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ऐसे बदलें शिक्षा का चेहरा


हमारे यहां बच्चों की बढ़ती संख्या के अनुपात में अच्छे स्कूलों का नितांत अभाव है। एक अनुमान के अनुसार यदि छात्र-शिक्षक अनुपात को संतोषजनक स्तर पर बरकरार रखना है तो हमें कम से कम तीन गुना अधिक स्कूल चाहिए। इसमें कोई दो राय नहीं है कि सरकार के पास इतना पैसा नहीं है कि वह सभी स्कूलों को वित्तीय सहायता दे सके। स्कूलों को वित्तीय दृष्टि से स्वयं सक्षम होना होगा।




केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल भी हमारे प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नक्शेकदम पर चल रहे हैं। सिब्बल के पास नेहरू के जैसा ही विजन है, नेहरू के समान ही एक सपना है। लेकिन दुर्भाग्य से नेहरू के समान ही सिब्बल भी प्राथमिक शिक्षा की तुलना में उच्च शिक्षा को ज्यादा महत्व दे रहे हैं। सवाल है कि दस साल की सड़ी-गली शिक्षा से जो नुकसान हो चुका होगा, क्या उसकी खानापूर्ति चार-पांच साल की कॉलेज शिक्षा से की जा सकती है?




विभिन्न अध्ययनों व सर्वे से एक बात सामने आई है कि बिहार के प्राथमिक स्कूलों के बच्चों का प्रदर्शन महाराष्ट्र, गुजरात या मध्यप्रदेश के स्कूली बच्चों से बेहतर रहा है। इसकी एक वजह यह हो सकती है कि बिहार में रोजगार के वैकल्पिक साधन उपलब्ध नहीं होने से अच्छे शिक्षक स्कूलों में ही बने रहे, जबकि भारत के अनेक राज्यों में कई अच्छे शिक्षकों ने स्कूल छोड़ दिए। इसलिए इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि आईआईटी और आईएएस पास करने वालों में एक बड़ी संख्या बिहार के विद्यार्थियों की होती है।




यदि स्कूली पढ़ाई अच्छी है तो इसके बाद की सारी शिक्षा अच्छी रहेगी। यदि शिक्षक स्कूल छोड़ने लगें तो क्या किया जाना चाहिए? इसका सीधा सा जवाब है शिक्षा के पेशे को अन्य पेशों से अधिक आकर्षक बनाना। अधिकांश शिक्षकों ने पूर्वकालिक पेशे के रूप में शिक्षण कार्य को जिन वजहों से छोड़ा है, वे हैं: काफी कम वेतन, बदतर विद्यार्थी-शिक्षक अनुपात जिससे शिक्षक छात्रों पर व्यक्तिगत ध्यान नहीं दे पाते हैं, शिक्षकों के खिलाफ बढ़ती हिंसा, गैर शिक्षण कार्यो जैसे चुनाव डच्यूटी और जनणगना इत्यादि का बोझ, पेशे की मर्यादा कम होना। बदकिस्मती से आखिरी कारण अक्सर पहले चार कारणों की परिणति होता है। कम वेतन, शिक्षकों के खिलाफ बढ़ती हिंसा और राजनीतिक दखल की वजह से अच्छी प्रतिभाएं शिक्षा के पेशे को छोड़कर जा रही हैं।




इसलिए इस बात में कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि कैट, आईआईटी-जी या मेडिकल प्रवेश परीक्षाओं में सफल होने वाले अधिकांश बच्चे उच्च मध्यमवर्गीय परिवारों के होते हैं, जो निजी शिक्षा को वहन कर सकते हैं। इनमें अनेक बच्चे ऐसे परिवारों के होते हैं जिनके माता-पिता दोनों शिक्षित होते हैं और वे अपने बच्चों को घर पर भी पढ़ाते हैं। इस प्रकार बहुत ही सामान्य परिवारों से आने वाले वे बच्चे जो केवल हमारे स्कूली सिस्टम पर निर्भर होते हैं, प्राय: प्रतियोगी परीक्षाओं में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाते, केवल कुछ बहुत ही विलक्षण प्रतिभाओं को छोड़कर।




यहां कुछ कार्य तत्काल किए जाने की जरूरत है। मैं इस सिलसिले में पांच सिफारिशें पेश कर रहा हूं। सिफारिश 1 : शिक्षकों को खुली प्रतिस्पर्धा की अनुमति दी जानी चाहिए, जिसमें वे उसी तरह वेतन के लिए मोल-भाव कर सकें, जिस तरह निजी क्षेत्र में करते हैं। यह साफ है कि सरकार से स्कूलों के बढ़े वेतन बिल के भुगतान की उम्मीद नहीं की जा सकती। इसलिए सरकार को स्कूलों को अपने संसाधन जुटाने की अनुमति दे देनी चाहिए।




