें गांधीजी ने लिखा- 'मेरा यह विश्वास है कि राष्ट्र के जो बालक अपनी मातृभाषा के बजाय दूसरी भाषा में शिक्षा प्राप्त करते हैं, वे आत्महत्या ही करते हैं।' अब सवाल यह उठता है कि हम कब तक अपने बालकों को आत्महत्या की ओर धकेलते रहेंगे? 64 बरस से लगातार मातृभाषा के बजाय अन्य माध्यम से शिक्षा ग्रहण करते रहने के बावजूद भी राजस्थान के लोग अपने मन से अपनी मां-भाषा को विलग नहीं कर पाए हैं तो कोई तो बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में जाने वाले बच्चे भी खेल-खेल में अगर कोई कविता की पंक्तियां गुनगुनाते हैं तो वह मां-भाषा में ही प्रस्फुटित होती है। राजस्थान के स्कूलों में भले ही पाठ्यपुस्तकों की भाषा राजस्थानी नहीं, मगर शिक्षकों को प्रत्येक विषय पढ़ाने के लिए आज भी मातृभाषा के ठेठ बोलचाल के शब्दों का ही प्रयोग करना पड़ता है। अंग्रेजी के एक शिक्षक ने अपने प्रयोगों के आधार पर पाया कि राजस्थान में अंग्रेजी भाषा का ज्ञान राजस्थानी माध्यम से बड़ी सुगमता और शीघ्रता से दिया जा सकता है। सैद्धांतिक रूप में न सही, हकीकत तो यही है कि राजस्थान में आज व्यावहारिक रूप में हिन्दी विषय का ज्ञान भी राजस्थानी माध्यम से ही करवाना पड़ता है। अपने शिक्षण में मातृभाषा का प्रयोग करने वाले शिक्षक बालकों के हृदय में स्थान बना लेते हैं और उन शिक्षकों से अर्जित ज्ञान बालक के मानस पटल पर स्थाई हो जाता है।
राहुल सांकृत्यायन ने भी इसी बात को लेकर पुरजोर शब्दों में राजस्थानी की वकालत की थी। उन्होंने कहा- 'शिक्षा मातृभाषा के माध्यम से ही होनी चाहिए, यदि इस सिद्धांत को मान लिया जाए तो राजस्थान से निरक्षरता हटने में कितनी देर लगे। राजस्थान की जनता बहुत दिनों तक भेड़ों की तरह नहीं हांकी जा सकेगी। इसलिए सबसे पहली आवश्यकता है राजस्थानी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाया जाए।'
राजस्थान के बालकों को राजस्थानी माध्यम से ही शिक्षा दी जानी चाहिए, तभी वह अधिक कारगर सिद्ध हो सकती है। राजस्थान में बसने वाले अन्य भाषी लोगों पर भी हम इसे थोपे जाने की वकालत नहीं करते। पंजाबी, सिंधी, गुजराती या हिन्दी आदि माध्यमों से शिक्षा ग्रहण करने के इच्छुक बालकों को अपनी मातृभाषा में शिक्षा ग्रहण करने की सुविधा भी मिलनी चाहिए।
लेखक हिन्दी के व्याख्याता और राजस्थानी के साहित्यकार हैं।
email- aapnibhasha@gmail.com
Mobile- 96024-12124
आजादी के पश्चात राजस्थान में शिक्षा के माध्यम के सम्बन्ध में जो गलत निर्णय हुआ उस गलती को सुधारने का अब एक सुनहरा अवसर आया है और राजस्थान की सरकार अगर गांधीजी के विचारों का तनिक भी सम्मान करती है तो प्रदेश में तत्काल मातृभाषा के माध्यम से अनिवार्य शिक्षा का नियम लागू कर देना चाहिए। राजस्थान के शिक्षा-नीति-निर्धारकों को गांधीजी के इन विचारों पर अमल करना चाहिए- 'शिक्षा का माध्यम तो एकदम और हर हालत में बदला जाना चाहिए, और प्रांतीय भाषाओं को उनका वाजिब