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वाजपेयी का मुखौटा या संघ का खिलौना


आशुतोष
मैनेजिंग एडिटर ibn7

लिब्रहान कमीशन ने अयोध्या का सच सामने लाने में 17 साल लगाए और इसको लेकर उसकी जी भर के आलोचना की जानी चाहिए। पूरी रिपोर्ट पढ़ने के बाद ये भी लगता है कि कमीशन ने कांग्रेस लीडरशिप को भी जाने अनजाने बचाने की कोशिश की है। वो नरसिंहराव को जिम्मेदारी के बोझ से मुक्त कर देती है लेकिन पूरी रिपोर्ट ने सबसे ज्यादा चौंकाया अटल बिहारी वाजपेयी को अयोध्या मामले में घसीट कर। इस वजह से हिंदूवादियों और कुछ भ्रमित सेकुलरवादियों को मिर्ची लगी हैं। वो इसी आधार पर जस्टिस लिब्रहान की मंशा और विवेक पर प्रश्नचिह्न लगा रहे हैं।
कमीशन बड़े दिलचस्प अंदाज में वाजपेयी को 'स्यूडो-माडरेट' बताती है। यानी वो शख्स जो दिखने में तो उदारवादी है पर हकीकत में उदारवाद का ढोंग कर रहा है, वो 'छद्म -उदारवादी' है। पेज 942, पैरा 166.6 में रिपोर्ट लिखती है 'आडवाणी, वाजपेयी, जोशी को संघ परिवार की साजिश पता न हो ये नही माना जा सकता है। '...पैरा 166.7 'ये नेता संघ परिवार का आदेश न मानने की हिम्मत नहीं सकते थे, विशेषकर आरएसएस का आदेश। ऐसा करने की कीमत थी बीजेपी और सार्वजनिक जीवन से किनारा। आरएसएस पर इनका कोई नियंत्रण नहीं था और जिस दिशा में अयोध्या आंदोलन जा रहा था उसको ये कतई प्रभावित नहीं कर सकते थे। ये सिर्फ आरएसएस के हाथ का खिलौना थे।' पेज 943, पैरा 166.10 'इन छद्म उदारवादियों का काम था आरएसएस के फैसले को जनता में स्वाकार्य बनाना।'
साफ है कमीशन आडवाणी और जोशी के साथ-साथ वाजपेयी को भी माफ नहीं करती है और उन्हें बाबरी मस्जिद ढहाने में बराबर का अपराधी मानती है। आडवाणी और जोशी को तो सभी कट्टर हिंदूवादी मानते हैं और इन दोनों ने इसे कभी छिपाने की कोशिश भी नहीं की लेकिन वाजपेयी ने हमेशा ये जताया कि वो कभी भी अयोध्या आंदोलन के पक्ष में नहीं थे और न ही बाबरी मस्जिद ढहाने को उन्होंने कभी सही माना। ये वाजपेयी का वो चेहरा है जिसे कुछ बीजेपी विरोधी भी संदेह का लाभ दे नेहरूवादी परंपरा में डालने की गुस्ताखी करते हैं। लेकिन ऐसा करने वाले ये भूल जाते हैं कि वाजपेयी दिल और दिमाग दोनो से ही संघी थे और उन्होंने ये कभी भी नहीं छिपाया कि 'वो स्वंयसेवक नही थे'। मुझे याद पड़ता है 1999 में न्यू यॉर्क में प्रधानमंत्री के तौर पर दिया उनका भाषण। उन्होंने कहा था 'वो पहले स्वंयसेवक है।' बाद में जब हंगामा मचा तो प्रधानमंत्री कार्यालय ने सफाई दी।
नेहरू से वाजपेयी की तुलना करने वाले भूल जाते हैं कि नेहरू ने आजादी के बाद गांधी जी की परंपरा को बढ़ाते हुय़े हिंदू-मुस्लिम एकता को अपने जीवन का ध्येय बना लिया था और वो कभी भी वल्लभभाई पटेल और राजेंद्र प्रसाद जैसों के दबाव में इस मसले पर समझौता करने को तैयार नहीं हुये। पटेल से उनके मतभेदों का एक बड़ा कारण था मुस्लिम सवाल पर उनका नजरिया। नेहरू जी हमेशा मानते थे कि आजादी की सजा मुसलमानों को नहीं दी जा सकती और सरकार को आगे बढ़कर ये भरोसा मुसलमानों को देना चाहिये कि उनके साथ किसी भी तरह मतभेद नहीं किया जायेगा। वाजपेयी की ये राय कभी नहीं