आशुतोष
मैनेजिंग एडिटर
सात हिंदुस्तानी का सिपाही और जंजीर का एंग्री यंगमैन जवान हो गया है। नये अंदाज और नये रूप में। उसका नया नाम आरो है। उम्र तेरह साल। बस थोड़ी दिक्तत है। वो दिखने मे बूढ़ा लगता है। बड़ा सिर, सिर पर कोई बाल नहीं, नसें बाहर निकलने को बेकरार, मोटा चश्मा, टूटे-फूटे दांत, आवाज फटी-फटी सी। फिर भी कूल। शरारती, हाजिर जवाब और सबका प्यारा। ये अमिताभ है। नया अमिताभ। यानि बिग बी। सिनेमा का महामानव।
हमारी पीढ़ी जब जवान हो रही थी तो उसने दूसरा ही अमिताभ देखा था। वो अमिताभ जो लंबा था। भारी भरकम आवाज। कानों तक लटकते बाल और व्यवस्था की आंख में दनदनाता हुआ घूंसा। सिस्टम से नाराज और सिस्टम से बदला लेने को व्याकुल। उसकी हर अदा पर पागल होती जनता और सुपर हिट होती एक के बाद एक फिल्में। लेकिन एक गड़ब़ड थी। ये अमिताभ हर फिल्म में एक ही था। पहले की कार्बन कॉपी। जंजीर में भी वही, दीवार में भी वही, त्रिशूल में भी वही। कोई बदलाव नहीं। अमर अकबर अंथनी हो या फिर सुहाग, या मि नटवरलाल या फिर सत्ते पे सत्ता, वही अंदाज। ये अमिताभ सिर्फ अमिताभ था। कभी-कभी लगता था कि कहानी भी वही बस मामूली फेरबदल।
ये वो दौर था जब अमिताभ को ही ध्यान में रख कर फिल्में बनायी जा रही थीं। लोग ये कहते थे कि अमिताभ वन-मैन इंडस्ट्री हैं। एक से ग्यारह तक सिर्फ वही। कहीं कोई बदलाव नहीं, स्क्रिप्ट के लेवल पर कही कोई प्रयोग नहीं। समाज भी रटे रटाये ढर्रे पर ही चल रहा था। कहीं कोई बुनियादी बदलाव नहीं। हालांकि 75 से लेकर 90 के इस समयकाल में राजनीतिक आंदोलन तो कई हुए। चाहे वो इमरजेंसी के खिलाफ सड़कों पर उतरा लोगों का गुस्सा हो या फिर पंजाब समस्या हो या फिर बोफोर्स पर वीपी सिंह के बहाने बगावत का जज्बा। ये सिर्फ सत्ता में बदलाव को कोशिशें भर थीं। और सिनेमा भी इसका अपवाद नहीं था। गुस्सा था। इस गुस्से को आवाज भी देने की कोशिश की गयी लेकिन नया सपना दिखाने का प्रयास नहीं किया गया। जबकि पुराने "रोमांसवाद" का तिलिस्म टूट रहा था। ऐसे में लोगों के गुस्से में "नामर्दी" ज्यादा थी। और अमिताभ इस "नामर्द गुस्से" को पर्दे पर साकार करते ही दिखे।
उनकी कोई भी फिल्म ले लीजिये वो बगावत तो जरूर करते थे लेकिन अंत में कहीं कोई हल नहीं दे पाते थे। हद तो तब हो गयी जब उनका नामर्द गुस्सा उस मुकाम पर पहुंच गया जहां वो "कुली" बन गये, अपने को "मर्द" बताने मे जुटे, "शहंशाह" हो गये या फिर "जादूगर" "अजूबा" । ये इस नामर्द गुस्से की हताशा थी कि "विजय" को अब "सुपर-नेचुरल-पावर" का सहारा लेने पर मजबूर होना पड़ा। जो अमिताभ भगवान से दो दो हाथ करने को तैयार रहता था वही अब हारता दिखा और ये समझ गया कि "नार्मल पावर" से कुछ नहीं होगा। बुनियादी बदलाव नहीं होंगे, चीजें अपने ढर्रे पर ही चलेंगी लिहाजा सुपर नेचुरल ही कुछ कर सकता है। कहीं कोई अवतार होगा, वो रात के अंधेरे में आयेगा या फिर जादूगर बन कुछ करेगा यानि इंसान के बस में नहीं। इस वक्त उसे प्रयोग करना था लेकिन न उसने कुछ किया और न ही समाज ने कोई करवट ली या नया सपना बुना।
