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संगीत पर सिनेमा, चार साल और चार दिन की रिलीज

इंडियन ओशन पर डाकुमेंट्री फिल्‍म की निर्माण कथा


जयदीप वर्मा


हिंदुस्तान के कितने बैंड हैं, जो ‘भोर’ का सही मतलब भी जानते होंगे? कितने हैं जो पीयूष मिश्रा के गुस्से से भरे (अरे रुक जा रे बंदे) शब्दों को ‘एंथम ऑफ आवर टाइम्स’ बना सकते हैं? क्या किसी को पता भी होगा ‘रेवा’ कहां बहती है? और मज़े की बात – इंडियन ओशन सिर्फ़ इन्हीं वजहों से महान नहीं है। उनका संगीत बहुतों के लिए रॉक होते हुए भी सबसे असली ‘हिंदुस्तानी संगीत’ है। गिटार के साथ (बंगाल की) गाबगुबी, ड्रम-सेट के साथ क्लासिकल आलाप, और एलेक्ट्रिक गिटार पर कबीर, सिर्फ़ फ़्यूज़न नहीं है। ये उन्‍हीं सीमाओं को ध्वस्त करना है, जो कबीर और रेवा ने कभी नहीं मानीं। जो संगीत ने कभी नहीं मानीं। सुस्मित सेन, राहुल राम, अशीम चक्रवर्ती और अमित किलम से मिलकर बना ये बैंड अब अपने जीवन और संगीत पर बनी एक डाक्युमेंट्री फिल्म ‘लीविंग होम’ के ज़रिये सिर्फ एक हफ्ते के लिए ‘बिग सिनेमाज़’ के थिएटरों में आ रहा है (2 अप्रैल 2010 को)। फिल्म के निर्देशक जयदीप वर्मा का ये लेख (3 भागों में, यहां पहला भाग है) इस लंबे, अक्सर थका देने वाले सफर को शब्दों में फिर से चला रहा है : वरुण ग्रोवर

अपनी फिल्म ‘लीविंग होम – इंडियन ओशन का जीवन और संगीत’ को ‘बेचने’ की बहुत सी (विफल) कोशिशों के बाद इस लेख में मैं अपना मूल इरादा छोड़ रहा हूं। यहां मै‌ सिर्फ इस फिल्म के सफर से जुड़ी अपनी कुछ यादें दोबारा टटोलूंगा। अगर उससे आपको ये फिल्म, जो कि 2 अप्रैल 2010 को आ रही है, देखने का भी मन हो उठे तो यह एक अतिरिक्त फायदा होगा।from-mohalllive.com







भाग : 1 / 3






“मुबारक हो! हमारे चैनल ने आपकी फिल्म को कवर करने का फैसला कर लिया है।” एक एफ-एम चैनल का यह वाक्य, जिसके साथ हम ‘लीविंग होम’ की मीडिया पार्टनरशिप करना चाह रहे थे, इस फिल्म के चार साल के सफर को ठंडे शब्दों में सामने रख देता है। हर कदम पर ये सफर मांगी, बिन-मांगी मदद और विलासिता का रहा है – एक ऐसा प्रोजेक्ट जो ‘प्रैक्टिकल’ नहीं है। बहुतों ने इसे ‘जुनून’ का सफर कहा है, पर उनका भी असली मतलब इसे बनाने वालों के अनवरत पागलपन से ही था, खासकर ऐसी फिल्म के ‘बिज़नेस साइड’ को लेकर।






