यह सच्ची घटना है, लेकिन इनमें पात्र के नाम और उससे जुड़ी घटनाओं को हमने ब्लर कर दिया है। ऐसा करना हमने बाबा भारती और उनके घोड़े वाली कहानी से सीखा है।♦ कृष्णकांत
उसने पत्रकारिता छोड़ दी, क्योंकि अपनी जाति के कारण उसे बार-बार जलील होना गवारा नहीं था। वह भी लोकतंत्र के पहरुओं द्वारा, जो कहते हैं कि यह लोकतंत्र का महल हमारे ही दम से खड़ा है। हम न होते तो यह महल ढह जाता। उसने मुझसे कहा – हिंदू-मुस्लिम कठमुल्लों को गाली देना मीडिया में फैशन है। ठीक उसी तरह जैसे सलमान खान की नयी रिलीज हो रही फिल्म की खबर देना। यह महज ढोंग है। मीडिया भी उतना ही सांप्रदायिक है जितना कि बजरंग दल या कोई जेहादी कठमुल्लों का संगठन। मैं किसी कथित निचली जाति में पैदा हुआ तो मेरा क्या दोष? आप कथित ब्राहमण के घर पैदा हुए तो आपकी उपलब्धि क्या है?
यह कोई गल्प नहीं है। यह पूरब के ऑक्सफोर्ड से पत्रकारिता की पढ़ाई करके निकले एक छात्र की आपबीती है, जो इत्तफाक से ब्रहमा के मुख से नहीं पैदा नहीं हुआ है। पीआरओशिप में बदल चुकी पत्रकारिता की पढ़ाई भी उसे इस थोपे हुए ब्राहमण-शूद्रवाद से लड़ने का साहस नहीं दे सकी।
हुआ यह कि कोर्स पूरा हो चुकने के बाद उसने लखनऊ के एक टीवी चैनल में फोन से काम के सिलसिले में बात की। वहां से उसे अमेठी क्षेत्र कवर करने के लिए कहा गया। वह खुश था। उसने राहुल गांधी के दौरे सहित दो-तीन स्टोरी करके भेजी। एक रोज़ उसके पास फोन आया कि वह लखनऊ आफिस आ जाए और अपना परिचय-पत्र ले ले तथा अपने काग़ज़ात भी जमा कर दे। वह लखनऊ गया। बॉस ने पूछा, सीवी लाये हो? उसने हां कहते हुए सीवी उन्हें पकड़ा दी। बॉस ने नाम पढ़ते ही उसे घूरते हुए पूछा, अच्छा मौर्या हो? बड़े होशियार लगते हो! तुमने पहले नहीं बताया कि तुम मौर्या हो? उसने कहा, सर बताया तो था पूरा नाम, आपने ध्यान न दिया होगा। बॉस के चेहरे की शिकन देख कर उसे भी समझ नहीं आया कि ऐसी क्या बात है, जो इन्हें इतना परेशान कर रही है? वह थोड़ी देर तक सर झुकाये बैठा रहा, फिर सीवी अपने बगल में बैठे जूनियर को पकड़ा दिया और कहा, ठीक है। तुम्हारा मामला ये देखेंगे… और उठकर जाने लगा। जूनियर ने कहा, अरे सर, मैं क्या देखूंगा, आप यहां के हेड हैं। आप ही देखिए। उसने अनसुना कर दिया और चला गया। उसने बताया, मेरी ज़िंदगी में ऐसा नहीं है कि यह पहली बार हुआ था लेकिन इस तरह से किसी पढ़े-लिखे आदमी, वह भी पत्रकार के द्वारा इस तरह जलील होना कैसा अनुभव था, मैं बता नहीं सकता। यह बर्दाश्त नहीं किया जा सकता, लेकिन मेरे पास चुप रहने के सिवा कोई और चारा नहीं है।
वह बिना परिचय-पत्र पाये वापस आ गया। उसे जवाब तो नहीं दिया गया लेकिन इसी दिन से उन लोंगों का व्यवहार बदल गया। करीब एक हफ्ते तक उसने लीपापोती कर मामले को सामान्य करने की नाकाम कोशिश की लेकिन सब व्यर्थ गया क्योंकि वह अपने पर थोपी गयी जाति से पिंड नहीं छुड़ा सकता। हम ऐसे समाज में रहते हैं जहां सिर्फ आपकी संज्ञा आपकी पहचान के लिए काफी नहीं है। आप सिर्फ नाम बताएंगे तो लोग पूछेंगे, आगे? उसके बाद ही यह तय होता है कि आपके साथ कैसा व्यवहार होगा।
लाख समझाने के बाद भी उसने कहा, ऐसी जगह मैं काम नहीं कर सकता जहां रोज-रोज मुझे अपनी जाति के लिए जलील होना पड़े। उसने कथित पंडितों के गढ़ में सेंध लगाने का दुस्साहस करने की बजाय पलायन का रास्ता चुना। आजकल वह प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहा है।
(कृष्णकांत पांडेय। गोंडा, यूपी के निवासी। युवा पत्रकार। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पत्रकारिता की पढ़ाई। फिलहाल दिल्ली में रह कर फ्रीलांसिंग। उनसे krishnakant.pandey45@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
