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लो क सं घ र्ष !: साम्राज्यवाद के लिए आसान शिकार नहीं है ईरान-अंतिम भाग

आतंकवाद खत्म करने में, दुनिया को परमाणु हथियारों के खतरों से बचाने में बल्कि उसकी
दिलचस्पी तेल पर कब्जा करने और इस जरिये बाकी दुनिया पर अपना वर्चस्व बढ़ाने में है।
अमेरिका की फौजी मौजूदगी ने उसे दुनिया के करीब 50 फीसदी प्राकृतिक तेल के स्त्रोतों पर प्रत्यक्ष या
अप्रत्यक्ष कब्जा दिला दिया है और अब उसकी निगाह ईरान के 10 प्रतिशत तेल पर काबिज होने की है।
दरअसल मामला सिर्फ यह नहीं है कि अगर अमेरिका को 50 फीसदी तेल हासिल हो गया है तो वो ईरान
को बख्श क्यों नहीं देता। सवाल ये है कि अगर 10 फीसदी तेल के साथ ईरान अमेरिका के विरोधी खेमे के
साथ खड़ा होता है तो दुनिया में फिर अमेरिका के खिलाफ खड़ा होने की हिम्मत कोई कोई करेगा।
याद कीजिए कि अमेरिका ने 2003 में इराक पर जंग छेड़ने के पहले ये आरोप लगाये थे कि उसके पास
परमाणु हथियारों जनसंहारक हथियारों का जखीरा मौजूद है। तब संयुक्त राष्ट्र संघ और अन्य
अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों द्वारा कई मर्तबा इराक में सद्दाम हुसैन की स्वीकृति के साथ की गयीं
जाँच-पड़तालों के बावजूद ऐसे किन्हीं हथियारों की मौजूदगी का अस्तित्व प्रमाणित नहीं किया जा सका
था। आज जबकि सद्दाम हुसैन को सूली चढ़ाया जा चुका है और इराक में अब अमेरिकी समर्थन की
सरकार बैठी है, तब भी ऐसे किन्हीं हथियारों की बरामदगी नहीं हो सकी है। अमेरिका के लिए दोनों ही
स्थितियाँ फायदे की थीं। अगर इराक के पास परमाणु हथियार पाये जाते तो वो इराक के खिलाफ अपने
पक्ष में विश्व में और जनमत बढ़ा लेता और इराक पर हमला करने का नया बहाना ढूँढ़ लेता। और अगर
नहीं निकले तो उसे ये तसल्ली हो जाती कि इराक अमेरिकी फौज या अमेरिका का उतना बड़ा नुकसान
नहीं कर सकता जितना किसी परमाणु बम से हो सकता है। जाँच-पड़तालों से उसे इराक के सामरिक
महत्त्व के ठिकानों की जानकारी तो हो ही गयी थी।
यही रणनीति अमेरिका ईरान के लिए अपना रहा है। ईरान द्वारा परमाणु हथियारों के निर्माण की अमेरिकी
कहानी को अब तक किसी सूत्र ने प्रमाणित नहीं किया है। यहाँ तक कि अंतरराष्ट्रीय परमाणु उर्जा एजेंसी
(आईएईए) के तमाम निरीक्षणों ने भी ईरान की ऐसी किसी कोषिष पर अपनी मुहर नहीं लगायी है। बल्कि
2009 की सितंबर में ईरान ने आईएईए के निरीक्षक दल को अपने परमाणु संवर्धन के ठिकानों का निरीक्षण
भी करवाया जहाँ ईरान अपने यूरेनियम का उस सीमा तक संवर्धन करता है जिससे उसका उपयोग कैंसर
जैसी बीमारियों के इलाज और बिजली बनाने के लिए किया जा सके। परमाणु अप्रसार संधि का
हस्ताक्षरकर्ता देष होने के नाते ईरान को शांतिपूर्ण मकसद से ऐसा करने का अधिकार भी प्राप्त है।