जो गिने-चुने साथ आये (जिनमें से कुछ तो मुफ्त में ही काम कर रहे हैं) या जो अपने दायरे से बड़ा जोखिम उठा रहे हैं (जैसे कि बिग सिनेमाज़, जो फिल्म को देशभर में रिलीज़ कर रहे हैं) उन्हें बस एक ही चीज़ जोड़ती है – इंडियन ओशन के संगीत से उनका प्यार। ये काफी अजीब सी एतिहासिक घटना है – इंडियन ओशन – एक ऐसी संगीत मंडली जो अपने काम में इतनी सुंदर-शाश्वत, इतनी लोक-गंध से सनी, इतनी महत्वपूर्ण शैलियों की संरक्षक, इतनी आधुनिक और समकालीन धुनों वाली होते हुए भी मेन-स्ट्रीम से बहुत दूर है। दुनिया में कोई और देश इतने असंगत सांस्कृतिक मापदंडों वाला नहीं होगा। ये सिर्फ हमारे देश की ही खासियत है कि यहां बायें हाथ को, दायां छोड़‍िए, ये तक नहीं पता होता कि उसकी अपनी उंगलियां क्या कर रही हैं। ये हमारा देश ही है, 63 साल पहले जितना था उससे अधिक बौद्धिक उपनिवेशन का शिकार, जहां ‘सेलिब्रिटी’-नुमा हस्तियों की तुच्छ दिनचर्या-नुमा हरकतों में लोग इतने मगन हैं कि उनकी अपनी आवाज़, उनका अपना संगीत बजाने वाले को यूं ही गुज़र जाने दें।


कहते हैं कि जब हम मरते हैं, तो हमारा पूरा जीवन हमारी आंखों के सामने से फ़िल्म की तरह गुज़रता है। अगर मुझे उस फ़िल्म के सिर्फ ‘सर्वोत्तम क्षण’ देखने की भी अनुमति मिले तो मैं जून 2001 की वो दोपहर दोबारा देख पाऊंगा जब मैं करोलबाग़ (दिल्ली) स्थित इंडियन ओशन के रिहर्सल स्थान पर उनसे पहली बार मिलने गया। अपनी तरफ से मुझे उम्मीदें थीं क्योंकि बैंड के बासिस्ट/वोकलिस्ट राहुल राम से मैं छह महीने से ई-मेल पर बातचीत कर रहा था। उनका एल्बम ‘कंदीसा’ मैंने हाल ही में सुना था और उसके बारे में ‘जेंटलमैन’ (अब बंद हो चुकी) पत्रिका में लिखा भी था। हमारी अच्छी पटी थी और मैं इस अनोखे म्युजिकल स्पेस में काम कर रहे इन चार संगीतकारों से मिलने को उत्सुक था। मैं खुद एक अजीब सी मन:स्थिति में था उन दिनों – अपना नावेल लिख रहा था जिसके लिए खुद आधुनिक और ज़मीनी विचारों के बीच का एक धरातल खोज रहा था। उस सबके बीच में इंडियन ओशन को सुनने से काफी धुआं छंटा था। साथ ही, पिछली रात को ही, परिवार में किसी को कैंसर होने की खबर आयी थी, और मैं काफ़ी थका और उदास महसूस कर रहा था। मैंने सोचा था – एक घंटा बात कर के निकल जाऊंगा। उम्मीद थी, मुलाकात अच्छी पर सादी रहेगी।




करोलबाग़ की शोरज़दा गलियों से गुज़रता हुआ जब मैं उनके बंगले में पहुंचा तो मुझे समय-में-यात्रा जैसा एहसास हुआ। जिस गर्मजोशी से मेरा स्वागत किया गया, और जितनी आसानी से मैं बाहर की दुनिया भूल गया, वो मुझे अब भी समझ नहीं आता। समय बहुत जल्दी बीता – और ऐसा एहसास अगले कुछ सालों में मुझे कई बार होना था। पर उस दिन ऐसा होने की याद आज भी बहुत मुकम्मल है। भले ही घटनाओं के विस्तृत ब्यौरे धुंधला गये हैं। कम से कम दो घंटे तो सिर्फ चाय पीते, किस्से सुनते-सुनाते, हंसते-हंसते कुर्सी से गिरते ही बीत गये। फिर उन्हें रिहर्सल करनी थी तो उन्होंने मुझे भी अंदर अपने छोटे से रिहर्सल रूम में बुला लिया। शुरुआत की ‘डेज़र्ट रेन’ नाम के गीत से। आवाज़ दीवारों से टकरा रही थी, ड्रम कुछ ज्यादा ही ऊंची आवाज़ के थे, पर इसके बावजूद – इस पूरे माहौल की ताकत – अशीम के बेपरवाह उठते सुर, आत्मविश्वास से भरे चार संगीतकार, और उनसे जुड़ कर बने इस नये जीव की एक अपनी स्फूर्ति थी, किस्मत थी। मैंने अपने जीवन में तब तक इससे रोमांचक कुछ नहीं देखा था।






