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लो क सं घ र्ष !: वादा लपेट लो, जो लंगोटी नहीं तो क्या ?

अर्थशास्त्रियों ने हमारी जरूरतों को तीन भागों आवश्यक आवश्यकताओं, आरामदायक तथा विलासिताओं में बांटा है। आवश्यक में खाना, कपड़ा, मकान मुख्य है। मैं अक्सर शहरी एवं ग्रामीण बस्तियों से गुजरा और देखा कि झोपड़ियों से टी0वी0, रेडियों द्वारा प्रसारित प्रोग्राम की आवाजे आ रही हैं तथा युवाओं के हाथों में मोबाइल सेट हैं मेरे मन में इस प्रगति के प्रति कोई विरोध नहीं है, मानवता के आधार पर अमीर गरीब समान हैं, परन्तु आश्चर्य इस बात पर हुआ कि इन आदमियों में खेलने वाले बच्चे अधिकतर कुपोषित थे तथा कपड़े तक मयस्सर नहीं थें, शायद ये लोग ग्लैमरस जिन्दगी की चकाचौंध का शिकार हो गये, इनकी जेब कम्पनियों ने काट ली और ये प्राथमिकताएं तय करने में गलती कर बैठे।
आवश्यकताओें में खाने का पहला नम्बर है, इनमें अनाज सब से मुख्य है। गरीब को रोटी चाहियें, परन्तु हमारी खाद्य नीति ने गरीब को भूखा मरने पर मजबूर कर दिया। लगता है हमारे केन्द्रीय खाद्य मंत्री शरद पवार के भी कुछ निहित स्वार्थ थे जिसके कारण उन्होंने आयात निर्यात का मकड़जाल फैलाकर कुछ बड़ों को शायद फायदा पहुंचाने की कोशिश की। उन्होंने अक्सर ऐसे विरोधाभासी बयान दिये जिससे एक तरफ अनाजों के दाम बढ़े जिस से उपभोक्ता प्रभावित हुए परन्तु दूसरी तरफ उत्पादकों तक फायदा नहीं पहुंचने दिया गया। यह फायदा बिचौलिए ले उड़े। कभी कहा गया अनाज आयात किया जायेगा, कभी कहा गया गोदामों में अनाज इतना भरा हुआ है कि उनको आगे के लिये खाली करना जरूरी हो गया है। शक्कर के सम्बंध में भी गलती से या जानबूझकर उलटफेर वाली नीतियाँ अपनाई गईं। उपभोक्ता ऊँचे दामों पर शक्कर खरीदने पर मजबूर हुआ, दूसरी तरफ आयातिति खांडसरी बन्दरगाहों पर पड़ी सड़ती रही।
गरीब की कोई सुनता नहीं, मौका आने पर उससे सिर्फ वोट लिया जाता है तथा जो वादे किये जाते हैं उनकी तरफ से कोई मुड़कर नहीं देखता, एक शेर शमसी मीनाई का देखिये-
सब कु है अपने देश में, रोटी नहीं तो क्या ?
वादा लपेट लो, जो लंगोटी नहीं तो क्या ?

डॉक्टर एस.एम.हैदर

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