स्थान मिलना चाहिए। यह जो काबिले-सजा बर्बादी रोज-ब-रोज हो रही है, इसके बजाय तो अस्थाई रूप से अव्यवस्था हो जाना भी मैं पसंद करूंगा।' अपने व्यक्तिगत अनुभव से गांधीजी को यह पक्का विश्वास हो गया था कि शिक्षा जब तक बालक को मातृभाषा के माध्यम से नहीं दी जाती, तब तक बालक की शक्तियों का पूरा विकास करने और उसे अपने समाज के जीवन में पूरी तरह सहयोग देने लायक बनाने का अपना हेतु भलीभांति सिद्ध नहीं कर पाती। भारत कुमारप्पा के संपादन में गांधीजी के विचारों पर आधारित 'शिक्षा का माध्यम' नामक पुस्तिका में उनके शब्द हैं, 'मातृभाषा मनुष्य के विकास के लिए उतनी ही स्वाभाविक है जितना छोटे बच्चे के शरीर के विकास के लिए मां का दूध। बच्चा अपना पहला पाठ अपनी मां से ही सीखता है। इसलिए मैं बच्चों के मानसिक विकास के लिए उन पर मां की भाषा को छोड़कर दूसरी कोई भाषा लादना मातृभूमि के प्रति पाप समझता हूं।' गांधीजी को इस बात का मलाल रहा कि उन्हें प्राथमिक शिक्षा अपनी मातृभाषा गुजराती में नहीं मिली। उन्होंने लिखा कि जितना गणित, रेखागणित, बीजगणित, रसायन शास्त्र और ज्योतिष सीखने में उन्हें चार साल लगे, अंग्रेजी के बजाय गुजराती में पढ़ा होता तो उतना एक ही एक साल में आसानी से सीख लिया होता। यही नहीं गांधीजी ने माना कि गुजराती माध्यम से पढऩे पर उनका गुजराती का शब्दज्ञान समृद्ध हो गया होता और उस ज्ञान का अपने घर में उपयोग किया होता। गांधीजी ने स्पष्ट कहा कि मातृभाषा के अलावा अन्य माध्यम से शिक्षा प्राप्त करने वाले बालक और उसके कुटुम्बियों के बीच एक अगम्य खाई निर्मित हो जाती है। 'हरिजन सेवक' और 'यंग इंडिया' नामक पत्रों में गांधीजी ने इस मुद्दे को लेकर अनेक लेख लिखे। मातृभाषा को उन्होंने जीवनदायिनी कहा और उसके सम्मान के लिए हर-सम्भव प्रयास की आवश्यकता जताई। उन्होंने कहा- 'मेरी मातृभाषा में कितनी ही खामियां क्यों न हो, मैं उससे उसी तरह चिपटा रहूंगा, जिस तरह अपनी मां की छाती से। वही मुझे जीवन प्रदान करने वाला दूध दे सकती है।'
काबिले-गौर बात यह भी है, जिसमें गांधीजी ने लिखा- 'मेरा यह विश्वास है कि राष्ट्र के जो बालक अपनी मातृभाषा के बजाय दूसरी भाषा में शिक्षा प्राप्त करते हैं, वे आत्महत्या ही करते हैं।' अब सवाल यह उठता है कि हम कब तक अपने बालकों को आत्महत्या की ओर धकेलते रहेंगे? 64 बरस से लगातार मातृभाषा के बजाय अन्य माध्यम से शिक्षा ग्रहण करते रहने के बावजूद भी राजस्थान के लोग अपने मन से अपनी मां-भाषा को विलग नहीं कर पाए हैं तो कोई तो बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में जाने वाले बच्चे भी खेल-खेल में अगर कोई कविता की पंक्तियां गुनगुनाते हैं तो वह मां-भाषा में ही प्रस्फुटित होती है। राजस्थान के स्कूलों में भले ही पाठ्यपुस्तकों की भाषा राजस्थानी नहीं, मगर शिक्षकों को प्रत्येक विषय पढ़ाने के लिए आज भी मातृभाषा के ठेठ बोलचाल के शब्दों का ही प्रयोग करना पड़ता है। अंग्रेजी