उसमें घुसने का ही हक़ नहीं मुझको,
दरो-दीवार जो मैंने ही बनाई है।
मैं ही सिज़दे के काबिल नहीं उसमें ,
ईंट दर ईंट मस्जिद ,मैंने चिनाई है ।
कितावों के पन्नों में उसी का ज़िक्र नहीं,
पन्नों -पन्नों ढली वो बेनाम स्याही है।
लिख दिए हैं ग्रंथों पे लोगों के नाम ,
अक्षर-अक्षर तो कलम की लिखाई है।
गगन चुम्बी अटारियों पे है सबकी नज़र ,
नींव के पत्थर की सदा किसने सुनाई है।
वो दिल कोई दिल ही नहीं जिसमें ,
भावों की नहीं बज़ती शहनाई है।
इस सूरतो-रंगत का क्या फायदा 'श्याम,
यदि मन में नही पीर ज़माने की समाई है॥
दरो-दीवार जो मैंने ही बनाई है।
मैं ही सिज़दे के काबिल नहीं उसमें ,
ईंट दर ईंट मस्जिद ,मैंने चिनाई है ।
कितावों के पन्नों में उसी का ज़िक्र नहीं,
पन्नों -पन्नों ढली वो बेनाम स्याही है।
लिख दिए हैं ग्रंथों पे लोगों के नाम ,
अक्षर-अक्षर तो कलम की लिखाई है।
गगन चुम्बी अटारियों पे है सबकी नज़र ,
नींव के पत्थर की सदा किसने सुनाई है।
वो दिल कोई दिल ही नहीं जिसमें ,
भावों की नहीं बज़ती शहनाई है।
इस सूरतो-रंगत का क्या फायदा 'श्याम,
यदि मन में नही पीर ज़माने की समाई है॥
श्याम जी बहुत खूब
ReplyDeleteश्याम जी बहुत खूब
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