ऐसे में ये कहा जा सकता है कि अमिताभ भले ही ऊपर से क्रांतिकारी दिखे हों लेकिन हकीकत में वो अंदर से डरे हुये थे। असफल होने का डर, अपनी जमी जमायी पूंजी को खोने का डर, यथास्थितिवादी इमेज के गुलाम जिसको हर आहट कंपा जाती है। ये स्थिति ज्यादा चलनी नहीं थी क्योंकि समाज 90 के दशक के बाद परिवर्तन की मांग करने लगा था। उसका डीएनए बदल रहा था। मंडल, कमंडल और नये आर्थिक सुधारों की बयार बहने लगी थी। अमिताभ का डर आखिर उसे ही खा गया और वो कुछ समय के लिये फिल्मों से आउट हो गये। और जिस दशक में आमिर, सलमान और शाहरुख नयी इबारत लिख रहे थे उस दशक में अमिताभ को कुछ नहीं सूझ रहा था। बीच में फिर कोशिश की। पुराने ही अंदाज में "छोटे मियां, बड़े मिया" और "मेजर साहब" के रूप में लेकिन कुली और मर्द देखने वाले दर्शक को अब क क क किरन कहने वाला "एडवेंचरस" शाहरूख ज्यादा भा रहा था जो इमेज का मोहताज नहीं और सिर्फ हीरो ही बने रहने की जिद नहीं।
अमिताभ को बदलना होगा, बुढ़ाते अमिताभ को इमेज की गुलामी से निकलना होगा ये वो जान गये थे लेकिन कैसे ये बड़ा सवाल था। अब नामर्द गुस्से के लिये जगह नहीं थी। सो इस छटपटाहट में कौन बनेगा करोड़पति की तो लगा कि इमेज से बाहर आते ही कैसे लोगों ने उन्हें हाथों हाथ ले लिया। फिर क्या था यंग एंग्री मैन, विजय गायब हो गया। चेहरे की झुर्रियों की खूबसूरती को अपनी बेटी से कम उम्र की लड़की पर दिल आ गया। तब्बू की जवानी पर अमिताभ का बुढ़ापा फिदा हो गया। वो पिटने वाला पुलिस अफसर बन गया और महज आंखों से "सरकार" की ताकत दिखा दी। "ब्लैक" का सनकी ट्यूटर हो या फिर "भूतनाथ" का खिजखिजा मटमैला बदबूदार भूत उसने वो रोल किये जो 70 और 80 के दशक में कोई सोच नहीं सकता था। उसे अपने नयेपन की तलाश में शिल्पा शेट्टी की जगह बिग बॉस बनने में भी झिझक नहीं है। इमेज की गुलामी ने उसे आजाद कर दिया।
और अब आरो ने तो सारी सीमाएं ही तोड़ दीं। आरो ने वो सबकुछ खत्म कर दिया जिसे अमिताभ कहा जाता था। न वो दमदार आवाज, ने वो कद, न वो तेजाबी आंखें और न कानों पर लटकते बाल। 67 की उमर में 13 साल के लड़के का रोल। बड़ा जिगरा चाहिये इस रोल को करने के लिये। अमिताभ ने जब पूरी तरह से अपने आपको "डी-कंस्ट्रक्ट" किया तब जाके पैदा हुआ आरो। जो अमिताभ नहीं है, जो नये "कूल" समाज में काफी "कूल" है। ये आरो के बचपन में अमिताभ के जवान होने की कहानी है। ठहराव से आगे मैच्योर होने का कथानक है। अब उसे किसी सलीम-जावेद की जरूरत नहीं है वो अब आजाद है, आजाद है जहां से उनके अमर होने की कहानी शुरू होती है जिसका कोई सानी भारतीय सिनेमा इतिहास में शायद ही होगा। स्टारडम के साथ इतना वैरियेशन कहां मिलेगा और यही तो नये समाज का भी फसाना है वो आरो की तरह बेहद कूल है। अपनी कमियों के बावजूद अपने को "ट्रांसेड" करता हुया नया स्वप्न संसार रचता हुया। अमिताभ होते हुए भी अमिताभ को पार करता हुआ। थैंक यू आरो! इस नये अमिताभ के लिये!