अनेक पष्चिमी परमाणु वैज्ञानिकों का मानना है कि ईरान के पास वो तकनीक है ही नहीं जिससे यूरेनियम
में शामिल माॅलिब्डेनम की अषुद्धि को दूर कर उसे हथियार के तौर पर उपयोग के लायक बनाया जा सके।
कुछ का अनुमान है कि उस तकनीक को पाने में ईरान को करीब 10 वर्ष का समय लग सकता है।
परमाणु बम बनाने के लिए 80 प्रतिषत तक प्रसंस्कारित किये गये यूरेनियम की जरूरत होती है, जबकि
खुद अमेरिकी सूत्रों के मुताबिक ईरान ज्यादा से ज्यादा 20 प्रतिषत तक प्रसंस्करण की क्षमता विकसित कर
सकता है। यह क्षमता वो पहले भी हासिल कर सकता था, लेकिन ईरान के परमाणु कार्यक्रम को अमेरिका
ने अनेक प्रकार से स्थगित करवाये रखा। अक्टूबर 2009 में वियना में हुई बैठक में ईरान इस बात के लिए
भी राजी हो चुका था कि वो अपने पास उपलब्ध अल्प सवंर्धित यूरेनियम (लो एनरिच्ड यूरेनियम) का एक
बड़ा हिस्सा फ्रांस और रूस को भेज देगा जो उसे इतना प्रसंस्कारित कर लौटाएँगे कि उसका इस्तेमाल
परमाणु हथियार बनाने में किया जा सके। वियना वार्ता में अपने असंवर्धित यूरेनियम का कुछ भाग देने
के लिए ईरान राजी भी हो गया था, लेकिन अमेरिका ने जिद रखी कि ईरान को अपना पूरा ही यूरेनियम
प्रसंस्करण हेतु दे देना चाहिए।
इसके लिए अहमदीनेजाद को देश के भीतर आलोचनाओं का सामना भी करना पड़ा कि वो अमेरिका के
बहकावे में आकर अपने देश के यूरेनियम से भी हाथ धो बैठेंगे। आलोचकों ने, जिनमें ईरान के परमाणु
मामलों के जानकार भी शामिल थे, यह आशंका भी व्यक्त की कि पश्चिमी देश वो यूरेनियम ईरान को
लौटाएँगे ही नहीं जो उन्हें प्रसंस्कारित करने के लिए दिया जाएगा।
अमेरिका का कहना था कि ईरान थोड़ा यूरेनियम प्रसंस्करण के लिए देकर बचे हुए में से बम बना सकता
है। जबकि ईरान का कहना था कि पहले हमारा थोड़ा यूरेनियम प्रसंस्कारित करके वापस करो तब हम और
देंगे। इसी की आड़ लेकर अमेरिका जर्मनी ने 28 जनवरी 2010 को ईरान पर नये व्यापारिक आर्थिक
प्रतिबंध लागू कर दिये जिनके तहत कोई भी इकाई यानी कोई व्यक्ति, कंपनी या यहाँ तक कि कोई देश
भी अगर ईरान के साथ रिफाइंड पेट्रोलियम का व्यापार करता है तो उसे कड़े प्रतिबंधों का सामना करना
पड़ेगा पहले से जारी तीन प्रतिबंधों के साथ ये नये प्रतिबंध ईरान को अकेला करने की एक और कोषिष
हैं। इतना ही नहीं, प्रतिबंधों की घोषणा के तत्काल बाद ईरान की सीमाओं पर अमेरिका की सैन्य उपस्थिति
भी बढ़ा दी गयी है।
अमेरिका के इस रवैये पर 9 फरवरी 2010 से ईरान ने अपने यूरेनियम का प्रसंस्करण करने का कार्यक्रम
शुरू कर दिया है और साथ ही अपनी परमाणु हथियार बनाने की मंषा जाहिर करने के लिए ईरान ने
मई 2010 में परमाणु निरस्त्रीकरण के मसले पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन बुलाने की घोषणा भी की है।