आगे पढ़ें के आगे यहाँ
उसने पत्रकारिता छोड़ दी, क्योंकि अपनी जाति के कारण उसे बार-बार जलील होना गवारा नहीं था। वह भी लोकतंत्र के पहरुओं द्वारा, जो कहते हैं कि यह लोकतंत्र का महल हमारे ही दम से खड़ा है। हम न होते तो यह महल ढह जाता। उसने मुझसे कहा – हिंदू-मुस्लिम कठमुल्लों को गाली देना मीडिया में फैशन है। ठीक उसी तरह जैसे सलमान खान की नयी रिलीज हो रही फिल्म की खबर देना। यह महज ढोंग है। मीडिया भी उतना ही सांप्रदायिक है जितना कि बजरंग दल या कोई जेहादी कठमुल्लों का संगठन। मैं किसी कथित निचली जाति में पैदा हुआ तो मेरा क्या दोष? आप कथित ब्राहमण के घर पैदा हुए तो आपकी उपलब्धि क्या है?
यह कोई गल्प नहीं है। यह पूरब के ऑक्सफोर्ड से पत्रकारिता की पढ़ाई करके निकले एक छात्र की आपबीती है, जो इत्तफाक से ब्रहमा के मुख से नहीं पैदा नहीं हुआ है। पीआरओशिप में बदल चुकी पत्रकारिता की पढ़ाई भी उसे इस थोपे हुए ब्राहमण-शूद्रवाद से लड़ने का साहस नहीं दे सकी।
हुआ यह कि कोर्स पूरा हो चुकने के बाद उसने लखनऊ के एक टीवी चैनल में फोन से काम के सिलसिले में बात की। वहां से उसे अमेठी क्षेत्र कवर करने के लिए कहा गया। वह खुश था। उसने राहुल गांधी के दौरे सहित दो-तीन स्टोरी करके भेजी। एक रोज़ उसके पास फोन आया कि वह लखनऊ आफिस आ जाए और अपना परिचय-पत्र ले ले तथा अपने काग़ज़ात भी जमा कर दे। वह लखनऊ गया। बॉस ने पूछा, सीवी लाये हो? उसने हां कहते हुए सीवी उन्हें पकड़ा दी। बॉस ने नाम पढ़ते ही उसे घूरते हुए पूछा, अच्छा मौर्या हो? बड़े होशियार लगते हो! तुमने पहले नहीं बताया कि तुम मौर्या हो? उसने कहा, सर बताया तो था पूरा नाम, आपने ध्यान न दिया होगा। बॉस के चेहरे की शिकन देख कर उसे भी समझ नहीं आया कि ऐसी क्या बात है, जो इन्हें इतना परेशान कर रही है? वह थोड़ी देर तक सर झुकाये बैठा रहा, फिर सीवी अपने बगल में बैठे जूनियर को पकड़ा दिया और कहा, ठीक है। तुम्हारा मामला ये देखेंगे… और उठकर जाने लगा। जूनियर ने कहा, अरे सर, मैं क्या देखूंगा, आप यहां के हेड हैं। आप ही देखिए। उसने अनसुना कर दिया और चला गया। उसने बताया, मेरी ज़िंदगी में ऐसा नहीं है कि यह पहली बार हुआ था लेकिन इस तरह से किसी पढ़े-लिखे आदमी, वह भी पत्रकार के द्वारा इस तरह जलील होना कैसा अनुभव था, मैं बता नहीं सकता। यह बर्दाश्त नहीं किया जा सकता, लेकिन मेरे पास चुप रहने के सिवा कोई और चारा नहीं है।
वह बिना परिचय-पत्र पाये वापस आ गया। उसे जवाब तो नहीं दिया गया लेकिन इसी दिन से उन लोंगों का व्यवहार बदल गया। करीब एक हफ्ते तक उसने लीपापोती कर मामले को सामान्य करने की नाकाम कोशिश की लेकिन सब व्यर्थ गया क्योंकि वह अपने पर थोपी गयी जाति से पिंड नहीं छुड़ा सकता। हम ऐसे समाज में रहते हैं जहां सिर्फ आपकी संज्ञा आपकी पहचान के लिए काफी नहीं है। आप सिर्फ नाम बताएंगे तो लोग पूछेंगे, आगे? उसके बाद ही यह तय होता है कि आपके साथ कैसा व्यवहार होगा।
लाख समझाने के बाद भी उसने कहा, ऐसी जगह मैं काम नहीं कर सकता जहां रोज-रोज मुझे अपनी जाति के लिए जलील होना पड़े। उसने कथित पंडितों के गढ़ में सेंध लगाने का दुस्साहस करने की बजाय पलायन का रास्ता चुना। आजकल वह प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहा है।
(कृष्णकांत पांडेय। गोंडा, यूपी के निवासी। युवा पत्रकार। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पत्रकारिता की पढ़ाई। फिलहाल दिल्ली में रह कर फ्रीलांसिंग। उनसे krishnakant.pandey45@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
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nice
ReplyDeleteमैं समझता हूँ की ऐसा हो रहा है.