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मैनेजिंग एडिटर
सात हिंदुस्तानी का सिपाही और जंजीर का एंग्री यंगमैन जवान हो गया है। नये अंदाज और नये रूप में। उसका नया नाम आरो है। उम्र तेरह साल। बस थोड़ी दिक्तत है। वो दिखने मे बूढ़ा लगता है। बड़ा सिर, सिर पर कोई बाल नहीं, नसें बाहर निकलने को बेकरार, मोटा चश्मा, टूटे-फूटे दांत, आवाज फटी-फटी सी। फिर भी कूल। शरारती, हाजिर जवाब और सबका प्यारा। ये अमिताभ है। नया अमिताभ। यानि बिग बी। सिनेमा का महामानव।
हमारी पीढ़ी जब जवान हो रही थी तो उसने दूसरा ही अमिताभ देखा था। वो अमिताभ जो लंबा था। भारी भरकम आवाज। कानों तक लटकते बाल और व्यवस्था की आंख में दनदनाता हुआ घूंसा। सिस्टम से नाराज और सिस्टम से बदला लेने को व्याकुल। उसकी हर अदा पर पागल होती जनता और सुपर हिट होती एक के बाद एक फिल्में। लेकिन एक गड़ब़ड थी। ये अमिताभ हर फिल्म में एक ही था। पहले की कार्बन कॉपी। जंजीर में भी वही, दीवार में भी वही, त्रिशूल में भी वही। कोई बदलाव नहीं। अमर अकबर अंथनी हो या फिर सुहाग, या मि नटवरलाल या फिर सत्ते पे सत्ता, वही अंदाज। ये अमिताभ सिर्फ अमिताभ था। कभी-कभी लगता था कि कहानी भी वही बस मामूली फेरबदल।
ये वो दौर था जब अमिताभ को ही ध्यान में रख कर फिल्में बनायी जा रही थीं। लोग ये कहते थे कि अमिताभ वन-मैन इंडस्ट्री हैं। एक से ग्यारह तक सिर्फ वही। कहीं कोई बदलाव नहीं, स्क्रिप्ट के लेवल पर कही कोई प्रयोग नहीं। समाज भी रटे रटाये ढर्रे पर ही चल रहा था। कहीं कोई बुनियादी बदलाव नहीं। हालांकि 75 से लेकर 90 के इस समयकाल में राजनीतिक आंदोलन तो कई हुए। चाहे वो इमरजेंसी के खिलाफ सड़कों पर उतरा लोगों का गुस्सा हो या फिर पंजाब समस्या हो या फिर बोफोर्स पर वीपी सिंह के बहाने बगावत का जज्बा। ये सिर्फ सत्ता में बदलाव को कोशिशें भर थीं। और सिनेमा भी इसका अपवाद नहीं था। गुस्सा था। इस गुस्से को आवाज भी देने की कोशिश की गयी लेकिन नया सपना दिखाने का प्रयास नहीं किया गया। जबकि पुराने "रोमांसवाद" का तिलिस्म टूट रहा था। ऐसे में लोगों के गुस्से में "नामर्दी" ज्यादा थी। और अमिताभ इस "नामर्द गुस्से" को पर्दे पर साकार करते ही दिखे।
उनकी कोई भी फिल्म ले लीजिये वो बगावत तो जरूर करते थे लेकिन अंत में कहीं कोई हल नहीं दे पाते थे। हद तो तब हो गयी जब उनका नामर्द गुस्सा उस मुकाम पर पहुंच गया जहां वो "कुली" बन गये, अपने को "मर्द" बताने मे जुटे, "शहंशाह" हो गये या फिर "जादूगर" "अजूबा" । ये इस नामर्द गुस्से की हताशा थी कि "विजय" को अब "सुपर-नेचुरल-पावर" का सहारा लेने पर मजबूर होना पड़ा। जो अमिताभ भगवान से दो दो हाथ करने को तैयार रहता था वही अब हारता दिखा और ये समझ गया कि "नार्मल पावर" से कुछ नहीं होगा। बुनियादी बदलाव नहीं होंगे, चीजें अपने ढर्रे पर ही चलेंगी लिहाजा सुपर नेचुरल ही कुछ कर सकता है। कहीं कोई अवतार होगा, वो रात के अंधेरे में आयेगा या फिर जादूगर बन कुछ करेगा यानि इंसान के बस में नहीं। इस वक्त उसे प्रयोग करना था लेकिन न उसने कुछ किया और न ही समाज ने कोई करवट ली या नया सपना बुना।
