सरकार ने परमाणु हर्जाना विधेयक लोकसभा में पेश नहीं किया, यह अच्छा किया। पेश न करने का कारण यह भी हो सकता है कि 35 कांग्रेस सांसद अनुपस्थित थे और सारे विरोधी दल एकजुट थे। वह पेश होता तो शायद गिर जाता। कारण जो भी हो, इस विधेयक का अटक जाना भारत के हित में है। यह ठीक है कि प्रधानमंत्री अगले माह जब अमेरिका जाएंगे तो यह विधेयक उनके हाथ में नहीं होगा, लेकिन क्या कीचड़ में सने हाथों के साथ जाने से यह कहीं अच्छा नहीं कि वे खाली हाथ ही जाएं?
जाहिर है कि इस विधेयक को कानून बनने में जितनी देर लगेगी, भारत-अमेरिकी परमाणु सहयोग में उतनी ही देर होती चली जाएगी, क्योंकि अमेरिकी सरकार का आग्रह है कि भारत पहले परमाणु दुर्घटना की स्थिति में हर्जाने के सवाल को सुलझाए। अमेरिका किसी भी हालत में कोई भी हर्जाना नहीं भरना चाहता। सच्चई तो यह है कि भारत में इस तरह का कोई कानून पहले से बना हुआ ही नहीं है।
लगभग 50 साल पहले जब परमाणु ऊर्जा संबंधी कानून बना तो उस समय यह कल्पना ही नहीं रही होगी कि कभी भयंकर परमाणु दुर्घटना हो सकती है। इस तरह की दुर्घटनाओं के बारे में दुनिया की नींद तब टूटी, जब 1979 में अमेरिका के थ्रीमाइल आइलैंड में परमाणु रिसाव हो गया और 1986 में रूस के चेर्नोबिल में हजारों लोग मारे गए और लाखों लोग परमाणु विकिरण के शिकार हुए। अमेरिका को यह डर है कि भारत स्थित उसके परमाणु संयंत्रों में कहीं कोई दुर्घटना हो गई तो सारी बला कहीं उसके सिर न आ जाए।
थ्रीमाइल और चेर्नोबिल के संयंत्र तो अमेरिका और रूस के अपने थे। उन्होंने हर्जाने का मामला अपने नागरिकों से जैसे-तैसे निपटा लिया, लेकिन इसी तरह की दुर्घटनाएं यदि परदेस में हो जाएं तो क्या होगा? अनाप-शनाप हर्जाने का भुगतान करते-करते वे दिवालिया भी हो सकते हैं। भारत सरकार ने हर्जाने का जो विधेयक तैयार किया है, उसमें अमेरिका क्या, प्रत्येक परमाणु सप्लायर राष्ट्र या संगठन को इस जिम्मेदारी से लगभग मुक्त कर दिया गया है। इसीलिए विरोधी दल कह रहे हैं कि यह विधेयक राष्ट्रविरोधी है और अमेरिका के इशारे पर उसी के फायदे के लिए बनाया गया है।
इस कथन से सहमत होना कठिन है, क्योंकि लगभग इसी तरह के कानून अन्य 28 देशों में भी लागू हैं। जिन देशों ने हर्जाने के सवाल पर विएना की परमाणु एजेंसी या पेरिस कन्वेंशन के साथ समझौते कर रखे हैं, उन्होंने भी हर्जाने की सारी जिम्मेदारी खुद पर ले रखी है। दुर्घटना की जिम्मेदारी उस राष्ट्र या संस्था की नहीं होगी, जिसने परमाणु संयंत्र यर्ा ईधन या पुर्जे या तकनीक सप्लाय की है। इस दृष्टि से भारतीय परमाणु हर्जाना विधेयक वैसा ही है, जैसे कि दूसरे देशों के हैं, लेकिन बुनियादी सवाल यह है कि हर्जाने के ऐसे एकतरफा प्रावधान क्यों रखे गए हैं और उन्हें सबने स्वीकार क्यों कर लिया है?
उत्तर स्पष्ट है। परमाणु सप्लायर राष्ट्र दुनिया के सबसे ताकतवर राष्ट्र हैं और परमाणु ऊर्जा पाने वाले राष्ट्र कमजोर और गर्जमंद राष्ट्र हैं। इसीलिए दाता राष्ट्रों ने पाता राष्ट्रों पर अपनी शर्ते थोप दीं। भारत की क्या मजबूरी है कि वह भी इसी भेड़चाल पर चलता चला जाए? भारत की परमाणु खरीदी से पश्चिम के आर्थिक संकट में फंसे राष्ट्रों को अरबों-खरबों की आमदनी होने वाली है। ऐसी स्थिति में भारत नई लकीर क्यों नहीं खींचता? भारत अपनी नई शर्ते क्यों नहीं पेश करता?
