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मुक्तक / चौपदे आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

मुक्तक / चौपदे

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
संजिव्सलिल.ब्लागस्पाट.कॉम / संजिव्सलिल.ब्लॉग.सीओ.इन
सलिल.संजीव@जीमेल.com

साहित्य की आराधना आनंद ही आनंद है.
काव्य-रस की साधना आनंद ही आनंद है.
'सलिल' सा बहते रहो, सच की शिला को फोड़कर.
रहे सुन्दर भावना आनंद ही आनंद है.

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ll नव शक संवत, आदिशक्ति का, करिए शत-शत वन्दन ll
ll श्रम-सीकर का भारत भू को, करिए अर्पित चन्दन ll
ll नेह नर्मदा अवगाहन कर, सत-शिव-सुन्दर ध्यायें ll
ll सत-चित-आनंद श्वास-श्वास जी, स्वर्ग धरा पर लायें ll
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दिल को दिल ने जब पुकारा, दिल तड़प कर रह गया.
दिल को दिल का था सहारा, दिल न कुछ कह कह गया.
दिल ने दिल पर रखा पत्थर, दिल से आँखे फेर लीं-
दिल ने दिल से दिल लगाया, दिल्लगी दिल सह गया.

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कर न बेगाना मुझे तू, रुसवा ख़ुद हो जाएगा.
जिस्म में से जाँ गयी तो बाकी क्या रह जाएगा?
बन समंदर तभी तो दुनिया को कुछ दे पायेगा-
पत्थरों पर 'सलिल' गिरकर व्यर्थ ही बह जाएगा.
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कौन किसी का है दुनिया में. आना-जाना खाली हाथ.
इस दरवाजे पर मय्यत है उस दरवाजे पर बारात.
सुख-दुःख धूप-छाँव दोनों में साज और सुर मौन न हो-
दिल से दिल तक जो जा पाये 'सलिल' वही सच्चे नगमात.

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