यह जानना भी कम दिलचस्प नहीं है कि अगर 1979 की क्रांति हुई होती और अभी तक ईरान में शाह
पहलवी की ही हुकूमत होती तो खुद अमेरिका के समर्थन से ईरान परमाणु शक्ति संपन्न बन गया होता।
अमेरिका के चहेते शाह पहलवी ने परमाणु हथियार बनाने की मंषा का खुलेआम ऐलान किया था और
उसके लिए परमाणु ईंधन और परमाणु रिएक्टर अमेरिका ने ही मुहैया कराये थे। 1979 की क्रांति के बाद
अयातुल्ला खुमैनी के जमाने से अब तक ईरान परमाणु शक्ति संपन्न देषों की जमात में शामिल होने के
लिए कभी उत्सुक नहीं रहा है। खुद अयातुल्ला अली खामैनी और अहमदीनेजाद अनेक दफा सार्वजनिक
रूप से कह चुके हैं कि परमाणु हथियारों को रखना इस्लामिक क्रांति के मूल्यों के खिलाफ है।
इन तकनीकी सवालों अनुमानों को और धार्मिक या राजनीतिक बयानों को छोड़ भी दिया जाए तो ये
सवाल पूछना तो लाजिमी है कि वे कौन हैं जो दुनिया की नैतिक पुलिस बनकर परमाणु हथियारों के
मामलों में ईरान के खिलाफ मुष्कें चढ़ा रहे हैं। खुद अमेरिका के पास केवल दुनिया के परमाणु हथियारों
का सबसे बड़ा जखीरा है बल्कि दुनिया के अब तक के इतिहास में वही एकमात्र देष रहा है जिसने किसी
देष की लाखों की बेकसूर नागरिक आबादी पर परमाणु हथियारों का इस्तेमाल कर समूचे मानव इतिहास में
नृषंसता की सबसे बड़ी मिसाल कायम की है। और फिर खम ठोक कर परमाणु हथियार बना चुके
पाकिस्तान, भारत, उत्तरी कोरिया और इजरायल पर भी ईरान जैसी सख्ती नहीं की गयी तो ईरान से ही
खलनायक की तरह क्यों व्यवहार किया जा रहा हैं? इजरायल के परमाणु कार्यक्रम की जाँच का प्रस्ताव तो
अमेरिका हर बार अपनी वीटो शक्ति का उपयोग करके गिराता रहा है।
इराक के तजुर्बे से हिचकिचाहट
इराक पर आजमायी तरकीब को अमेरिका ईरान पर भी आजमाना चाहता है। लेकिन परमाणु हथियारों के
निर्माण की कोषिषों का आरोप लगाकर प्रतिबंधों के जरिये ईरान को भीतर से कमजोर कर उसे फौज के
दम पर जीत लेने के मंसूबों में इराक का तजुर्बा ही अमेरिका को अनिर्णय की स्थिति में रखे हुए है।
दरअसल 1 ट्रिलियन (1000000000000) डाॅलर से ज्यादा फूँक डालने के बावजूद, सद्दाम हुसैन को फाँसी
पर चढ़ाने के बावजूद, लाखों मासूम इराकी लोगों, बच्चों, औरतों, बुजुर्गों को लाषों में बदल डालने और
अपने सैकड़ोंबहुमूल्यसैनिकों की जानें गँवा देने के बावजूद इराक पर पूरी तरह से अमेरिका आज भी
कब्जा नहीं कर सका है। अपनी आजादी के छिनने और अपनी दुनिया के उजड़ने के बाद जो इराकी लोग
जिंदा बचे हैं, वे चुपचाप मातम नहीं मना रहे हैं। वे जैसे भी मुमकिन है, बंदूकों, बमों, या आत्मघाती तरीकों
की हद तक जाकर भी अमेरिकी फौज से बदला ले रहे हैं। और लाखों की तादाद में मारे जाने के बावजूद
