बनारस से हाइवे हिंदुस्तान की यात्रा शुरु किए अब दस दिन गुज़र गए हैं.
इस सफ़र में भारत के कई पहलुओं और रंगों को देखा और समझने की कोशिश की है. लेकिन एक सवाल बार-बार मन में उठता रहा कि सड़कें तो विकास का प्रतीक हैं लेकिन क्या उस पर चलने वाले लोग भी विकास की अलग-अलग कहानी बयान नहीं करते?
पूरे रास्ते जहाँ मैं सड़क के दोनों ओर की ख़ूबसूरती निहार रही थी, वहीं मन में यह सवाल रह रहकर उठ रहा था कि इन सड़कों पर लड़कियाँ और महिलाएँ क्यों नहीं दिखाई दे रही हैं? एनएच-2 पर वाराणसी से कोलकाता तक के लंबे सफ़र में मुझे ज़्यादातर पुरुष ही नज़र आए - अपनी रोज़ी रोटी जुटाने में लगे हुए, चौराहों पर अड्डेबाज़ी करते हुए या फिर ताश खेलते हुए.
जो गिनी चुनी महिलाएँ नज़र आईं वो सर पर घूंघट लिए हुए, पानी के मटके सर पर उठाए या फिर घर की छतों पर काम करती हुई. झरिया पहुँची तो महिलाएँ कोयले की खान से कोयला सर पर ढोती नज़र आईं. उनका पल्लू सर से हट नहीं रहा था. लेकिन वे नंगे पाँव चली जा रही थीं. तपती गर्मी में.
लोग बताते हैं कि जब फ़सल के दिन होते है तो खेतों में महिलाएँ दिखाई देती हैं. धान बुआई से लेकर कटाई तक उनकी भूमिका अहम होती है.
लेकिन आश्चर्य था कि रोज़मर्रा की ज़िंदगी में उनकी कोई भूमिका नज़र नहीं आ रही थी. वे बाज़ार में ख़रीददारी करती नहीं दिख रहीं थीं. टैक्सियों में जो कुछ महिलाएँ नज़र आईं उनके साथ उनके कोई न कोई पुरुष था. चाहे भाई रहा हो या फिर पति या कोई और, मानों अकेले उनका कोई अस्तित्व ही न हो या उनका अस्तित्व सुरक्षित न हो.
लेकिन उसी बिहार और झारखंड से गुज़रते हुए हम अपनी कार में भोजपुरी गानों का मज़ा लेते चल रहे थे. 'जिला टॉप लगेली', 'भोजपुरी चोलिया हिट्स' और 'हाई भोल्टेज' भोजपुरी गीतों में औरतों का एक अलग ही स्वरुप मेरे सामने आया, वहाँ जो औरत है वह अपने अस्तित्व को लेकर जागरुक दिखती है. अपने सौंदर्य और रिझाने की अपनी क्षमता से पूरी तरह वाकिफ़. अपनी सेक्सुअलिटी के प्रति सचेत. अपने अधिकार के लिए झगड़ने को तैयार.
यदि लोकगीत समाज का आईना हैं तो भोजपुर के इलाक़े की ये महिलाएँ कहाँ हैं? क्या उन्हें सिर्फ़ गीतों में समेट कर रख दिया गया है? क्या उनके पास पुरुषों के मनोरंजन और सेवा का ही काम रह गया है? जहाँ ज़रुरत हो वहाँ वह कमाई में हाथ तो बँटाती दिखती है लेकिन उसका घूँघट सर से नहीं हटता. तो वह बोल्ड औरत कहाँ है जिनका चित्रण गीतों में है?
इन सवालों के बीच मुझे एनएच-1 और 1A की अपनी यात्राएँ याद आती हैं. उन रास्तों पर पड़ने वाले शहर याद आते हैं.
दिल्ली से चंडीगढ़, दिल्ली से अमृतसर या फिर दिल्ली से श्रीनगर. वहाँ औरतों की भूमिका अलग नज़र आती है. समाज में उनकी गतिविधियाँ एकदम भिन्न दिखती है. चंडीगढ़ में तो लगता है मानों वहाँ अगर महिलाएँ न हों तो शहर ठप्प पड़ जाएगा. कितनी महिलाएँ सड़क पर कार और स्कूटर पर नज़र आती हैं. अकेले बाज़ार हाट करतीं.
कहने को कहा जा सकता है कि चंडीगढ़ शहर है लेकिन शहर तो वाराणसी भी है.
इन दोनों इलाक़ों को देखकर लगता है कि क्या सिर्फ़ सड़कें विकास लाएँगीं, महिलाओं को बराबरी और आज़ादी का समाज के विकास में कोई योगदान नहीं?
जिन प्रदेशों में महिलाओं को उनके अधिकार मिले हुए हैं, आधे-अधूरे ही सही, वहाँ का आर्थिक विकास कुछ संकेत तो देता ही है. चाहे वह गुजरात हो या फिर केरल.
हो सकता है कि पूरे बिहार और पूरे झारखंड में महिलाओं कि स्थिति ऐसी न हो और कुछ जगह परिस्थितियाँ बदल चुकी हो लेकिन जो तस्वीर मैंने देखी वह सड़के से गुज़रते हुए दिखी.
वैसे बिहार से गुज़रते हुए अपवाद जैसे जो कुछ दृश्य दिखे, उसने मेरी निराशा को कुछ कम किया.
जगह-जगह लड़कियाँ स्कूल यूनीफ़ॉर्म पहने साइकिल चलाकर स्कूल जाती हुई दिखीं. किसी ने बताया कि सरकार की ओर से लड़कियों को साइकिलें दी गई हैं. मन में तसल्ली हुई कि यह पीढ़ी न सही, अगली पीढ़ी तो ज़रुर घर की दहलीज़ से बाहर निकलेगी. चूल्हे-चौके और पति-बच्चों की देखभाल के अलावा भी उसके पास करने को कुछ होगा.
सबसे बड़ी बात यह कि वह आत्मनिर्भर होगी.
उम्मीद है कि उस बदले हुए परिदृश्य को देखने के लिए मैं इस मार्ग से एक बार फिर गुज़रुँगी
It is an apricable effort to see our social and politicle fenomina. It need now to be such young and practicle observer how alwyas ready to look deeply that are changing. we must accumlate for this revolution
ReplyDeleteसुन्दर्व सार्थक चित्रण व विश्लेषण, और आशा.
ReplyDeletesundar ...bahut hi accha aur sahi vishleshan kiya hai
ReplyDelete----- eksacchai { AAWAZ }
http://eksacchai.blogspot.com