ReplyDeleteपर धीरे धीरे वातावरण बदल रहा है.
मैं भी एक मौर्या हूँ और मुझे इस पर नाज़ है.
मैं दलित नहीं हूँ और न ही कहलाया जाना पसंद करूंगा.
दलित का आरक्षण नहीं चाहिए मुझे.
मैंने लखनऊ विश्वविद्यालय से जनसंचार की पढाई की है और फिर डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट दैनिक अखबार मे काम कर रहा हूँ
आज तक मुझे अपनी जाति के कारण कोई परेशानी नहीं हुई.
हाँ आप सही हो सकते हैं.
पर दुनिया मे कितनी बुरे है हम कब तक सोचते रहें.
अगर सब चल रहा है तो चंद अच्छों की बदौलत
दलित हो या पिछड़ा हमें लड़ना होगा अपने सम्मान के लिए
कोई हमें तब तक कुछ नहीं दे सकता जब तक हम छीन लेने की हिम्मत न रखें
जातिवाद का भविष्य मे स्थान नहीं है.
मैं अपने मौर्या बंधू को कहना चाहूँगा की एक बार फिर से पत्रकारिता मे वापस आयें और लड़ें
बात सिर्फ नौकरी की नहीं है
बात है अपनी काबिलियत दिकहने की.
आज वो हार मानकर बैठ गए तो मीडिया मे मौर्य को आगे भी यही झेलना पद सकता है.
उन्हें सामने आकर दिखाना होगा कि मौर्य हो या कोई और जाति काबिलियत सबमे होती है.
कामयाबी और प्रतिभा पर किसी जाति विशेष को पेटेंट नहीं मिला है.
तो मौर्य जी आगे आयें और खुद को साबित करें
वैसे आप के लिए वीरेन डंगवाल कि कुछ लाइने भेज रहा हूँ
मैं तसली झूठ मूठ की नहीं देता
हर सपने के पीछे एक सच्चाई होती है
हर कठिनाई कुछ न कुछ राह दिखा ही देती है
जब चल कर आए हैं इतने लाख वर्ष तो
आगे भी चल कर जायेंगे
आयेंगे आयेंगे
उजले दिन जरूर जायेंगे
तो फिर मौर्य जी आइये दुनिया जीतने चलते हैं.
साथ दे रहे हैं न
कौशलेंदर विक्रम मौर्य
जर्वल्रोअद बहराइच
रिपोर्टर डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट
लखनऊ
कुलीनता और अकुलीनता हमारे धर्म ग्रंथों से उपजी थोथी मान्यता है। यह कुछ लोगों को बुद्धिमान और कुछ को बुद्धिहीन होने का फर्जी प्रमाणपत्र देती है। ‘पूजहिं विप्र सकल गुणहीना’ जैसे वाक्य इसके ज्वलन्त प्रमाण है। लोकतंत्र का चैथा स्तम्भ इस प्रकार की संकीर्ण अहम का ज्यादा शिकार है। इस प्रकार के प्रमाण पत्रों बल पर मलाई काट रहे लोग इस सच्चाई से वाकिफ हैं। उन्हें भय है यदि एक भी बाहरी व्यक्ति उनके कार्यक्षेत्र में आयेगा तो उनकी पोलपट्टी खुल जाएगी। लाबिंग और छल के बल किसी को टंगडी तो मारी जा सकती है परन्तु काठ की हांडी बार-बार नहीं चढती है।
ReplyDeleteडा0 गिरीश कुमार वर्मा