भारत यह मांग क्यों नहीं करता कि यदि किसी विदेशी परमाणु संयंत्र में बनावट, संचालन या पुर्जो का दोष पाया गया और उसके कारण कोई दुर्घटना हो गई तो सप्लायर राष्ट्र को सारा हर्जाना देना होगा? वर्तमान विधेयक में हर तरह की दुर्घटना का जिम्मा प्राप्तकर्ता राष्ट्र पर डाला गया है अर्थात कार में कोई भी खराबी हो तो खरीदार जिम्मेदार है। कार बनाने वाली कंपनी का उससे कोई लेना-देना नहीं है। क्या इस तरह की शर्त पर कोई भी कार खरीदेगा? जब सामान्य खरीद-फरोख्त में ऐसी एकतरफा शर्ते नहीं चलतीं तो परमाणु लेन-देन में कैसे चल सकती हैं?
यदि भारत सरकार इस तरह की शर्त स्वीकार करेगी तो इसका सबसे बड़ा नुकसान भारत के आम आदमी को होगा। जब सारा हर्जाना भारत को ही भुगतना है यानी उन विदेशी परमाणु संयंत्रों को चलाने वाली भारतीय संस्थाओं और भारत सरकार को ही भुगतना है तो हर्जाने की राशि कम, बहुत कम ही होगी। वर्तमान विधेयक के अनुसार वह 500 करोड़ रुपए की होगी। यह हर्जाना वह संस्था भरेगी, जो परमाणु संयंत्र चला रही है।
यदि यह कम पड़ा तो भारत सरकार भरपाई करेगी। वह राशि 300 करोड़ एसडीआर यानी लगभग 2300 करोड़ रुपए होगी। यदि भारत एक अंतरराष्ट्रीय समझौता कर ले तो उसे इतनी ही राशि अंतरराष्ट्रीय हर्जाना कोश से भी मिल सकती है। लगभग पांच हजार करोड़ की यह राशि देखने में काफी मोटी मालूम पड़ती है, लेकिन अगर इसे पांच लाख या पचास लाख से भाग कर दें तो यह कितनी रह जाएगी?
जब कोई परमाणु दुर्घटना होती है तो उससे सिर्फ हजार-पांच सौ लोग प्रभावित नहीं होते, हजारों तो मर जाते हैं और लाखों लोग प्रभावित होते हैं तथा वह कुप्रभाव कई पीढ़ियों तक बना रहता है। जिस पैमाने पर भारत सरकार परमाणु ऊर्जा पैदा करना चाहती है, उसके संयंत्र तो विशालकाय होंगे। यदि उनमें दुर्घटना हो गई तो लाखों दुर्घटनाग्रस्त लोगों को कितना मुआवजा मिलेगा? मुश्किल से कुछ हजार रुपए। ये भी कोई हर्जाना है?
क्या आदमी की जान की कीमत सिर्फ 10 हजार रुपए है? क्या भोपाल गैस कांड से हम कुछ नहीं सीखेंगे? मरने वालों, जीवन भर विकलांग रहने वालों और उनकी विकलांग संतानों के लिए कुछ हजार तो क्या, कुछ लाख का मुआवजा भी काफी नहीं होगा। भारत में जो कुल हर्जाना है (यानी आधा बिलियन डॉलर) उसके मुकाबले में अमेरिकी हर्जाना (10 बिलियन डॉलर) बीस गुना है।
भारतीय नागरिकों को उचित हर्जाना मिले, इसके लिए यह जरूरी है कि परमाणु सप्लायर की जिम्मेदारी भी तय की जाए। यही नहीं, हर्जाने के दावे की 10 साल की मियाद भी हटाई जाए, क्योंकि परमाणु विकिरण के प्रभाव कई बार दशकों बाद पता चलते हैं, जैसा कि हिरोशिमा और नागासाकी में हुआ है। ठीक है कि दुर्घटनाग्रस्त लोगों को हर्जाने के लिए अदालत की शरण नहीं लेनी पड़ेगी और न ही जांच का इंतजार करना होगा, लेकिन उनको इसका एक नुकसान यह भी है कि वे उचित हर्जाने की मांग किससे करेंगे? क्या यह भारतीय नागरिक के मूलभूत अधिकार का उल्लंघन नहीं है?
इस समय परमाणु विक्रेता राष्ट्रों की गरज इतनी जबर्दस्त है कि भारत चाहे तो वे उसकी सभी वाजिब शर्ते मान सकते हैं। इस मामले में भारत को रूस और फ्रांस का सक्रिय सहयोग भी मिल सकता है। क्या ही अच्छा हो कि हर्जाने का समझौता अमेरिका के साथ करने के पहले भारत, फ्रांस और रूस के साथ कर ले। परमाणु हर्जाने के विधेयक को पास होने में अब जितना समय लगेगा, उसका सदुपयोग भारत इस ढंग से कर सकता है।
लेखक प्रसिद्ध राजनीतिक चिंतक हैं।
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--- संजय सेन सागर