इस संसार में सर्वाधिक प्रेम, स्वप्न, विवाद और फैंटेसी जिस चीज के इर्द-गिर्द घूमते हैं, वह है धन। धन सुख है, आराम है, धन खुशियों की राह खोलता है। धन बहुत कुछ है, लेकिन धन सबकुछ नहीं है। वह एक राह है, मंजिल नहीं, लेकिन राह भी कम महत्वपूर्ण नहीं होती।
हमारे देश में पैसे को लेकर दो तरह के दृष्टिकोण नजर आते हैं। हम धन को बुरा भी कहते हैं और उसी धन की मन ही मन कामना भी करते हैं। एक तरफ तो वे हैं, जिनके पास अथाह धन है और वे निरंतर उस धन को दुगुना और तिगुना करने को लेकर चिंतित रहते हैं, लेकिन वे अपनी संपत्ति दूसरों के साथ बांटना नहीं चाहते। इसी के परिणामस्वरूप समाज में धन को लेकर एक दूसरा दर्शन विकसित होता है, जो एक खास वर्ग को यह सिखाता है कि संतोषी सदा सुखी यानी संतुष्टि में ही जीवन का सबसे बड़ा सुख है।
आपके पास धन नहीं है, संतोष करिए। अभाव है, संतोष करिए। एक व्यक्ति दोनों हाथों से दुनिया का सारा धन बटोरता जाता है और दूसरों को उपदेश देता है कि संतोष करो। इसी के साथ पूर्वजन्म और कर्मफल का दर्शन विकसित होता है। कोई भिखारी है तो यह उसके पूर्वजन्म के कर्मो का फल है। वे कहते हैं, धन की कामना ही बुरी है, अत: संतोष करो। लेकिन ऐसा बोल या कह देने मात्र से तो संतोष परम सुख नहीं हो जाता है।
छोटे शहर के जिस मध्यमवर्गीय परिवार में मेरा पालन-पोषण हुआ है, वहां भी ऐसी ही सोच अस्तित्वमान थी। पैसे को लेकर हमेशा एक दोहरी किस्म की सोच और व्यवहार होता था। एक ओर तो धन को बहुत बुरा माना जाता मानो वही संसार की सारी बुराइयों की जड़ है, लेकिन वहीं दूसरी ओर धन हर रिश्ते, हर सुख-दुख की बुनियाद में होता था। हम मुंह से तो पैसे को बुरा बोलते थे, लेकिन मन ही मन हमेशा सिर्फ पैसे की ही कामना करते थे। परिवारों में हर छोटी-छोटी चीज, रस्मो-रिवाज, शादी-ब्याह, रिश्ते-नाते, सब की शुरुआत पैसे से होती थी। उसे लेकर झगड़े भी हो जाते। प्रकट में तो यह सब होता नजर आता है, लेकिन इसी के साथ एक विचार अप्रकट रूप से चलता रहता है कि हम तो पैसे के पीछे नहीं भागते।
विचित्र विडंबना है यह। हमेशा दो चेहरे हैं, दो रूप और दोनों के बीच बहुत गहरा अंतर्विरोध है। इस अंतर्विरोध को समझने के लिए अपने भीतर वैचारिक स्पष्टता बहुत जरूरी है। धन तो हमें चाहिए ही। धन बहुत जरूरी और बुनियादी चीजों में से एक है। धन के बगैर जीवन की गाड़ी नहीं चल सकती। लेकिन धन के प्रति दीवानगी भी ठीक नहीं। धन कमाना चाहिए, लेकिन उसके प्रति संयम बरतना भी आना चाहिए। धन के बगैर कोई काम करने का क्या अर्थ है? जिस काम में धन नहीं होता, उसे करने के लिए लोग प्रेरित नहीं होते। कोई लेखक नहीं बनना चाहता क्योंकि उस काम से धन नहीं मिलता। अच्छी डॉक्यूमेंट्री फिल्मों का इतना अभाव क्यों है? क्योंकि उस काम में धन नहीं है। पैसे के बगैर जीवन चल सकता है क्या? क्या दरिद्रता कोई बहुत महान और पूजनीय चीज है और धन निंदनीय है?