अमेरिका के प्रति भयानक गुस्से से भरे ऐसे लोग अगर करोड़ों में भी हों तो भी लाखों में तो हैं हीं। एक
लिहाज से इराक अमेरिकी और अमेरिका के मित्र देशों के फौजियों के लिए गले की हड्डी बन चुका है।
शायद ऐसे ही किसी मौके के लिए तुर्की के प्रसिद्ध क्रांतिकारी कवि नाजिम हिकमत ने कहा होगा ‘‘
गिरफ्तार हो जाना अलग बात है, खास बात है आत्मसमर्पण करना।’’
अमेरिकी रणनीतिकार जानते हैं कि ईरान ईराक से तीन गुना बड़ा देश है। ईरान की आबादी ईराक से
दोगुनी से भी ज्यादा है। मौलानाओं की धार्मिक सत्ता की वजह से मजहबपरस्ती भी ज्यादा है और इसलिए
अमेरिकाविरोधी भावनाएँ भी ज्यादा उग्र हैं। ईरान पर सीधा हमला करने जैसा कदम उठाने की हिम्मत
अमेरिका के फौजी रणनीतिज्ञों की नहीं हो पा रही है।
इसीलिए परमाणु हथियारों के निर्माण की कोशिशें का आरोप ईरान पर मढ़कर कुछ और प्रतिबंध लगाकर
अमेरिका ईरान को या तो इतना कमजोर कर देना चाहता है कि जब उसकी फौजें ईरान में दाखिल हों तो
न्यूनतम प्रतिरोध का सामना करना पड़े। या फिर, जैसा कि अनेक अमेरिकी दक्षिणपंथी बुद्धिजीवी बराक
ओबामा को सलाह दे रहे हैं कि वो ईरान को इराक की तरह तहस-नहस करने के मंसूबों को छोड़ वहाँ
अयातुल्ला अली खामैनी और अहमदीनेजाद की हुकूमत का तख्तापलट करवाकर उसकी जगह किसी
अमेरिकी फर्माबरदार सरकार को गद्दीनषीन करवाने की हिकमत करें।
दोस्त पास के और दोस्त दूर के
यह तो साफ है कि ईरान चैतरफा अमेरिकी दबावों से घिर रहा है और ये दबाव बढ़ते जा रहे हैं। ठीक
मौका मिलते ही ईरान को अपने साम्राज्यवादी आॅक्टोपसी शिकंजे में कसने के लिए वो ताक लगाये बैठा है
और यह भी साफ है कि ईरान पर कब्जा होते ही वो उत्तरी कोरिया पर अपना निषाना साधेगा। ऐसे में
ईरान के लिए अपनी संप्रभुता और आजादी बचाये रखने के लिए ये जरूरी है कि वो अमेरिकी साम्राज्यवाद
विरोधी बिखरी अंतरराष्ट्रीय ताकतों को एकजुट करे। क्यूबा ईरान का पुराना खैरख्वाह रहा है और पिछले
दिनों वेनेजुएला के राष्ट्रपति ह्यूगो चावेज के साथ मिलकर अहमदीनेजाद ने जो वैकल्पिक कोष बनाया है
उससे दूसरे छोटे देष भी विष्व बैंक और आईएमएफ के चंगुल से बचते हुए अमेरिकाविरोधी खेमे को
मजबूत कर सकते हैं। वेनेजुएला और ईरान मिलकर पेट्रोलियम व्यापार में डाॅलर की सर्वोच्चता को भी
चुनौती देने की वैसी कशिश मिलकर कर रहे हैं जो सद्दाम हुसैन ने अकेले की थी।
लेकिन इन कोषिषों के असर का दायरा बड़ा होने में वक्त लगेगा। अगर इस बीच ईरान पर अमेरिका या
इजरायल हमला करता है तो सुदूर लैटिन अमेरिका में मौजूद वेनेजुएला या क्यूबा उसे रोक सकने में सक्षम
होंगे-ऐसी उम्मीद करना ज्यादा आषावादी होना होगा। ईरान का सबसे ताकतवर और असरदार सहयोगी
उसके बिल्कुल पड़ोस में मौजूद इराक हो सकता था जिसे ईरान ने अपनी पुरानी दुश्मनी और तंगनजरी की
