निर्देशक : अभिषेक चौबे
प्रोडच्यूसर : केतन मारू , रमन मारू और विशाल भारद्वाज
लेखक : विशाला भारद्वाज, सबरीना धवन , अभिषेक चौबे
कलाकार : नसीरुद्दीन शाह, अरशद वारसी, विद्या बालन
संगीत : विशाल भारद्वाज
बैनर : शेमारू इंटरटेनमेंट
प्रोडच्यूसर : केतन मारू , रमन मारू और विशाल भारद्वाज
लेखक : विशाला भारद्वाज, सबरीना धवन , अभिषेक चौबे
कलाकार : नसीरुद्दीन शाह, अरशद वारसी, विद्या बालन
संगीत : विशाल भारद्वाज
बैनर : शेमारू इंटरटेनमेंट
फिल्म में कृष्णा (विद्या बालन) एक ऐसी महिला है जिसके दिल में प्यार के जज्बात, बदले की भावना और बेहद शातिराना अंदाज है, जो कुछ रहस्यमय होने के साथ साथ लुभाने वाला भी है। खालूजान नसीरूद्दीन शाह और बब्बन अरशद ऐसे बदमाश है जो मुस्ताक यानी कृष्णा के पति की मदद से यूपी से भागकर नेपाल जाना चाहते है । वे कृष्णा के घर कुछ दिन के लिए रुक जाते है। खालूजान और बब्बन दोनों ही कृष्णा के सौन्दर्य के सम्मोहन में आ जाते है। इसी बात का फायदा उठाते हुए कृ ष् णा अपने एक गुप्त प्लान पर दोनों की मदद लेती है। बब्बन और कृष्णा में इसी बीच शारीरिक संबंध भी बन जाते हैं और इस बात को लेकर दोनों में मतभेद भी हो जाता है क्योंकि खुद खालूजान भी दिल से कृ ष्णा से प्यार करते थे। इसी बीच कहानी बड़ी तेजी से ट्विसट आता है। और बाद में पता चलता है कि कृष्णा अपने पति के धोखे का शिकार हुई थी और वह जिंदा है, जिसकी अपनी एक जातिगत सेना भी है। वह कृष्णा को फिर से मारने का प्रयास करता है लेकिन खालूजान और बब्बन ऐसे समय में कृष्णा की मदद करते है और उसे सही सलामत बचाने में सफल हो जाते हैं।
जहां तक अभिनय की बात है तो नसीर ने अपने अंदाज में उम्दा काम किया है और बब्बन के रोल में अरशद ने खिलंदड़ अंदाज में बेहतर काम किया है। लेकिन विद्या बालन ने जिस अंदाज में में अभिनय किया है वह बेजोड़ है और वास्तव में फिल्म में उनका रोल बेहद दमदार है। परिणीता के और पा के बाद विद्या के लिए यह एक बेहद खास फिल्म है और जिस बिंदास अंदाज से उन्होंने फिल्म में चरित्र को जिया है उसमें एक स्त्री के दिल के जज्बात, उसका रहस्यमय होना और खूबसूरत हुस्न को बेजोड़ संगम नजर आता है। फिल्म में वे जिस कातिलाना और मनमोहक अंदाज में नजर आई है वह बेहद शानदार है। दिल तो बच्चा है, और इब्ने बतूता जैसे खूबसूरत जैसे गीत इस फिल्म की जान हैं।
जहां तक फिल्म के लेखन की बात है तो फिल्म की पटकथा चुस्त है लेकिन कहानी की डिमांड के नाम गालियों का बेखौफ इस्तेमाल जिस तरह से किया गया है, उससे बचा जा सकता था। फिल्मकार अपनी बात को सिनेमाई भाषा में कुछ और भी रूप दे सकते थे। कुछ अनकहीं बातें कभी कभी गालियों के शोर से ज्यादा प्रभाव डालती है लेकिन आजकल के लेखक की देव डी से प्रेरित लगते है। ऐसा लगता है रियलिस्टिक सिनेमा के नाम पर भाषा के नंगेपन पन पर बॉलीवुड के कुछ लेखक उतारु हो गए है। सबरीना,अभिषेक और विशाल ने जहां कुछ बेहतरीन संवाद फिल्म में लिखे हैं वहीं गालियों के शोर ने उनके लेखन पर सवाल ही उठा दिए हैं। संचार की अशाब्दिक भाषा का इस्तेमाल कुछ स्थानों पर निर्देशक ने किया होता तो बात और दमदार बन सकती थी। भाषा के देसीपन की ठसक और मिठास का संगम दिखाना था तो कुछ मूक शब्दों का प्रयोग भी किया जा सकता था। खैर कुछ सीन आपकी आंखो को खटक सकते है, कुछ संवाद आपके कानों को भी न जचें लेकिन हिन्दी सिनेमा में आ रहे नए लेखन के इस बदलाव से आप आंखे नहीं बंद कर सकते। मॉस सिनेमा नहीं एक खास दर्शक वर्ग को ध्यान में रखकर बनाई गई कम बजट की बेहतरीन फिल्म है जिसे सिनेमा की समझ रखने वाले दर्शक बेहतर समझ पाएंगे।
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चलो अच्छा हुआ आपने बता दिया, अब गालियां सुनने से बच जाएंगे। कितनी ही अच्छी फिल्म हो लेकिन यदि अनावश्यक गालियों का प्रयोग हुआ है तब लगता है कि हम असंस्कृत होने की कतार में खड़े हैं।
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