जागो पत्रकारो : कोलकाता में एक राजनीतिक पार्टी द्वारा महिला पत्रकारों के साथ बदसलूकी की घटना सबके सामने एक सवाल खड़ा करती है... क्या बंगाल में पत्रकारिता संभव है? महिला पत्रकारों पर हमले के बाद भी कोलकाता की मीडिया के अंदर किसी तरह का तीव्र गुस्सा या आक्रामकता दिखने को नहीं मिला. पत्रकार अब पार्टीलाइन में बंट चुके हैं. यह पत्रकारिकता के लिए खतरनाक है. मीडिया ही अगर बंट जाये तो पत्रकारिकता कहां संभव है! इस बार तृणमूल कांग्रेस आम चुनाव में भारी मतों से जीती और 20 सांसदों को लोकसभा में ले जाने में कामयाब रही. इसके बाद से ही ममता बनर्जी का नारा है कि बंगाल में परिवर्तन हो. वो इसमें कामयाब हो भी रही हैं. वामपंथियों के 32 सालों से ज्यादा के राज के बाद ममता के परिवर्तन की हवा में आज पत्रकार भटक गए हैं. या फिर पावर और पोजीशन की भूख पत्रकारों को काम करने से रोक रही है.
अक्टूबर 13 को '24 घंटा' चैनल की रिपोर्टर सोमा दास के साथ बदसलूकी और रेल मंत्री का सोमा पर हत्या का साजिश रचने का आरोप...और उसके बाद थाने में 4 घंटे तक पूछताछ...और फिर दूसरे दिन यानी 14 अकटूबर को कोमोलिका और प्रज्ञा को रेल मंत्री ममता बनर्जी के प्रेस कांफ्रेंस से बाहर कर देने की घटना. यह सब कुछ सही मायने में पत्रकार के राइट टू एक्सप्रेसन के हक को दबाना था. लेकिन किसी और चैनल या फिर समाचार पत्रों ने इसका खुल कर विरोध नहीं किया. सोमा, कोमोलिका और प्रज्ञा के पास दिन भर फोन आये कि "तुम्हारे साथ जो कुछ हुआ वो अच्छा नहीं हुआ" लेकिन किसी ने इसका खुलकर विरोध नहीं किया...
यहां तक कि कोलकाता प्रेस क्लब में ये सहमति बनते-बनते रह गई कि हम इस घटना का विरोध करेंगे... भले ही '24 घंटा' चैनल का झुकाव वामपंथ की ओर है लेकिन इसका ये मतलब तो नहीं कि एक पत्रकार जो किसी भी संस्था का कर्मचारी है, उसके साथ बदसलूकी हो। अन्य पत्रकार जो उसी पेशे से जुड़े हैं, वो मदद के लिए सामने नहीं आए. इसी तरह अगर सब कुछ चलता रहा है तो राजनीतिक पार्टियां पत्रकारों को आपस में भिड़ाने में कामयाब हो जायेंगी. ऐसे में क्या खाक होगी पत्रकारिता? गणतंत्र में मीडिया का फिर कोई मतलब नहीं रह जाएगा. राजनीतिक पार्टियों के शिकार होने की इस तरह की भयावह घटनाएं और न बढ़े, इसके लिए पत्रकारों को सामने आने की जरूरत है और एकजुट होकर अपने समुदाय के लोगों के हक के लिए अवाज उठाने की जरूरत है. अगर हम लोग भी पार्टी लाइन में बंटे रहे तो फिर अपने कर्तव्य का निर्वाह किस तरह कर पाएंगे.
द्वारा -कुंवर समीर शाही
अक्टूबर 13 को '24 घंटा' चैनल की रिपोर्टर सोमा दास के साथ बदसलूकी और रेल मंत्री का सोमा पर हत्या का साजिश रचने का आरोप...और उसके बाद थाने में 4 घंटे तक पूछताछ...और फिर दूसरे दिन यानी 14 अकटूबर को कोमोलिका और प्रज्ञा को रेल मंत्री ममता बनर्जी के प्रेस कांफ्रेंस से बाहर कर देने की घटना. यह सब कुछ सही मायने में पत्रकार के राइट टू एक्सप्रेसन के हक को दबाना था. लेकिन किसी और चैनल या फिर समाचार पत्रों ने इसका खुल कर विरोध नहीं किया. सोमा, कोमोलिका और प्रज्ञा के पास दिन भर फोन आये कि "तुम्हारे साथ जो कुछ हुआ वो अच्छा नहीं हुआ" लेकिन किसी ने इसका खुलकर विरोध नहीं किया...
यहां तक कि कोलकाता प्रेस क्लब में ये सहमति बनते-बनते रह गई कि हम इस घटना का विरोध करेंगे... भले ही '24 घंटा' चैनल का झुकाव वामपंथ की ओर है लेकिन इसका ये मतलब तो नहीं कि एक पत्रकार जो किसी भी संस्था का कर्मचारी है, उसके साथ बदसलूकी हो। अन्य पत्रकार जो उसी पेशे से जुड़े हैं, वो मदद के लिए सामने नहीं आए. इसी तरह अगर सब कुछ चलता रहा है तो राजनीतिक पार्टियां पत्रकारों को आपस में भिड़ाने में कामयाब हो जायेंगी. ऐसे में क्या खाक होगी पत्रकारिता? गणतंत्र में मीडिया का फिर कोई मतलब नहीं रह जाएगा. राजनीतिक पार्टियों के शिकार होने की इस तरह की भयावह घटनाएं और न बढ़े, इसके लिए पत्रकारों को सामने आने की जरूरत है और एकजुट होकर अपने समुदाय के लोगों के हक के लिए अवाज उठाने की जरूरत है. अगर हम लोग भी पार्टी लाइन में बंटे रहे तो फिर अपने कर्तव्य का निर्वाह किस तरह कर पाएंगे.
द्वारा -कुंवर समीर शाही
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आपका बहुत - बहुत शुक्रिया जो आप यहाँ आए और अपनी राय दी,हम आपसे आशा करते है की आप आगे भी अपनी राय से हमे अवगत कराते रहेंगे!!
--- संजय सेन सागर