के एक शिक्षक ने अपने प्रयोगों के आधार पर पाया कि राजस्थान में अंग्रेजी भाषा का ज्ञान राजस्थानी माध्यम से बड़ी सुगमता और शीघ्रता से दिया जा सकता है। सैद्धांतिक रूप में न सही, हकीकत तो यही है कि राजस्थान में आज व्यावहारिक रूप में हिन्दी विषय का ज्ञान भी राजस्थानी माध्यम से ही करवाना पड़ता है। अपने शिक्षण में मातृभाषा का प्रयोग करने वाले शिक्षक बालकों के हृदय में स्थान बना लेते हैं और उन शिक्षकों से अर्जित ज्ञान बालक के मानस पटल पर स्थाई हो जाता है।
राहुल सांकृत्यायन ने भी इसी बात को लेकर पुरजोर शब्दों में राजस्थानी की वकालत की थी। उन्होंने कहा- 'शिक्षा मातृभाषा के माध्यम से ही होनी चाहिए, यदि इस सिद्धांत को मान लिया जाए तो राजस्थान से निरक्षरता हटने में कितनी देर लगे। राजस्थान की जनता बहुत दिनों तक भेड़ों की तरह नहीं हांकी जा सकेगी। इसलिए सबसे पहली आवश्यकता है राजस्थानी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाया जाए।'
राजस्थान के बालकों को राजस्थानी माध्यम से ही शिक्षा दी जानी चाहिए, तभी वह अधिक कारगर सिद्ध हो सकती है। राजस्थान में बसने वाले अन्य भाषी लोगों पर भी हम इसे थोपे जाने की वकालत नहीं करते। पंजाबी, सिंधी, गुजराती या हिन्दी आदि माध्यमों से शिक्षा ग्रहण करने के इच्छुक बालकों को अपनी मातृभाषा में शिक्षा ग्रहण करने की सुविधा भी मिलनी चाहिए।
लेखक हिन्दी के व्याख्याता और राजस्थानी के साहित्यकार हैं।
email- aapnibhasha@gmail.com
Mobile- 96024-12124
राजस्थान के माननीय शिक्षा मंत्री जी आपके ज्ञान को शत शत नमन. शिक्षित तो आप होंगें ही तभी शिक्षा मंत्री बने और भाषा के ज्ञान को लेकर इतना सारा व्याख्यान दे डाला. आपको ये भी पता होगा की भाषा किसे कहते हैं? हिंदी हमारी राष्ट्र भाषा है? राष्ट्र भाषा पहचान होती है किसी भी राष्ट्र के नागरिक की. भाषा वही होती है जिसकी अपनी प्रथक लिपि और व्याकरण होती है. गुजराती , मराठी, संस्कृत, मलयालम , तमिल , तेलुगु ये सब भाषाएँ हैं. क्योंकि इन सबमें अपने गुण हैं लेकिन क्या भोजपुरी, बुन्देलखंडी, राजस्थानी इन गुणों से युक्त हैं, ये बोलियाँ हैं? जो की अलग अलग क्षेत्र में बोली जाती हैं. हिंदी हमारा आधार है और ये सब बोलियाँ हिंदी से ही उद्भूत हैं. अगर मैं कहीं गलत होऊं तो इस बारे में अपने प्रबुद्ध साथियों से सहयोग चाहूंगी .
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ReplyDeleteरेखा जी,
ReplyDeleteलगता है ज्ञान तो आपको भी बहूत है. भाषा किसे कहते है? मुझे लगता है आपको पता है. सभी चाहने वाले आपसे भाषा की परिभाषा पूछें तो क्या बतायेंगी. आपने बताया की राजस्थानी एक बोली है. राजस्थानी बोलने वाले दुनिया में चौदह करोड़ से भी ज्यादा तथा राजस्थानी के ढाई लाख से भी ज्यादा ग्रन्थ बिना छपे पड़े है. आप किस दुनिया में रहती हैं. हिंदी है क्या? हिंदी खड़ी बोली है तथा सभी भाषाओँ की उत्पत्ति संस्कृत से हुयी बताते हैं.