रही। अगर रही होती तो वो कभी आरएसएस के सदस्य नहीं होते। क्योंकि हेडगेवार की अगुवाई में जिन पांच लोगों ने 1925 में आरएसएस की नींव डाली वो सभी मुस्लिम विरोधी थे और जो संगठन बना उसके विचारधारा के मूल में था मुसलमान विरोध। न यकीन हो तो गुरुजी गोलवलकर के विचार 'बंच आफ थाट' में पड़ लीजिये। भ्रम टूट जायेगा। वाजपेयी या उनके समर्थक ये नहीं कह सकते कि वाजपेयी संघ परिवार की इस बात से सहमत नहीं थे। विचारधारा में विश्वास न होता तो आरएसएस में शामिल न होते और आजीवन कुंवारे न रहते और अगर कभी इस विचारधारा पर आरएसएस के नेताओं से टकराव होता तो संगठन छोड़ देते। उन्होंने ऐसा कभी नहीं किया। बल्कि प्रधानमंत्री रहते उन्होंने 'बाबरी विध्वंस को हिंदू भावना का प्रकटीकरण' बताया था।
फिर गुजरात दंगो पर क्या कहेंगे। तर्क हो सकता है वो मोदी को हटाना चाहते थे लेकिन पार्टी उनके खिलाफ हो गयी। सवाल कई है। दंगे भड़कते ही एक प्रधानमत्री के नाते उन्होंने क्या किया? दंगे होते रहे, लोग मरते रहे और वो देखते रहे। सरकार बर्खास्त क्यों नही की? मुझे याद है जार्ज फर्नांडीज को रक्षा मंत्री के नाते गुजरात भेजा गया था और जार्ज ने आकर रिपोर्ट भी दी थी। क्या तब उन्हें नहीं पता था कि किस तरह से राज्य सरकार का इस्तेमाल किया गया? फौरन क्यों नही गुजरात गये? गये भी तो एक महीने के बाद और सिर्फ ये कहा कि 'राजा को राजधर्म का पालन करना चाहिये।' एक प्रधानमत्री के धर्म का क्या हुया? और अगर दंगे पर आरएसएस और बीजेपी उनकी बात मानने को तैयार नहीं थे तो फिर अंतररात्मा की आवाज सुन पद त्याग क्यों नहीं दिया? पद छोड़ने की बात उन्होंने गुजरात पर नहीं की लेकिन जब खुद उनकी अपनी राजनीति खतरे में पड़ने लगी तो जरूर उन्होंने इस्तीफे की बात की। याद कीजिये 2002 की वो घटना। आरएसएस का उन पर दबाव था कि वो 'राष्ट्रपति' बन जायें और आडवाणी 'प्रधानमंत्री'। जब पानी सिर से ऊपर हो गया तो बोल पड़े 'आडवाणी जी के नेत्तत्व में विजय प्रस्थान'। यानी इस्तीफे की धमकी और पूरा आरएसएस एक मिनट में उनके आगे नतमस्तक। समस्या खत्म। गुजरात दंगो पर यही तरकीब क्यों नही अपनाई? क्योंकि विचारधारा के स्तर पर मोदी और वाजपेयी की सोच एक थी फर्क सिर्फ उस सोच के लागू करने के तरीके पर था।
ढेरों उदाहरण हैं। उड़ीसा मे ग्रेहम स्टेंस को जला कर मारने की घटना हो या फिर दांग मे ईसाईयों के घर और चर्च जलाने का वाकया हर जगह वही रवैया। संघ के कार्यकर्ताओं को बचाने की कोशिश। ऐसे में अगर लिब्रहान कमीशन इस नतीजे पर पहुंचा- 'बाबरी विध्वंस पर इन नेताओं (वाजपेयी ) को संदेह का लाभ देते हुये अपराध से मुक्त नहीं किया जा सकता' तो गलत नहीं किया। दरअसल इस देश के कुछ राजनीति पसंद बुद्धिजीवी विचारधारा और राजनीति का फर्क नहीं समझते। वाजपेयी और आरएसएस की विचारधारा एक है। जो बुद्धिजीवी उन्हें उदारवादी कहते हैं वो दरअसल ये समझते ही नहीं कि विचारधारा अपने स्वरूप में कट्टर या उदार होती है उसको लागू करने का तरीका नहीं। वाजपेयी लोकतंत्र में संघ की विचारधारा के मुखौटे थे गोविंदाचार्य ने गलत नहीं कहा था।






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