नहीं, यह दोनों ही विचार दो चरम हैं और दोनों ही सही निष्कर्षो तक नहीं लेकर जाते। धन जरूरी है, लेकिन अपनी नैतिकता और विवेक से वह सीमा रेखा हमें ही खींचनी होगी, जिसके उस पार नहीं जाना है। धन हो, लेकिन धन की बर्बादी या उसका अतिशय दिखावा न हो। धन जहां उस हद से गुजर जाए कि वह अश्लील रूप धारण कर ले तो यह चिंता की बात है। यह व्यथित करने वाली बात है और ऐसा होने पर भी कोई व्यथित न हो तो यह और भी ज्यादा चिंतनीय और निंदनीय है।
पैसे को हर बुराई की जड़ बताने वाले दर्शन को यह नहीं भूलना चाहिए कि दरिद्रता दुनिया के तमाम दुखों और बुराइयों की जड़ है। दरिद्रता में ईश्वर का वास नहीं होता। वहां अशिक्षा, अपराध, कुंठाओं और बीमारियों का वास होता है। गरीबी आपको न्यूनतम मनुष्य भी नहीं रहने देती, लेकिन धन का अतिशय अश्लील रूप भी मनुष्य नहीं रहने देता। इसलिए बुद्ध के मध्यम मार्ग की आवश्यकता है और एक ऐसी व्यवस्था की, जिसमें कुछ नियम, संयम और अनुशासन हो। जो ऐसे मनुष्य पैदा करे, जो न दरिद्र हों और न धन को लेकर बौराए हुए पशु हों।
हम एक ऐसी व्यवस्था बनाएं, जिसमें ऊपर से लेकर नीचे तक सबको समान रूप से शिक्षा और धन कमाने का मौका मिले। शेरवुड और दो रुपए फीस वाले सरकारी स्कूलों के दो चरम छोर न हों। सभी बच्चों को समान रूप से शिक्षा ग्रहण करने का मौका मिले। कहने का आशय यह है कि हम सबको एक सी तलवार तो थमाएं। फिर अगर कोई अपनी प्रतिभा और श्रम से उस तलवार का अनूठा इस्तेमाल करे तो यह उसकी योग्यता होगी। लेकिन हमने सबको कम से कम एक सा मौका तो दिया था। तभी अपने श्रम से कमाए अतिरिक्त धन के बचाव में कोई तर्क देने का हमें नैतिक अधिकार होगा। अभी तो यह समाज दिखावे और संतोष के दो चरम दर्शनों का नुमाइंदा बना हुआ है।
विदेशों में लोग धन कमाते हैं तो उसे उतने ही आराम से खर्च भी करते हैं। उनमें संग्रह की प्रवृत्ति नहीं होती कि भविष्य के लिए और अपनी चार पीढ़ियों के लिए संपत्ति जुटाकर रख लें। हमारे देश में लोगों के पास जरा सा धन आते ही वे उसे बचाने की सोचते हैं। कहीं ऐसा न हो कि हाथ से निकल जाए। विदेशों में लोग धन कमाते हैं तो उसे उतनी ही शिद्दत से खर्च भी करते हैं। जरूरतें पूरी हो जाएं, जीवन सुख और आराम से बीते, उसके बाद बहुत ज्यादा पैसे बचाकर रखने की उन्हें जरूरत नहीं। लेकिन हम इतने असुरक्षित और संग्रही वृत्ति के हैं कि अपनी चार पीढ़ियों के लिए धन जुटाते रहते हैं।
इस मानसिकता से भी निजात पाने की जरूरत है। धन अपने आराम के लिए है। अगर वह यह न दे सके तो बैंक की तिजोरी में पड़ा धन कागज का टुकड़ा भर है। उसका कोई मूल्य नहीं। धन सिर्फ एक माध्यम है, वह लक्ष्य नहीं है। मानसिक शांति, सुख, रचनात्मकता, ज्ञान, नैतिकता और बहुत सारे लोगों का सुख और बराबरी ही लक्ष्य है। हो सकता है अमुक काम के लिए आपको धन मिले, लेकिन उसे ही अपना मकसद बनाकर यह काम करना ठीक नहीं। जिस दिन ऐसा होता जान पड़े, यह खतरे की घंटी है। हमारा उद्देश्य हमेशा पैसे से बड़ा होना चाहिए। हम पैसे का सारा सुख आनंद उठाएं, लेकिन वह आनंद मनुष्य के मन और ज्ञान से जुड़ा हुआ हो। आनंद विलासिता का रूप न धारण कर ले। आनंद और विलास को अलग करने वाली विभाजन रेखा बहुत बारीक होती है। थोड़ी सी चूक से हम भटककर पाले के उस पार जा सकते हैं।