वजह से आँखों के सामने तहस-नहस होते देखा।
चीन, रूस जैसे देषों से उसे अगर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कोई सहयोग मिलता भी है तो वो भी एक बहुत
सीमित सहयोग ही होगा। चीन ईरान के तेल का बड़ा आयातक देष है। ईरान के साथ चीन का 17 अरब
डाॅलर का प्रत्यक्ष व्यापार है जो बाजरिये दुबई 30 अरब डाॅलर तक पहुँचता है। अपने आर्थिक हितों के लिए
ईरान के साथ व्यापार करने से चीन पर कोई दबाव अमेरिका नहीं बना सकता है। हाँ, अगर ईरान को काबू
में करने में या वहाँ के तेल संसाधनों पर कब्जा करने में अमेरिका कामयाब हो जाता है तो चीन, क्यूबा,
10
भारत जैसे अनेक देषों की निर्भरता अमेरिकी प्रभाव वाले देशों पर बढ़ जाएगी। हालाँकि चीन लगातार
संयुक्त राष्ट्र संघ अन्य बहुपक्षीय वार्ताओं में ईरान पर प्रतिबंधों के खिलाफ दलीलें रखता रहा है लेकिन
चीन से वैसी किसी भूमिका की उम्मीद करने का कोई आधार नहीं है जैसी सोवियत संघ के अस्तित्व में
रहते सोवियत संघ निभाया करता था।
पड़ोसी मुल्कों में पाकिस्तान और भारत दो अन्य ताकतवर देष हैं और दोनों ही देषों के सामने ईरान ने
गैस पाइपलाइन बिछाने का जो प्रस्ताव रखा है वो अमेरिका की प्रस्तावित पाइपलाइन योजना को खटाई में
डाल सकता है। विषेषज्ञों के मुताबिक ये कहा जाना तो मुष्किल है कि उक्त पाइपलाइन से प्राप्त होने
वाली गैस अमेरिका की प्रस्तावित पाइपलाइन योजना से सस्ती होगी, लेकिन ये जरूर कहा जा सकता है
कि अगर ये योजना आकार लेती है तो भारत, पाकिस्तान और ईरान के संबंधों में ऐतिहासिक रूप से
सकारात्मक बदलाव आएगा। अगर ऐसा होता है तो ये अमेरिकी वर्चस्व को एक चुनौती तो होगी ही साथ
ही ये एषिया के तीन प्रमुख देषों को आपस में जोड़ने और शांति के नये अध्याय को भी शुरू करने की
भूमिका निभाएगी। इस परियोजना का भविष्य भारत और पाकिस्तान की सरकारों के नजरिये पर निर्भर
करता है कि वे अमेरिका की खुषामद करना ठीक समझती हैं या अपने मुल्कों की, इस महाद्वीप की और
आखिरकार पूरी इंसानियत की बेहतरी को तवज्जो देती हैं। बेषक दोनों ही देशों की मौजूदा सरकारों से ये
उम्मीद करना एक दूर की कौड़ी है लेकिन दोनों ही देषों के भीतर मौजूद जनवादी ताकतों से ये भूमिका
निभाने की उम्मीद तो की ही जा सकती है कि वे देष का जनमत इस पक्ष में मोड़ने की हर मुमकिन
कोषिष करें ताकि हुकूमतें जनता की आवाज को अनसुना कर सकें। इराक पर अमेरिकी हमले के वक्त
अगर ईरान खामोष रहा होता और अन्याय के खिलाफ खड़ा हुआ होता तो आज पष्चिम एषिया के
हालात बिलकुल जुदा होते। वर्ना जैसा इराक ने भुगता है और ईरान जिस खतरे के सामने खड़ा है वैसा
ही हाल भारत और पाकिस्तान का भी हो सकता है, कि ‘‘जब वो मुझे मारने आये तब कोई नहीं बचा था।’’
