सारांश यहाँ आगे पढ़ें के आगे यहाँ
नवगीत
आचार्य संजीव 'सलिल'
हवा में ठंडक
बहुत है...
काँपता है
गात सारा
ठिठुरता
सूरज बिचारा.
ओस-पाला
नाचते हैं-
हौसलों को
आँकते हैं.
युवा में खुंदक
बहुत है...
गर्मजोशी
चुक न पाए,
पग उठा जो
रुक न पाए.
शेष चिंगारी
अभी भी-
ज्वलित अग्यारी
अभी भी.
दुआ दुःख-भंजक
बहुत है...
हवा
बर्फीली-विषैली,
नफरतों के
साथ फैली.
भेद मत के
सह सकें हँस-
एक मन हो
रह सकें हँस.
स्नेह सुख-वर्धक
बहुत है...
चिमनियों का
धुँआ गंदा
सियासत है
स्वार्थ-फंदा.
उठो! जन-गण
को जगाएँ-
सृजन की
डफली बजाएँ.
चुनौती घातक
बहुत है...
नियामक हम
आत्म के हों,
उपासक
परमात्म के हों.
तिमिर में
भास्कर प्रखर हों-
मौन में
वाणी मुखर हों.
साधना ऊष्मक
बहुत है...
divyanarmada.blogspot.com
divynarmada@gmail.com
नवगीत
आचार्य संजीव 'सलिल'
हवा में ठंडक
बहुत है...
काँपता है
गात सारा
ठिठुरता
सूरज बिचारा.
ओस-पाला
नाचते हैं-
हौसलों को
आँकते हैं.
युवा में खुंदक
बहुत है...
गर्मजोशी
चुक न पाए,
पग उठा जो
रुक न पाए.
शेष चिंगारी
अभी भी-
ज्वलित अग्यारी
अभी भी.
दुआ दुःख-भंजक
बहुत है...
हवा
बर्फीली-विषैली,
नफरतों के
साथ फैली.
भेद मत के
सह सकें हँस-
एक मन हो
रह सकें हँस.
स्नेह सुख-वर्धक
बहुत है...
चिमनियों का
धुँआ गंदा
सियासत है
स्वार्थ-फंदा.
उठो! जन-गण
को जगाएँ-
सृजन की
डफली बजाएँ.
चुनौती घातक
बहुत है...
नियामक हम
आत्म के हों,
उपासक
परमात्म के हों.
तिमिर में
भास्कर प्रखर हों-
मौन में
वाणी मुखर हों.
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आपका बहुत - बहुत शुक्रिया जो आप यहाँ आए और अपनी राय दी,हम आपसे आशा करते है की आप आगे भी अपनी राय से हमे अवगत कराते रहेंगे!!
--- संजय सेन सागर