आखिरकार जब मैं निकलने को हुआ, एक के बजाय पांच घंटे रुकने के बाद, तो राहुल मुझे छोड़ने गेट तक आया और उसने कुछ ऐसा कहा, जो उस दिन भी उसके स्वभाव के हिसाब से असामान्य लगा था (और अब जब मैं उसे जानता हूं, तो कह सकता हूं, बहुत असामान्य था…)। उसने सिर थोड़ा सा हिलाया और कहा – शायद ये जीवनभर की दोस्ती की शुरुआत है। ये मुझे याद है, क्योंकि मुझे खुद भी ऐसा ही लग रहा था। कहीं ऐसा लग रहा था कि मुझे ‘अपने लोग’ मिल गये हैं – सूफी आत्माएं जिन्होंने अपने संगीत और प्यार से मुझे कुछ देर के लिए मेरी दुनिया के दुख भुलाने में मदद की। उन्होंने मुझे एहसास दिलाया कि सिर्फ एक जीवन में सच में कितना कुछ करना मुमकिन है, और उसमें से कितना कुछ है, जो मेरे भीतर बस एक इशारे का इंतजार कर रहा है।






पांच साल बाद – जब मैंने उनके संगीत और जीवन पर ये फिल्म बनाने की सोची तो मुझे यही पहला दिन याद आया। मैं जानता था कि इस फिल्म से मेरी यही उम्मीद है कि जिन लोगों ने इंडियन ओशन का संगीत नहीं सुना है या इन किरदारों को नहीं जानते हैं, फिल्म देख कर उन्हें भी वही एहसास हो जो मुझे पहले दिन हुआ था। इस फिल्म से मेरी यही ‘वांछित प्रतिक्रिया’ है।






इसलिए ये फिल्म ज्यादा उनके लिए है, जो इंडियन ओशन को नहीं जानते हैं। पर इतनी छोटी रिलीज़ और नाम-मात्र के पब्लिसिटी बजट के कारण, हमें नये लोगों को थिएटर तक लाने में उन्हीं लोगों की मदद चाहिए होगी जो इंडियन ओशन के पुराने फैन हैं। और इंडियन ओशन के पुराने फैन, या जो उन्हें सिर्फ सरसरी तौर से जानते हैं, (अधिकतर, ‘कंदीसा’ और ‘अरे रुक जा रे बंदे’ से) भी फिल्म में बहुत कुछ नया पाएंगे। इंडियन ओशन को ‘लाइव’ देखना (फिल्म में सभी गीत ‘लाइव’ बजाये गये हैं) और उन चारों की कैमिस्ट्री को स‌ंगीत में बदलते देखना इस फिल्म की सबसे खास बात है। और साथ ही उन चारों के व्यक्तिगत सफ़र, जो बताते हैं कि आज के निरे कामर्शियल दौर में भी ईमानदारी और आत्म-संतुष्टि के बुलबुले में रहकर कितनी शुद्ध कला बनायी जा सकती है।