खुद ईरान की हुकूमत को भी ये समझना जरूरी है कि उसे अपने भीतर लोकतंत्र को मजबूत करने के
कदम उठाने होंगे। 1979 से अब तक तीस बरस का पानी बह चुका है और एक वक्त जो क्रांति मजहब के
सहारे हुई, उसका लगातार लोकतांत्रीकरण किया गया तो उस क्रांति की उपलब्धियाँ भी इतिहास छीन
सकता है। देष के भीतर अल्पसंख्यकों, महिलाओं आदि को अधिक अधिकारसंपन्न करने से देष, हुकूमत
और लोग एकसाथ मजबूत होंगे।


जिम्मा सबका साझा
बात सिर्फ परमाणु हथियारों की नहीं, बात सिर्फ तेल पर कब्जे की नहीं, बात जंग और अमन की नैतिकता
की नहीं, बल्कि इससे कुछ ज्यादा है। बात ये है कि क्या दुनिया के सभी देश अपने आपको मानसिक रूप
से अमेरिका के अधीन महसूस करने के लिए तैयार हैं, क्या आजादी जीवन का कोई मूल्य है या नहीं, क्या
हर किस्म के संसाधन पर कब्जा और फैसले की ताकत हम अमेरिका के पास सुरक्षित रहने देना चाहते हैं
और क्या हमें इस बात से कोई तकलीफ नहीं कि दुनिया की आबादी का एक बहुत ही छोटा हिस्सा, जो
दरअसल पूरी अमेरिकी जनता का भी प्रतिनिधित्व नहीं करता है, सिर्फ शोषण की ताकत और पूँजी की
ताकत का इस्तेमाल करके सारी दुनिया पर निर्बाध अपना राज करता रह सके?
दूसरे विष्व युद्ध के बाद सोवियत संघ और चीन की मौजूदगी ने अमेरिकी साम्राज्यवाद के विष्व विजय के
सपने पर लगाम कसे रखी। तो अमेरिकी उद्योगों ने अपने आपको दुनिया की उत्पादन व्यवस्था में
सिरमौर साबित किया (हथियार निर्माण को छोड़कर), ही उनकी आर्थिक नीतियाँ कामयाब हुईं, उल्टे
अमेरिकी अर्थव्यवस्था ने सिर्फ अमेरिका बल्कि उससे जुड़े अन्य अनेक देषों का भी दीवाला निकाल
दिया। अगर देखा जाए तो कुछ भी ऐसा नहीं है अमेरिका के पास जिसकी वजह से शेष विश्व में उसे वो
इज्जत और रसूख मिलना चाहिए जो उसे मिल रहा है, सिवाय एक फौजी ताकत को छोड़कर। अगर विष्व
बाजार में उसका माल नहीं बिक रहा है तो वो अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) और विष्व बैंक के
जरिये अपना माल दूसरे देषों पर थोपता है। अगर कोई देष इस तरह के दबाव को मानने से इन्कार कर
दे तो अमेरिका फौज के दम पर उसे परास्त करता है। अगर उसका डॉलर अंतरराष्ट्रीय बाजार में कमजोर
पड़ता है तो उसका रास्ता भी वो फौजी कार्रवाई से निकालता है। एक तरह से अमेरिका दुनिया को उसी
दषा की ओर ले जा रहा है जिसके बारे में रोजा लक्जमबर्ग ने इषारा किया था कि ‘‘अगर पूँजीवाद को
खत्म करके समाजवाद स्थापित किया जाए तो एक स्थिति के बाद ये दुनिया को एक बर्बर सभ्यता में
पहुँचा देता है।’’ दुनिया को बर्बरता से बचाने का जिम्मा सबका साझा है।

विनीत तिवारी, 2, चिनार अपार्टमेंट, 172, श्रीनगर एक्सटेंशन,इन्दौर-452018. मोबाइल-09893192740.

लोकसंघर्ष पत्रिका में शीघ्र प्रकाशित

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