"आपको ये भी पता होगा की भाषा किसे कहते हैं? हिंदी हमारी राष्ट्र भाषा है? राष्ट्र भाषा पहचान होती है किसी भी राष्ट्र के नागरिक की. भाषा वही होती है जिसकी अपनी प्रथक लिपि और व्याकरण होती है. गुजराती , मराठी, संस्कृत, मलयालम , तमिल , तेलुगु ये सब भाषाएँ हैं. क्योंकि इन सबमें अपने गुण हैं लेकिन क्या भोजपुरी, बुन्देलखंडी, राजस्थानी इन गुणों से युक्त हैं, ये बोलियाँ हैं? जो की अलग अलग क्षेत्र में बोली जाती हैं. हिंदी हमारा आधार है और ये सब बोलियाँ हिंदी से ही उद्भूत हैं."
आप तो एक बात को प्रकट कर रही हैं-
ढाई आखर प्रेम के, पढ़े सो पंडित होय.
आप इतनी जल्दी पंडित बनने की कोशिश न करें.
ज्ञानी महोदया आप अपना भाषाई ज्ञान बढ़ाएं तो बेहतर होगा.
ज्ञानी महानुभाव को सदर नमन.
Rekha Ji,
ReplyDeleteCheck This Link.
http://en.wikipedia.org/wiki/Rajasthani_language
रेखाजी, तरस आता है आपके ग्यान पर. हिन्दी नाम खड़ी बोली को दिया गया. इसका साहित्य था ही नहीं परंतु बाहर से आये मुसलमानों को दिल्ली और आस पास के लोगो से बातचीत करने के लिये एक भासा की जरुरत थी और उन्होने इसके लिये दिल्ली से मेरठ के बिच में बोली जाने वाली खड़ी बोली को चुना. इसका साहित्यक नाम उर्दु पड़ा और कुछ हलकटों ने हिंदु धर्म के नाम पर भारत की कई भाषाओं और लिपीयो को नष्ट कर उनपर देवनागरी थोपी. उर्दु को देवनागरी मे लिखा जाने लगा और बादमें नये एजेंडा के रुप मे फारसी शब्दों की जगह संस्कृत शब्दों का प्रयोग करने के लिये बाधीत किया.
ReplyDeleteइस नई भाषा का ना तो खुद का साहित्य है ना ही खुद की अपनी लिपी. इस नई हिंदी ने राजस्थानी, अवधी, बृज, भोजपुरी, बुंदेली, मगधी जैसी भाषाओं के अस्तित्व को समाप्त करके उनके साहित्य भंडार पर नाजायज कब्जा किया और उन्हे अपना बताने लगी. राजस्थानी के साहित्य तो 2500 साल पुराने है... परंतु हिंदी के खुद के साहित्य जो हिंदी (अब वाली भाषा) में लिखे हुये 100-150 साल पुराने भी नहीं.
मैं समस्त विद्वानों से क्षमा चाहूंगी, मैंने अपने गलत होने के बारे में इसी लिए सहयोग माँगा था. पंडित तो हो ही नहीं सकती हूँ. मेरा ज्ञान सीमित है.
ReplyDeleteआपने राजस्थानी भाषा को बोली करार दिया, आप पंडित हैं या नहीं हमें इससे कोई मतलब नहीं है. परन्तु आप किसी भाषा को बोली करार देने से पहले उस भाषा के बारे में विस्तृत जानकारी पढ़ लें तो आपके लिए बेहतर रहेगा. हम आशा करते हैं की आगे से आप इस बात का ध्यान रखेंगी.
ReplyDeleteपंडित तो कथतो भलो, चतर भलो सुजाण.
आप लोग मुझे अल्पज्ञानी समझे या कुछ और लेकिन मैं अपना पक्ष रखते हुए कहना चाहता हूँ की शिक्षा की राज्य स्तरों की भाषा की मान्यता समाप्त होनी चाहिए क्यों की जब छात्रों को सम्पूर्ण देश के सामने अपना लोहा मनवाना है तो भाषा का स्तर बार बार नहीं बदलना चहिये..
ReplyDeleteइसलिए बेहतर हो की शिक्षा का माध्यम हिंदी और अंग्रेजी के सिवा कुछ और नहीं होना चहिये..... बोल चाल तक ही अन्य भाषाओँ को बरीयता दी जानी चाहिए.....