ऐसे में ये कहा जा सकता है कि अमिताभ भले ही ऊपर से क्रांतिकारी दिखे हों लेकिन हकीकत में वो अंदर से डरे हुये थे। असफल होने का डर, अपनी जमी जमायी पूंजी को खोने का डर, यथास्थितिवादी इमेज के गुलाम जिसको हर आहट कंपा जाती है। ये स्थिति ज्यादा चलनी नहीं थी क्योंकि समाज 90 के दशक के बाद परिवर्तन की मांग करने लगा था। उसका डीएनए बदल रहा था। मंडल, कमंडल और नये आर्थिक सुधारों की बयार बहने लगी थी। अमिताभ का डर आखिर उसे ही खा गया और वो कुछ समय के लिये फिल्मों से आउट हो गये। और जिस दशक में आमिर, सलमान और शाहरुख नयी इबारत लिख रहे थे उस दशक में अमिताभ को कुछ नहीं सूझ रहा था। बीच में फिर कोशिश की। पुराने ही अंदाज में "छोटे मियां, बड़े मिया" और "मेजर साहब" के रूप में लेकिन कुली और मर्द देखने वाले दर्शक को अब क क क किरन कहने वाला "एडवेंचरस" शाहरूख ज्यादा भा रहा था जो इमेज का मोहताज नहीं और सिर्फ हीरो ही बने रहने की जिद नहीं।
अमिताभ को बदलना होगा, बुढ़ाते अमिताभ को इमेज की गुलामी से निकलना होगा ये वो जान गये थे लेकिन कैसे ये बड़ा सवाल था। अब नामर्द गुस्से के लिये जगह नहीं थी। सो इस छटपटाहट में कौन बनेगा करोड़पति की तो लगा कि इमेज से बाहर आते ही कैसे लोगों ने उन्हें हाथों हाथ ले लिया। फिर क्या था यंग एंग्री मैन, विजय गायब हो गया। चेहरे की झुर्रियों की खूबसूरती को अपनी बेटी से कम उम्र की लड़की पर दिल आ गया। तब्बू की जवानी पर अमिताभ का बुढ़ापा फिदा हो गया। वो पिटने वाला पुलिस अफसर बन गया और महज आंखों से "सरकार" की ताकत दिखा दी। "ब्लैक" का सनकी ट्यूटर हो या फिर "भूतनाथ" का खिजखिजा मटमैला बदबूदार भूत उसने वो रोल किये जो 70 और 80 के दशक में कोई सोच नहीं सकता था। उसे अपने नयेपन की तलाश में शिल्पा शेट्टी की जगह बिग बॉस बनने में भी झिझक नहीं है। इमेज की गुलामी ने उसे आजाद कर दिया।
और अब आरो ने तो सारी सीमाएं ही तोड़ दीं। आरो ने वो सबकुछ खत्म कर दिया जिसे अमिताभ कहा जाता था। न वो दमदार आवाज, ने वो कद, न वो तेजाबी आंखें और न कानों पर लटकते बाल। 67 की उमर में 13 साल के लड़के का रोल। बड़ा जिगरा चाहिये इस रोल को करने के लिये। अमिताभ ने जब पूरी तरह से अपने आपको "डी-कंस्ट्रक्ट" किया तब जाके पैदा हुआ आरो। जो अमिताभ नहीं है, जो नये "कूल" समाज में काफी "कूल" है। ये आरो के बचपन में अमिताभ के जवान होने की कहानी है। ठहराव से आगे मैच्योर होने का कथानक है। अब उसे किसी सलीम-जावेद की जरूरत नहीं है वो अब आजाद है, आजाद है जहां से उनके अमर होने की कहानी शुरू होती है जिसका कोई सानी भारतीय सिनेमा इतिहास में शायद ही होगा। स्टारडम के साथ इतना वैरियेशन कहां मिलेगा और यही तो नये समाज का भी फसाना है वो आरो की तरह बेहद कूल है। अपनी कमियों के बावजूद अपने को "ट्रांसेड" करता हुया नया स्वप्न संसार रचता हुया। अमिताभ होते हुए भी अमिताभ को पार करता हुआ। थैंक यू आरो! इस नये अमिताभ के लिये!
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आपका बहुत - बहुत शुक्रिया जो आप यहाँ आए और अपनी राय दी,हम आपसे आशा करते है की आप आगे भी अपनी राय से हमे अवगत कराते रहेंगे!!
--- संजय सेन सागर