धन संसार की बुराइयों की जड़ नहीं है, लेकिन धन सारे सुखों की अंतिम मंजिल भी नहीं है। वह सिर्फ एक राह है, जो हमें उस मंजिल तक लेकर जाती है, जिसमें ज्यादा संतोष, सुख और बराबरी है।
-लेखक जाने-माने गीतकार हैं।
हमारे देश में पैसे को लेकर दो तरह के दृष्टिकोण नजर आते हैं। हम धन को बुरा भी कहते हैं और उसी धन की मन ही मन कामना भी करते हैं। एक तरफ तो वे हैं, जिनके पास अथाह धन है और वे निरंतर उस धन को दुगुना और तिगुना करने को लेकर चिंतित रहते हैं, लेकिन वे अपनी संपत्ति दूसरों के साथ बांटना नहीं चाहते। इसी के परिणामस्वरूप समाज में धन को लेकर एक दूसरा दर्शन विकसित होता है, जो एक खास वर्ग को यह सिखाता है कि संतोषी सदा सुखी यानी संतुष्टि में ही जीवन का सबसे बड़ा सुख है।
आपके पास धन नहीं है, संतोष करिए। अभाव है, संतोष करिए। एक व्यक्ति दोनों हाथों से दुनिया का सारा धन बटोरता जाता है और दूसरों को उपदेश देता है कि संतोष करो। इसी के साथ पूर्वजन्म और कर्मफल का दर्शन विकसित होता है। कोई भिखारी है तो यह उसके पूर्वजन्म के कर्मो का फल है। वे कहते हैं, धन की कामना ही बुरी है, अत: संतोष करो। लेकिन ऐसा बोल या कह देने मात्र से तो संतोष परम सुख नहीं हो जाता है।
छोटे शहर के जिस मध्यमवर्गीय परिवार में मेरा पालन-पोषण हुआ है, वहां भी ऐसी ही सोच अस्तित्वमान थी। पैसे को लेकर हमेशा एक दोहरी किस्म की सोच और व्यवहार होता था। एक ओर तो धन को बहुत बुरा माना जाता मानो वही संसार की सारी बुराइयों की जड़ है, लेकिन वहीं दूसरी ओर धन हर रिश्ते, हर सुख-दुख की बुनियाद में होता था। हम मुंह से तो पैसे को बुरा बोलते थे, लेकिन मन ही मन हमेशा सिर्फ पैसे की ही कामना करते थे। परिवारों में हर छोटी-छोटी चीज, रस्मो-रिवाज, शादी-ब्याह, रिश्ते-नाते, सब की शुरुआत पैसे से होती थी। उसे लेकर झगड़े भी हो जाते। प्रकट में तो यह सब होता नजर आता है, लेकिन इसी के साथ एक विचार अप्रकट रूप से चलता रहता है कि हम तो पैसे के पीछे नहीं भागते।
विचित्र विडंबना है यह। हमेशा दो चेहरे हैं, दो रूप और दोनों के बीच बहुत गहरा अंतर्विरोध है। इस अंतर्विरोध को समझने के लिए अपने भीतर वैचारिक स्पष्टता बहुत जरूरी है। धन तो हमें चाहिए ही। धन बहुत जरूरी और बुनियादी चीजों में से एक है। धन के बगैर जीवन की गाड़ी नहीं चल सकती। लेकिन धन के प्रति दीवानगी भी ठीक नहीं। धन कमाना चाहिए, लेकिन उसके प्रति संयम बरतना भी आना चाहिए। धन के बगैर कोई काम करने का क्या अर्थ है? जिस काम में धन नहीं होता, उसे करने के लिए लोग प्रेरित नहीं होते। कोई लेखक नहीं बनना चाहता क्योंकि उस काम से धन नहीं मिलता। अच्छी डॉक्यूमेंट्री फिल्मों का इतना अभाव क्यों है? क्योंकि उस काम में धन नहीं है। पैसे के बगैर जीवन चल सकता है क्या? क्या दरिद्रता कोई बहुत महान और पूजनीय चीज है और धन निंदनीय है?
