उसके बेटे बाबू ने उसे घर के पीछे गौशाला में मरा हुआ पाया। कुसारा मल्लागौड़ ने पिछली रात कीटनाशक दवा पी ली थी और अपने आखिरी क्षणों में नि:शब्द छप्पर के नीचे पड़ा रहा, जहां कोई उसकी आवाज नहीं सुन सका। जिंदगी की अंतिम घड़ियों में वह बिल्कुल अकेला पीड़ा से कराह रहा था।
यह बिल्कुल तय था कि जैसे उसने जिंदगी जी थी, ठीक वैसे ही अकेले मरना चाहता था। वह हमेशा अपनी यंत्रणाओं को अकेले सहते हुए परिवार के लिए रक्षा कवच बना रहा, लेकिन अंतत: उसने उन सबको अकेला छोड़ दिया। उस दुख के सामने उसने घुटने टेक दिए, जो हाल के वर्षो में हिंदुस्तान के गांवों में महामारी जैसा फैल रहा है। ऐसा भयानक अवसाद, जो 22,000 किसानों की जिंदगियां लील चुका है और खत्म होने का नाम नहीं ले रहा।
बाबू की उम्र मुश्किल से 19 बरस थी। अचानक उसने खुद को परिवार में सबसे बड़ा पाया। उसकी दादी और बुआ दहाड़ें मारकर रो रही थीं, लेकिन उसने हिम्मत से आंसुओं को रोके रखा। ‘अगर उसने हमें बताया होता तो हम उसका कर्ज चुकाने के लिए घर का एक-एक सामान बेच देते,’ कुसारा की बहन बिलख रही थी। आसपास इकट्ठा हुए गांव के लोगों ने कहा, ‘जब दूसरे हिम्मत हार जाते तो वही उन्हें ढाढ़स बंधाता था। हमने सपने में भी नहीं सोचा था कि वह एक दिन ऐसे हमें छोड़कर चला जाएगा।’
वो सिर्फ अपने बेटे बाबू से कभी-कभार अपने दुख साझा करता था। पिता को धीरे-धीरे अपनी ही खामोशियों में कैद होता देख बाबू ने पढ़ाई छोड़ उनका हाथ बंटाने का निश्चय किया। अपनी मृत्यु के एक महीने पहले कुसारा ने बेटे को अपने भयावह कर्ज के बारे में बताया था। कोई उम्मीद न थी। तीन लाख रुपए। वह रहस्यमय ढंग से साहूकार से छिपने लगा था और ऐसा करते भयानक शर्म में गड़ जाता था। लेकिन आखिर कब तक वह उससे किनारा कर सकता था? बाबू ने कहा कि उन्हें अपना घर और ढाई एकड़ जमीन बेच देनी चाहिए। पिता राजी न हुआ। ‘तुम्हारा क्या होगा, तुम्हारे भाई, बहनें और तुम्हारी मां का क्या होगा? हम सड़क पर आ जाएंगे। मैं ऐसा नहीं कर सकता। कतई नहीं कर सकता।’
आंध्रप्रदेश में मेडक जिले के पल्लेपहाड़ गांव में लगातार छह सालों तक पड़े अकाल के बाद अपनी मामूली-सी जमीन में वे कुछ भी पैदा नहीं कर सके। तीन साल पहले कुसारा ने गांव के साहूकार से बोरवेल खुदवाने के लिए कर्ज लिया। जमीन सूखी थी। बदहवासी में उसने और कर्ज लिया। बोरवेल खुदवाने की चार और कोशिशें नाकाम रहीं, क्योंकि पूरे गांव में जमीन के भीतर जल स्तर बहुत नीचे जा चुका था।
हर साल किसानों को बीज, खाद और कीटनाशक खरीदने के लिए कर्ज की भीख मांगनी पड़ती थी। पहले राष्ट्रीयकृत या कोऑपरेटिव बैंक उन्हें कर्ज देते थे, लेकिन अब उन्होंने भी पूरी निर्ममता से अपने दरवाजे बंद कर लिए हैं। निजी साहूकार भले हर महीने तीन से पांच प्रतिशत ब्याज वसूलते हैं, लेकिन कम से कम जरूरत के समय वो होते तो हैं। साहूकार अकसर बीज या ऐसी ही दूसरी चीजें देता है।
ये सामान अकसर नकली या बहुत महंगे भी होते हैं, लेकिन किसानों के पास कोई विकल्प भी नहीं है कि वे खुले बाजार या भरोसेमंद दुकानदारों से ये सामान खरीद सकें। पहले किसान खुद बीज जमा करते थे, लेकिन अब संकर तकनीक वाले बीजों और व्यावसायिक खेती के कारण वे ऐसा नहीं कर पाते।
