जलजले कहकर नहीं आते। लेकिन, पुणे में तो जलजला पूरी घोषणा के साथ आया। तीन राज्य सरकारों के पास कागज थे। दो केंद्रीय खुफिया एजेंसियों के पास खबर थी। पुलिस तो वैसे भी चाहे तो सब पता लगा लेती है। लेकिन, कानून के इन रखवालों का नकारापन कई जानें लील गया। क्यों नहीं रुकते हमले? क्या आतंक हमारे लिए अंतहीन अभिशाप बन चुका है? ऐसा बिल्कुल नहीं है। सब कुछ नेतृत्व पर निर्भर है। यदि नेतृत्व के सीने में आग धधकती हो, तो हरकत-हूजी-हिजबुल-बुलबुल कोई नाम हो, जल कर खाक ही होगा। क्योंकि ये आग मानवता के लिए होगी।
..लेकिन हम भी जलेंगे
वो फरवरी का ही महीना था जब अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने दुनिया को सकते में डाल दिया था। उन्होंने—ठीक दो साल पहले—यह खुलकर स्वीकार किया था कि 9/11 के आतंकियों की जांच के दौरान ‘वॉटरबोर्डिंग’ जैसी यंत्रणा दी गई थी। इसके तहत अभियुक्तों को निर्वस्त्र कर, मुंह कपड़े से ढक कर इतना तेज और इतना ज्यादा पानी डाला गया, जिससे उन्हें डूबने का अहसास हो। वो छटपटाए, तड़पे-किंतु मरे नहीं। ऐसी अमानुषिक यातना समूचे विश्व में प्रतिबंधित है। लेकिन बुश इस के बदले बदनामी का कलंक झेलने को तैयार थे।
भावना साफ थी
दरिंदों के लिए कैसी मानवता? परिणाम भी सामने थे : 9/11 के बाद किसी अल-कायदा का कायदा अमेरिका में नहीं चला। जैसे ही विशेष यंत्रणा कैंप बंद करने के आदेश नए राष्ट्रपति बराक ओबामा ने जारी किए, उन्हें सालभर से कम समय में तीन आतंकी कोशिशों से जूझना पड़ गया। और 30 दिसंबर 09 को तो अल-कायदा व तालिबान ने मिलकर अफगानिस्तान में सीआईए के 7 अफसरों को मानव बमों से उड़ा दिया। बुश को इतिहास ने कलंकित नेतृत्व के रूप में दर्ज किया है।
इस्लामाबाद, काबुल और वॉशिंगटन, सब झूठे
पुणो धमाके से फिर उभरा डेविड हेडली ‘पाप की धुरी’ हो सकता है। मुस्लिम बनाकर पाले गए इस आततायी अमेरिकी की पत्नी ने ‘फिलेडेल्फिया इन्क्वायरर’ में खौफनाक खुलासा किया है। उसने बताया, ‘वह भारतीयों से घृणा करता है— इतनी कि भारतीयों को देखकर वह सड़क पर ही थूक देता— उसमें नफरत भरी गई थी।’
हेडली को लेकर अमेरिका भी उतना ही झूठा है, जितना पाकिस्तान या अफगानिस्तान। एफबीआई ने अमेरिकी अदालत में हेडली पर कितने संगीन आरोप लगाए—पर हमें नहीं बताए। हेडली डबल एजेंट था। सीआईए के लिए भी। लश्कर-ए-तोयबा के लिए भी। ड्रग तस्करी में सजा काटने के बाद से अमेरिकी कानून की निगाहों में था। काबुल में पाक आतंकियों और तालिबान हमलावरों के बीच सक्रिय इलियास कश्मीरी का खास था। ये तीनों देश जानते थे हेडली लगातार हिंदुस्तान आ-जा रहा है। सबने आंखें मूंद लीं। 26/11 के बाद भी सीआईए ने कुछ नहीं बताया। जाहिर है—उनका स्वार्थ हमारे सिद्धांत पर हावी रहा। इसलिए आतंक विरोधी युद्ध में किसी व्यक्ति, किसी नेतृत्व, किसी देश पर भरोसा जताने का सवाल ही नहीं होना चाहिए।
पाक से बात करें या नहीं?
आतंक की वापसी का टाइमिंग देखिए। पुणो में हो गया, इंदौर का नाम आ गया—कल चेन्नई में हो जाएगा। हमले होंगे यह प्रधानमंत्री तक कहते रहे, लेकिन आखिर किया क्या उन्होंने? गृहमंत्री पी चिदंबरम को शर्मिंदा होना चाहिए कि हाल ही में मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में उन्होंने 26/11 के बाद कोई हमला न होने की बात पर ‘आत्ममुग्ध’ होकर उसे अपनी कामयाबी जैसा दर्शाया था। इसके अलावा कुछ ही समय पहले पाक के पांच प्रमुख आतंकी संगठन पाक-अधिकृत-कश्मीर में इकट्ठे हुए और उसमें भारत पर हमलों की साजिश की खबर आई। इसके आसपास जमात-उद-दावा ने पाक चौराहे में खुलकर कानपुर, पुणे, दिल्ली के नाम लिए। फिर, सबकुछ भुलाकर, हम पाक के साथ विदेश सचिव स्तर की बातचीत पर राजी हो गए। ठीक अगले दिन धमाका हो गया। यानी आतंकी नहीं चाहते कि हम पाक से बात करें। ऐसे में हमें बात तो करनी ही चाहिए—लेकिन सिर्फ हमारी शर्र्तो पर। क्योंकि आतंक के विरुद्ध युद्ध का ‘करो या मरो’ का निर्णायक दौर आ गया है। सरकार चाहे न चाहे, अब देश सहन नहीं कर सकेगा।
तीन ही तरीके हैं
कूटनीतिक कोशिशें, राजनीतिक रास्ते और सैन्य सख्ती। तीसरा अंतिम है—लेकिन आगे-पीछे अनिवार्य या अपरिहार्य हो जाएगा। तब तक आग से खेलने की तैयारी होनी चाहिए।
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यह लेख मुझे बहुत पसंद आया था और इसे हिन्दुस्तान का दर्द पर देखकर और भी खुशी हुई
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