संजय सेन सागर
वह संजय जी आपने खूब जवाब दिया. क्या पहले दर्जा माँ को नहीं देना चाहिए? क्या आपने पहले अपनी माँ को दर्जा नहीं दिया था? लगता तो ऐसे ही है, क्यूंकि आपने कभी अपनी माँ का ही सम्मान नहीं किया तो आप दुसरे की माँ का सम्मान कैसे करेंगे. आप लोगों ने अपनी भाषा की मान्यता तो ले ली परन्तु, क्या आपने१४ करोड़ राजस्थानियों की पीड को समझा है?
ReplyDeleteमित्रों, नमस्कार। हर व्यक्ति को विचार प्रकट करने का अधिकार है, मगर बात बेतुकी मतलब तर्कहीन न हो इसलिए उस मुद्दे की जानकारी भी कर लेनी चाहिए। लगता है आपने लेख में व्यक्त विचारों को गम्भीरता से समझने का प्रयास ही नहीं किया। मैं पुन: निवेदन करना चाहता हूं कि शिक्षा का माध्यम वही उपयुक्त होता है, जिस से बालक ज्ञान को सुगमता से अर्जित कर सके। शिक्षा का उद्देश्य बच्चे का ज्ञानवर्धन करना होता है और ज्ञान का वर्धन मातृभाषा के माध्यम से ही अधिक कारगर तरीके से किया जा सकता है। विदेशी भाषा का ज्ञान भी तो देशी भाषा के माध्यम से अर्जित किया जाता है। मैं हिन्दी का व्याख्याता हूं और हिन्दी का विरोधी होता तो ज्ञानार्जन कर व्याख्याता नहीं बन पाता। मगर मैं अपनी मातृभाषा का समर्थक भी हूं। मेरी मातृभाषा ने हमेशा मुझे अन्य भाषाओं का ज्ञान अर्जित करने हेतु प्रेरित ही किया है। कभी बाधक नहीं बनी अन्य भाषाओं के ज्ञानार्जन में। देश-दुनिया के सामने प्रस्तुत होने के लिए हिन्दी-अंग्रेजी भाषाओं का ज्ञान जरूरी है तो यह ज्ञान भी मातृभाषा के माध्यम से शीघ्रता से किया जा सकता है।
ReplyDeleteराजस्थान के बच्चे को स्कूल किसी 'थाणे' से कम नहीं लगते और शिक्षक किसी थाणेदार से। कारण वहां भाषा का अपनापन नहीं मिलता। घर में जो बोलता-समझता है, वह स्कूल में नहीं मिलता। इसलिए समझदार शिक्षक किताबों की भाषा को बालक की भाषा में अनुवाद कर पेश करते हैं और बालकों के दिलों में स्थान बना लेते हैं। ऊपर के लेख में गांधीजी के विचारों को पढ़ें। गांधीजी ने अंधेरे में तीर नहीं मारे आपकी तरह से। उनका खुद के अनुभवों का सार है यह। रहा सवाल राजस्थानी का, तो अमेरिका की लायब्रेरी ऑफ कांग्रेस का सर्वे पढि़ए। दुनिया की तेरह समृद्धतम भाषाओं में शामिल है यह। मां, मातृभाषा और मातृभूमि का दर्जा स्वर्ग से बढ़कर होता है और कोई भी इंसान मां का अपमान सहन नहीं कर सकता। बस यही निवेदन है।
राजस्थानी
ReplyDeleteजी मैं तो अपनी माँ को सम्मान देना ही सर्वोपरि समझता हूँ इसलिए तो यही बहस की बात है,मेरी माँ तो हिंदी है और मैं उसके सम्मान की बात कर रहा हूँ, हिन्दुस्तान में रहने वाला हर शख्स पहले हिंदी है उसके बाद कुछ और....
मुझे नहीं पाता ही हिंदी आपकी माता है या राजस्थानी...पर जहा तक मेरा सवाल है तो हिंदी ही मेरी भाषा है और बही मेरी माता....
मेरे ख्याल से अगर आप की मानसिकता राज्यस्तर के प्रेम से खुश हो जाती है तब तो आप मराठी बाद के भी समर्थक होंगे...??
