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अदना पाकिस्तान और विशाल भारत


पाकिस्तान की भारत नीति केवल एक आधारभूत सिद्धांत पर आधारित है और वह यह कि पाकिस्तान हमेशा सही है। इसका स्वाभाविक रूप से यही मतलब निकलता है कि भारत हमेशा गलत है और वह अपने बड़े आकार के कारण बच निकलता है। जबकि सचाई तो ये है कि आकार और ताकत का आपसी रिश्ता बेमतलब है। ब्रिटेन भारतीय उपमहाद्वीप की किसी भी मंझोले आकार की रियासत से छोटा था, लेकिन उसने आधी दुनिया पर हुकूमत की।



गिले-शिकवों का अहाता बड़ा होता है और उसमें बेतुकी बातों को भी जगह मिल जाती है। आगे पढ़ें पाकिस्तानी तर्क के अनुसार सीमापार का आतंकवाद भी भारत का दोष है, क्योंकि उसकी जड़ में भारत में कश्मीरी मुस्लिमों के साथ किया गया अन्याय है। ऐसे में इतिहास एक शोकगाथा बन जाता है और यदि तथ्य इससे मेल नहीं खाते तो उन्हें बदल भी दिया जाता है। तब इस तथ्य पर भी ध्यान नहीं दिया जाता है कि यह पाकिस्तान ही था, जिसने विभाजन के छह महीनों बाद कश्मीर के मुद्दे पर लड़ाई शुरू की। जबकि सचाई तो यह है कि यदि 1947 में पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित कोई भी हस्तक्षेप नहीं होता तो 1948 तक बातचीत के जरिए कश्मीर का मसला संभवत: थोड़े विभाजन के साथ सुलझा लिया जाता।


इस्लामाबाद द्वारा लिखे जाने वाले इतिहास के दो शुरुआती नुक्ते हैं : 1947 में कश्मीर और 1971 में बांग्लादेश। पहला सीमापार के आतंकवाद को बरी करता है तो दूसरे का इस्तेमाल इस्लामाबाद की उस ‘रणनीतिक गहराई’ की जरूरत समझाने के लिए किया जाता है, जिसका अर्थ है भारतीय हस्तक्षेप के बिना काबुल पर पाकिस्तान का नियंत्रण। तो लीजिए, पाकिस्तान की सैन्य पराजय और बांग्लादेश का निर्माण भी भारत की ही भूल है। आम चुनावों में शेख मुजीबुर्रहमान की शानदार जीत से लेकर पूर्वी पाकिस्तान में बंगालियों के जनसंहार और फिर भारत में लाखों रिफ्यूजियों के आगमन तक के घटनाक्रमों को अवाम की याददाश्त से मिटा दिया जाता है।



किसी भी देश की विदेश नीति के लिए लचीला होना जरूरी है और इसीलिए वह किसी निर्धारित पैटर्न पर आधारित नहीं हो सकती। दुनिया की शक्तियां और महाशक्तियां भारत-पाक संबंधों पर तटस्थ नहीं रह सकतीं। केवल इसीलिए नहीं कि दोनों मुल्कों के पास एटमी हथियार हैं, बल्कि इसलिए भी कि वे आगामी दशक के एक महत्वपूर्ण युद्ध क्षेत्र में स्थित हैं। भारत और पाकिस्तान के बीच शांति देखकर अमेरिका और ब्रिटेन अगर खुश होंगे तो इसलिए नहीं कि यह अपने आपमें एक अच्छी बात होगी, बल्कि इसलिए भी कि यह उनके ही हित में होगा कि वे पाकिस्तान के भारत से टकराव को रोकें ताकि वह अफगानिस्तान-पाकिस्तान क्षेत्र में उनके शत्रुओं पर ध्यान केंद्रित कर सके।



पाकिस्तान की जरूरत उन्हें महसूस होती है, यह किसी केंद्रीय समस्या को लेकर उनके ऐतिहासिक दोहरेपन की ही अगली कड़ी है, जिसकी शर्तो पर अमन का इंतजाम किया जा सकता है। भारत को मुश्किल में देखना उन्हें अच्छा ही लगेगा, हालांकि कागज पर भारत पाकिस्तान की तुलना में आतंकवाद की एंग्लो-अमरीकी परिभाषा के अधिक करीब है। इसीलिए वॉशिंगटन और लंदन को हर निर्णय पर तात्कालिक जरूरतों, मध्यमार्गी विकल्पों और दूर के फायदों को ध्यान में रखते हुए बात करनी है, चाहे वह रणनीतिक ढांचे पर हो या फिर हेडली जैसे किसी एक मुद्दे पर। ऐसे में विरोधाभास तो होना ही है।



सोवियत संघ के ध्वंस के बाद रूस अपनी सीमाओं से वाकिफ है। इसके बावजूद वो ईरान, मध्य एशिया और अफगानिस्तान में भरसक दिलचस्पी बनाए हुए है। वो चाहेगा कि आतंकवाद के साथ ही दक्षिण, मध्य और पश्चिमी एशिया में उसकी राष्ट्रीय प्राथमिकताओं पर रूस और भारत के साझे लक्ष्य हों। इन दोनों शक्तियों के बीच सैन्य समीकरण की बहाली साझा लक्ष्यों का सबूत है। जो चीजें भारत को सोवियत संघ के करीब लाई थीं, वे पुन: भारत-रूस संबंधों के निर्माण में भूमिका निभा रही हैं।



वहीं चीन ऐसी क्षेत्रीय ताकत है, जिसकी भारत-पाक शांतिवार्ता में कोई दिलचस्पी नहीं। और जब तक चीन पाकिस्तान का संरक्षक बना रहेगा, तब तक कोई समझौता संभव नहीं। पाकिस्तान की शोकाकुल आत्मछवि चीन को फबती है। उसके अपने पक्ष में होने से पाकिस्तान मनोवैज्ञानिक रूप से भारत के ‘बड़े’ होने की उपेक्षा कर सकता है।



उत्तरी भारत, ईरान और मध्य एशिया से अधिक विस्फोटक हालात फिलवक्त कहीं नहीं। पश्चिमी एशिया में भी खतरनाक स्थितियां हैं, लेकिन वहां केवल इजरायल के ही पास एटमी हथियार हैं। काबू से बाहर हालात के खतरों के चलते ही भारत-पाकिस्तान के बीच किसी तरह के समझौते की सूरत बनती है। फिलहाल तो भरोसे की कमी और राष्ट्रीय हितों की प्रतिस्पर्धाओं के चलते उनके संबंध ठंडे ही बने हुए हैं।



लेखक ‘द संडे गार्जियन’ के संपादक हैं।

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