बहुत से लोग मुझसे पूछते हैं कि मैंने ये फिल्म कैसे बनायी (या ‘हिम्मत कैसे हुई?’)? बहुत सी अच्छी चीजों की तरह, ये भी एक हादसा ही था। मैंने तीन साल (1998-2001) एक संगीत पत्रिका ‘जैंटलमैन’ के लिए लिखा (जिसके दौरान मैं पहली बार इंडियन ओशन से मिला भी) और उसके बाद संगीत पर आधारित बहुत सी विदेशी फिल्में देखीं भी। ‘द लास्ट वाल्ट्ज़’, ‘ब्यूना विस्टा सोशल क्लब’, ‘रैटल एंड रम’, ‘क्रॉसिंग द ब्रिज’ इत्यादि। संगीत के ज़रिये एक भारतीय कहानी कहने की इच्छा तीव्र होने लगी। (एक समय पर मेरे पास एक ‘सात तानें, सात शहर’ नाम का आइडिया भी था – जिसमें सात शहरों के सात चुने हुए महान संगीतकारों पर एक-एक लंबी डाक्युमेंट्री बनाने का विचार था। इसमें इंडियन ओशन (दिल्ली), एआर रहमान (चेन्नई), भीमसेन जोशी (पुणे), भूपेन हजारिका (गुवाहाटी), बिस्मिल्लाह खां (बनारस) को भी होना था। पर इस एक फिल्म को बनाने में इतनी मशक्कत लगी कि मैं जानता हूं, ये पूरा करना अब मेरे बस का नहीं।)






जब मैं 2006 में दिल्ली गया, और इंडियन ओशन को इस फिल्म के बारे में बताया तो सुस्मित ने कहा – ‘तुम क्यों परोपकार करना चाहते हो?’ वो शायद पूरा मजाक नहीं कर रहा था। अमित ने, उम्र में कम और परिणामस्वरूप कम सिनिकल होने की बदौलत, ज्यादा गर्मजोशी से प्रस्ताव का स्वागत किया। उसे लगा कि इसमें ‘कामर्शियल पासिबिलिटीज़’ हैं। (खैर, आज मुड़ के देखूं तो लगता है, कहां हैं?) राहुल को बजट कम लग रहा था, खास कर के हम जिस एंबीशन की फिल्म की बात कर रहे थे उसके लिए। पर उसने जल्दी ही कंधे उचकाते हुए कहा, ‘इंडियन ओशन ने हमेशा धारा से उल्टा ही काम किया है। चलो एक और सही!’ अशीम की प्रतिक्रिया ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया। उसने इस फिल्म के लिए अपना दिल खोल कर सामने रख दिया, और मेरे हर फैसले का खुल कर साथ दिया। यहां तक कि कई बार वो अपने साथियों से भी असहमत हुआ और मेरी तरफ से बोला। उसके लिए ये बहुत जरूरी था कि इंडियन ओशन का काम और संगीत किसी तरह से दर्ज किया जा सके।
तो इस तरह से, इस फिल्म का ये अजीब सा सफर शुरू हुआ। इससे पहले भारत में इस तरह की किसी फिल्म का संदर्भ नहीं था, काफी कुछ इंडियन ओशन के बाकी काम की तरह, तो हमारे पास इसे बेचने का प्लान कहां से होता? और हां, ये मेरी पहली फिल्म भी थी। फिल्म में काम करने वाले सभी लोगों की यह पहली फ़िल्म थी। (जिसमें से अधिकतर मेरी 2007 की फिल्म ‘हल्ला’ में भी काम करने वाले थे।) अमित किलम का भाई सुमित इस प्रोजेक्ट से जुड़ने वाला दूसरा इंसान था। उसकी संगीत की समझ और इंडियन ओशन से उसका पुराना रिश्ता इस फिल्म में बहुत काम आया।


जून 2006 में इंडियन ओशन ने फिल्म के लिए हामी भर दी। लेकिन फिर अचानक से झटका भी दिया कि शूट जुलाई में ही करना पड़ेगा क्योंकि उसके बाद उनके टूर हैं। मतलब कि प्री-प्रोडक्शन का कोई वक्त नहीं था और हमारे 36 घंटे वाले दिन जल्दी ही शुरू होने वाले थे।






(भाग दो : फिल्म के बनाने की असली प्रक्रिया। अगले हफ्ते।)


प्रस्‍तुति एवं अनुवाद : वरुण ग्रोवर, सौजन्‍य : मिहिर पंड्या, मूल आलेख पैशन फॉर सिनेमा पर पढ़ें


आगे पढ़ें के आगे यहाँ

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