नई खेती में रासायनिक खाद और कीटनाशकों की जरूरत है। पहले बैलों का गोबर ही मुख्य खाद हुआ करता था। आज मुट्ठी भर लोग ही बैल का खर्च उठा सकते हैं। आज ट्रैैक्टर किराए पर लेकर जुताई करना ज्यादा आसान है, लेकिन उसके लिए भी पैसे चाहिए। वर्ल्ड बैंक के निर्देशों के आगे सिर झुकाते हुए किसानों की खाद, बिजली और पानी की सब्सिडी कम हो गई है, जिससे उनकी लागत में और ज्यादा इजाफा हुआ है।
साल अच्छा हो तो किसान को मुनाफा होता है, लेकिन साल बुरा हो तो क्या? किसान सिर्फ मानसून से ही नहीं हारते। किसान वैश्विक बाजार के तूफानों में ठेल दिए गए हैं। अगर दुनिया के बाजार में कीमतें अचानक धराशायी हो जाएं तो अच्छी से अच्छी फसल किसानों को तबाह कर सकती है।
सिद्धांतत: सरकार अब भी न्यूनतम दाम देने का दावा करती है, लेकिन हकीकत में सिर्फ समृद्ध इलाकों के बड़े किसानों से ही खरीदी करती है। जरूरतमंद छोटे किसान साहूकारों को उनके मनमाने दाम पर अपनी फसल बेचने को मजबूर हैं और वे साहूकार ऊंचे दामों पर वह फसल मंडी या खुले बाजार में बेच देते हैं।
साहूकार को अपनी धन वसूली के लिए क्रूर होने की जरूरत नहीं है। इतना ही काफी है कि भरे चौराहे खड़े होकर कर्जदार को पैसे न चुकाने के लिए शर्मिदा करो। विश्वास और ईमानदारी के पारंपरिक मूल्यों में डूबे, स्वाभिमानी किसान इस शर्मिदगी में तुरंत अपनी जमीन, गहना, पशु, घर सब बेचकर कर्ज चुकाते हैं या फिर इस शर्म से बचने के लिए अपनी जान दे देते हैं।
हाल के वर्षो में आश्चर्यजनक रूप से ग्रामीण और शहरी इलाकों में अधिकांश लोगों ने यह कहा है कि कोई भी चीज हमें इतनी शर्म और तकलीफ से नहीं भरती- न भ्रष्टाचार, न हिंसा, न अपराध- जितनी कि किसानों की आत्महत्या। किसानों की आत्महत्या पर यह गहरा जन आक्रोश था, जिसने पूर्ववर्ती आंध्रप्रदेश सरकार को मुंह के बल गिरा दिया था।
2004 में यूपीए की सरकार बनने के बाद प्रधानमंत्री का पहला काम आत्महत्या करने वाले किसानों के परिवारजनों से निजी रूप से मिलकर संवेदना प्रकट करना और भारतीय किसानों के लिए एक नई योजना बनाना था। और अंतत: किसानों को सिर्फ मामूली कर्ज का ‘राहत पैकेज’ थमा दिया गया, जो सिर्फ आत्महत्या करने पर ही मिल सकता था और पुराने कर्ज माफ कर दिए गए, जिनका कोई नतीजा नहीं निकलना था क्योंकि भविष्य में फिर किसान अपनी जरूरतों के लिए उन्हीं निजी स्रोतों पर निर्भर होने वाले थे। कोई आश्चर्य नहीं कि सरकार बदलने के बाद भी किसानों की आत्महत्या नहीं रुकी।
किसानों को इस पीड़ा से उबारने के लिए उन्हें वैश्विक बाजार की अनिश्चितताओं से सुरक्षा, कृषि संबंधी सामग्रियों पर सब्सिडी, न्यूनतम खर्च और खतरे पर किसानी की तकनीक और छोटे किसानों को सरकारी खरीद की गारंटी देने की जरूरत है, लेकिन ऐसा कुछ भी होता नजर नहीं आ रहा।
कुसारा के घर में तस्वीरों और स्मृतियों के रूप में जिंदगी के अवशेष बिखरे पड़े हैं। लगातार छोटे और हाशिए पर पड़े किसान काम की तलाश में अपने घर छोड़कर जा रहे हैं, लेकिन युवा बाबू नहीं। हर दिन के साथ ब्याज और साहूकार का दबाव बढ़ता जा रहा है। उसे पता नहीं कि ये तीन लाख वो कैसे चुकाएगा, लेकिन इतना तो तय है कि रहेगा वो किसान ही। ‘किसानी ने ही मेरे पिता की जिंदगी को अर्थ दिया, मेरे जीवन को अर्थ भी इसी से मिलेगा।’
लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी रहे हैं।
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आपका बहुत - बहुत शुक्रिया जो आप यहाँ आए और अपनी राय दी,हम आपसे आशा करते है की आप आगे भी अपनी राय से हमे अवगत कराते रहेंगे!!
--- संजय सेन सागर