सिफारिश 2 : स्कूलों को ज्यादा फीस लेने की अनुमति दी जानी चाहिए ताकि वे वेतन और अन्य खर्चो को वहन कर सकें। लेकिन यहां सवाल उठेगा कि इससे स्कूलों के प्रबंधन शिक्षा से लाभ कमाने को प्रेरित नहीं होंगे? हां, लेकिन क्या चैरिटेबल अस्पतालों के प्रबंधन भी मेडिकल बीमा से मुनाफाखोरी नहीं करते? एक शर्त यह रखी जा सकती है कि उच्च फीस वसूलने वाले स्कूलांे के बच्चों को हर दो साल में एक बार अंग्रेजी, गणित और विज्ञान विषयों में केंद्र संचालित परीक्षा से गुजरना होगा और इनमें से ९क् फीसदी बच्चों को यह परीक्षा पास करना जरूरी होगा।




यदि १क् फीसदी से अधिक बच्चे फेल हो जाते हैं तो स्कूल के मौजूदा प्रबंधकों को स्कूल प्रबंधन से हटा दिया जाएगा। ऐसे स्कूलों का प्रबंधन उनके हाथों मंे सौंप दिया जाएगा, जो अपने विद्यार्थियांे को बेहतर ढंग से शिक्षित कर रहे होंगे। प्रबंधन से हाथ धोने के डर से स्कूलों के प्रबंधक अच्छे शिक्षक रखेंगे, शिक्षा का समुचित परिवेश का निर्माण करेंगे और यह सुनिश्चित करेंगे कि शिक्षक व विद्यार्थी मिलकर काम करें। इससे विद्यार्थी-शिक्षक अनुपात बेहतर होगा, बच्चों पर अच्छी तरह से ध्यान दिया जा सकेगा और इस तरह अच्छी शिक्षा मिल सकेगी।




सिफारिश 3 : उच्च फीस का सीधा संबंध विद्यार्थी के प्रदर्शन से होगा। विद्यार्थियांे के प्रदर्शन को बरकरार नहीं रख पाने की स्थिति में स्कूल के प्रबंधक बदल दिए जाएंगे। इससे कुछ हलकों में यह भय भी पैदा हो जाएगा कि कहीं शिक्षा धनवानों का ही तो विशेषाधिकार नहीं बन जाएगा और क्या वही बच्चे अच्छे स्कूल जा पाएंगे, जिनके अभिभावक ज्यादा फीस वहन कर सकेंगे? इसका जवाब अगली सिफारिश में मिलेगा।




सिफारिश 4 : सब्सिडी की व्यवस्था लागू की जा सकती है। यह व्यवस्था ऐसी होगी कि इसमें ३क् फीसदी योग्य छात्रों को कम फीस देनी होगी जिनका खर्च धनवान परिवारों के बच्चों की फीस से वहन किया जाएगा। यदि कोई गरीब बच्च अकादमिक अध्ययन के लिए योग्य नहीं पाया जाता है तो उसे स्कूल में भर्ती होने के बजाय वोकेशनल सेंटर में शामिल होने को कहा जा सकता है।




अब हम सबसे बड़ी बाधा पर पहुंच गए हैं और वह यह है कि हमारे यहां बच्चों की बढ़ती संख्या के अनुपात में अच्छे स्कूलों का नितांत अभाव है। एक अनुमान के अनुसार यदि छात्र-शिक्षक अनुपात को संतोषजनक स्तर पर बरकरार रखना है तो हमें कम से कम तीन गुना अधिक स्कूल चाहिए। इसमें कोई दो राय नहीं है कि सरकार के पास इतना पैसा नहीं है कि वह सभी स्कूलों को वित्तीय सहायता दे सके।




स्कूलों को वित्तीय दृष्टि से स्वयं सक्षम होना होगा। चूंकि शिक्षा राज्यों का विषय है, इसलिए राष्ट्रीय नीति लागू करने के लिए वित्तीय महातंत्र ही एक तार्किक समाधान होगा। वित्तीय लाभ अर्जित करने के लिए स्कूलों के प्रबंधन को निश्चित मानकों का पालन करना होगा। हालांकि प्रबंधन के अनुमोदन का अधिकार राज्यों के पास ही होगा, वित्तीय इंसेंटिव और संबंधित शर्तो को लागू करने की जिम्मेदारी केंद्र की होगी। यदि स्कूल प्रबंधन विफल हो जाता है तो सारे वित्तीय लाभ उससे वापस लिए जा सकेंगे।




यदि मानकों में पारदर्शिता होगी तो हम शिक्षा में क्रांतिकारी बदलाव ला सकते हैं। इससे यह भी सुनिश्चित हो सकेगा कि दसवीं की परीक्षा केवल योग्य परीक्षार्थी ही उत्तीर्ण कर सकें ताकि कॉलेजों पर उन विद्यार्थियों का दबाव कम हो सके, जिनकी अकादमिक दक्षता हासिल करने में कोई विशेष रुचि नहीं है। इससे कॉलेज राजनीति की उर्वरा जमीन बनने से भी बच सकेंगे। सिफारिश 5 : ऐसी वित्तीय नीति बनाना जो नए स्कूलों में भारी निवेश को प्रोत्साहित करे।

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