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लो क सं घ र्ष !: बेनी प्रसाद का कांग्रेस में भविष्य

आजकल उत्तर प्रदेश में फिर बेनी प्रसाद वर्मा राजनीति की सुर्ख़ियों में हैं। कांग्रेस पार्टी से गोंडा के सांसद बेनी प्रसाद वर्मा ने अपने गृह जनपद बाराबंकी की राजनीति में अपना हस्तक्षेप न सिर्फ जारी रखा है बल्कि कांग्रेसी सांसद पुनिया से उनकी ठन गयी है। कारण स्थानीय निकाय के लिए विधान परिषद् सीट के चुनाव में उनका खुले आम बसपा प्रत्याशी को समर्थन का एलान करना और अपने इस निर्णय में कांग्रेस के राष्ट्रीय महामंत्री एवं प्रदेश प्रभारी दिग्विजय सिंह के नाम को घसीटने पर प्रदेश के कांग्रेसी इतने आग बबूला हो चुके हैं कि उनके निष्कासन की सिफारिश पी.सी.सी सदस्यों की तरफ से कांग्रेस आलाकमान को कर दी गयी है।

समाजवादी तहरीक से पोषित हो कर राजनीति में अपना कदम रखने वाले बेनी वर्मा के राजनीतिक जीवन का आगाज चरण सिंह के लोकदल से हुआ जो अपनी चौधरी चरण सिंह स्टाइल की ऐंठ व बरर के साथ राजनीति में अपनी स्वार्थ की प्रवत्ति के लिए प्रसिद्ध थे। बेनी का फिर साथ हुआ उस मुलायम सिंह से जिन्होंने अपने कर्णधार विश्वनाथ प्रताप सिंह के साथ घात करके समाजवादी पार्टी का गठन वर्ष 1989 में किया। फिर कशीराम के साथ उनका गठबंधन 1992 मनें बाबरी मस्जिद विध्वंश के बाद हुआ परन्तु वह भी मात्र डेढ़ वर्षों में ढेर हो गया।
उसके बाद बेनी प्रसाद वर्मा व मुलायम सिंह के रिश्तों में खटास समाजवादी पार्टी में अमर सिंह की आमद के बाद शुरू हुई जो अंत में 2007 के चुनाव से पूर्व बेनी के पार्टी से बागी होने के बाद पूर्णतया कड़वाहट में बदल गयी। बेनी ने अलग अपने दल का गठन समाजवादी क्रांति दल (एस.के.डी) कर के इंडियन जस्टिस पार्टी के साथ समझौता किया और पूरे प्रदेश में चुनाव लड़े परन्तु उन्हें जबरदस्त विफलता हाथ लगी यहाँ तक कि उनके गृह जनपद बाराबंकी में भी उनका सफाया हो गया उनका पुत्र एवं भूतपूर्व राज्य मंत्री राकेश कुमार वर्मा को भी अपने पिता की कर्म भूमि मसौली से शिकस्त खानी पड़ी।
राजनीति में सब कुछ लुटाने के बाद बेनी प्रसाद ने कांग्रेस की डगर पर आ कर विराम किया और कांग्रेस ने उन्हें सम्मान देते हुए गोंडा से न सिर्फ टिकट दिया बल्कि देवीपाटन की लगभग सात सीटों का टिकट उनकी सलाह ले कर दिया। बेनी वर्मा खुद भी जीते और फैजाबाद बहराइच श्रावस्ती, सुल्तानपुर और महाराजगंज पर कांग्रेस को जीत दिलाई बाराबंकी में 1984 के बाद 25 साल के लम्बे अरसे बाद कांग्रेस को सफलता पुनिया की जीत के तौर पर मिली। इसमें कोई शक नहीं कि यदि बेनी की कुर्मी बिरादरी का समर्थन पुनिया को न होता और एक बड़ा बेस वोट बैंक पुनिया के पास न होता तो फिर पुनिया की सफलता की राह आसान न होती।
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की सफलता का डंका भले ही बेनी वर्मा के लोग पीटते फिरें परन्तु कांग्रेस का केन्द्रीय नेतृत्व व प्रदेश कांग्रेस इसे राहुल का करिश्मा मानते हैं और सपा, बसपा व भाजपा से परेशान होकर ऊब चुकी जनता का पुन: कांग्रेस की ओर वापसी मान रहे हैं। उधर बेनी है कि आज भी अपने अड़ियल रवैये पर टिके हैं और उस पार्टी को आँख दिखा रहे हैं जिसके बारे में यह कहा जाता है कि वह राजनीति का महासागर है जिससे अलग होकर सभी दरिया निकले हैं चाहे वह भाजपा हो या समाजवादी, चाहे वह लोकदल हो या डी.ऍम.के , अन्ना डी ऍम.के चाहे वह तृणमूल कांग्रेस हो या राष्ट्रवादी कांग्रेस। यहाँ तक की भारतीय जनसंघ भी कांग्रेस के कोख से पैदा हुई पार्टी है. केवल कम्युनिस्ट पार्टियों को यह गौरव प्राप्त है कि उनका उदय कांग्रेस की कोख से नहीं हुआ।
जहाँ तक कांग्रेस में बेनी वर्मा के भविष्य का प्रश्न है तो वह बहुत उज्जवल नजर नहीं आता क्योंकि बेनी प्रसाद वर्मा की राजनीतिक पृष्टभूमि स्वार्थ की राजनीति और अवसरवादिता की बैसाखी पर टिकी हुई है विचारों के आधार पर कभी भी उनकी समानता कांग्रेसियों से नहीं हो सकती. कांग्रेस ने वर्ष 2007 में यदि बेनी वर्मा के कंधे पर हाथ रखा तो उसका लक्ष्य मुलायम व उनकी पार्टी सपा को कमजोर करना था सो उन्होंने सफलता के साथ वह कारनामा अंजाम दिया। अब चूँकि 2012 का आपरेशन उत्तर प्रदेश का लक्ष्य अभी कांग्रेस को प्राप्त करना है इसलिए बेनी वर्मा के बडबोलेपन को वह बर्दाश्त कर रही है परन्तु अधिक समय तक नहीं।
उधर बेनी वर्मा को भी एस.के.डी के प्रयोग के विफल हो जाने के पश्चात एक राजनीतिक छतरी की आवश्यकता थी सो वह उसके नीचे से आसानी से निकलने वाले नहीं जबतक उन्हें कोई नई छतरी न मिल जाए।

मो॰ तारिक खान

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