संजय सेन सागर
पहले हम अपनी माँ भाषा राजस्थानी की बात करते है फिर हिंदी या अन्य भाषाओ की. परन्तु हम किसी भी भाषा के विरोधी नहीं है. दर्द तो इस बात का है आज तक हमें अपनी माँ भाषा में बोलने का अधिकार इस निक्कमी सरकार ने छीने रखा और हमें वंचित रखा. दूसरी भाषाएँ हमारे लिए उतनी ही महत्वपूरण है जितनी राजस्थानी. परन्तु पहले राजस्थान में राजस्थानी को तवज्जो देनी भी जरुरी है, उसके बाद अन्य भाषाएँ. हमें दूसरी भाषाओँ से कोई चिढ नहीं है. हिंदी, पंजाबी, सिन्धी, भोजपुरी आदि भी हमारी ही माँ की बहन है. इसलिए ये हमारी मौसी है.
ReplyDeleteप्रिय भाई संजय सेन सागर, नाम सागर है तो सागर-सा विशाल हृदय रखो मेरे भाई! आपको आपकी मां ने हिन्दी में लोरियां सुनाई होंगी। बचपन में रसभरी, प्यारभरी बातें इसी भाषा में बताई होंगी। समस्त संस्कारों के लोकगीत भी हिन्दी में गाए गए होंगे। धन्य है वो मां और उसके पूत, जिसका आप सम्मान करते हैं। हिन्दी मेरी मातृभाषा नहीं, मगर मैं भी इसका सम्मान करता हूं। इसी भाषा का व्याख्याता हूं राजस्थान शिक्षा विभाग में। इसी भाषा में पी.एचडी कर ली, मगर इसका मतलब यह तो नहीं कि मैं अपनी मां-भाषा को भूल जाऊं। हम कहां हिन्दी की खिलाफत करते हैं। हम तो उसको बहुत इज्जत देते हैं और वह भी इसलिए कि हमारी मातृभाषा राजस्थानी ने हमें ऐसे संस्कार दिए हैं कि सबकी मांओं का सम्मान करो। अब अगर आपकी मां हिन्दी ने आपको हमारी मां का सम्मान करने का संस्कार नहीं दिया तो इसमें गलती या तो आपकी मां की है या आपकी समझ की। हिन्दी के सब विद्वान तो राजस्थानी के पक्षधर हैं, फिर आपको यह न्यारी घूंटी किसने पिला दी? मुद्दे को समझो और तर्कसंगत बात करो तो मजा आएगा। क्यों अंधेरे में तीर मार-मार कर उपहास का पात्र बनते जा रहे हो? स्वस्थ बहस का मंच है यार, तैयारी के साथ आओ, मजा आएगा। बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी। जय राजस्थानी! इसका मतलब हिन्दी मुरदाबाद नहीं मेरे भाई! गलत समझ गए ना आप। अपनी मां की जय बोलने वाला कभी किसी दूसरे की मां की अवहेलना नहीं करता। इसलिए सबकी मां-भाषाएं जिंदाबाद। भाषाएं जोड़ती हैं, तोड़ती नहीं। हम राजस्थान में राजस्थानी लागू करने की बात करते हैं। यार, तुम ही बताओ, राजस्थान में राजस्थानी नहीं होगी तो क्या पंजाब में होगी? राजस्थान में 1195 ऐसे स्कूल हैं जिनमें उर्दू, पंजाबी, मलयालम, गुजराती, सिंधी आदि भाषाओं के माध्यम से शिक्षा दी जाती है और राजस्थानी माध्यम का एक भी स्कूल नहीं। राजस्थान में मलयालम, तमिल, गुजराती, मराठी, पंजाबी, संस्कृत, सिंधी और उर्दू आदि तृतीय भाषा के रूप में पढ़ाई जाती है, मगर राजस्थानी तीसरी तो क्या, चौथी-पांचवीं भाषा भी नहीं, जबकि राजस्थानी राजस्थान की प्रमुख भाषा है। राजस्थान की विधानसभा में राजस्थान का विधायक 22 भाषाओं में भाषण दे सकता है, मगर अपनी मातृभाषा में शपथ लेने का भी उसे अधिकार नहीं! जबकि यह दुनिया की बहुत समृद्ध और विशाल समुदाय की मातृभाषा है। समझो मेरे भाई!
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