नहीं, यह दोनों ही विचार दो चरम हैं और दोनों ही सही निष्कर्षो तक नहीं लेकर जाते। धन जरूरी है, लेकिन अपनी नैतिकता और विवेक से वह सीमा रेखा हमें ही खींचनी होगी, जिसके उस पार नहीं जाना है। धन हो, लेकिन धन की बर्बादी या उसका अतिशय दिखावा न हो। धन जहां उस हद से गुजर जाए कि वह अश्लील रूप धारण कर ले तो यह चिंता की बात है। यह व्यथित करने वाली बात है और ऐसा होने पर भी कोई व्यथित न हो तो यह और भी ज्यादा चिंतनीय और निंदनीय है।
पैसे को हर बुराई की जड़ बताने वाले दर्शन को यह नहीं भूलना चाहिए कि दरिद्रता दुनिया के तमाम दुखों और बुराइयों की जड़ है। दरिद्रता में ईश्वर का वास नहीं होता। वहां अशिक्षा, अपराध, कुंठाओं और बीमारियों का वास होता है। गरीबी आपको न्यूनतम मनुष्य भी नहीं रहने देती, लेकिन धन का अतिशय अश्लील रूप भी मनुष्य नहीं रहने देता। इसलिए बुद्ध के मध्यम मार्ग की आवश्यकता है और एक ऐसी व्यवस्था की, जिसमें कुछ नियम, संयम और अनुशासन हो। जो ऐसे मनुष्य पैदा करे, जो न दरिद्र हों और न धन को लेकर बौराए हुए पशु हों।
हम एक ऐसी व्यवस्था बनाएं, जिसमें ऊपर से लेकर नीचे तक सबको समान रूप से शिक्षा और धन कमाने का मौका मिले। शेरवुड और दो रुपए फीस वाले सरकारी स्कूलों के दो चरम छोर न हों। सभी बच्चों को समान रूप से शिक्षा ग्रहण करने का मौका मिले। कहने का आशय यह है कि हम सबको एक सी तलवार तो थमाएं। फिर अगर कोई अपनी प्रतिभा और श्रम से उस तलवार का अनूठा इस्तेमाल करे तो यह उसकी योग्यता होगी। लेकिन हमने सबको कम से कम एक सा मौका तो दिया था। तभी अपने श्रम से कमाए अतिरिक्त धन के बचाव में कोई तर्क देने का हमें नैतिक अधिकार होगा। अभी तो यह समाज दिखावे और संतोष के दो चरम दर्शनों का नुमाइंदा बना हुआ है।
विदेशों में लोग धन कमाते हैं तो उसे उतने ही आराम से खर्च भी करते हैं। उनमें संग्रह की प्रवृत्ति नहीं होती कि भविष्य के लिए और अपनी चार पीढ़ियों के लिए संपत्ति जुटाकर रख लें। हमारे देश में लोगों के पास जरा सा धन आते ही वे उसे बचाने की सोचते हैं। कहीं ऐसा न हो कि हाथ से निकल जाए। विदेशों में लोग धन कमाते हैं तो उसे उतनी ही शिद्दत से खर्च भी करते हैं। जरूरतें पूरी हो जाएं, जीवन सुख और आराम से बीते, उसके बाद बहुत ज्यादा पैसे बचाकर रखने की उन्हें जरूरत नहीं। लेकिन हम इतने असुरक्षित और संग्रही वृत्ति के हैं कि अपनी चार पीढ़ियों के लिए धन जुटाते रहते हैं।
इस मानसिकता से भी निजात पाने की जरूरत है। धन अपने आराम के लिए है। अगर वह यह न दे सके तो बैंक की तिजोरी में पड़ा धन कागज का टुकड़ा भर है। उसका कोई मूल्य नहीं। धन सिर्फ एक माध्यम है, वह लक्ष्य नहीं है। मानसिक शांति, सुख, रचनात्मकता, ज्ञान, नैतिकता और बहुत सारे लोगों का सुख और बराबरी ही लक्ष्य है। हो सकता है अमुक काम के लिए आपको धन मिले, लेकिन उसे ही अपना मकसद बनाकर यह काम करना ठीक नहीं। जिस दिन ऐसा होता जान पड़े, यह खतरे की घंटी है। हमारा उद्देश्य हमेशा पैसे से बड़ा होना चाहिए। हम पैसे का सारा सुख आनंद उठाएं, लेकिन वह आनंद मनुष्य के मन और ज्ञान से जुड़ा हुआ हो। आनंद विलासिता का रूप न धारण कर ले। आनंद और विलास को अलग करने वाली विभाजन रेखा बहुत बारीक होती है। थोड़ी सी चूक से हम भटककर पाले के उस पार जा सकते हैं।
धन संसार की बुराइयों की जड़ नहीं है, लेकिन धन सारे सुखों की अंतिम मंजिल भी नहीं है। वह सिर्फ एक राह है, जो हमें उस मंजिल तक लेकर जाती है, जिसमें ज्यादा संतोष, सुख और बराबरी है।
-लेखक जाने-माने गीतकार हैं।
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कनक-कनक ते सौ गुनौ, मादकता अधिकाइ।
ReplyDeleteउहि खाए बौरात जन, इहिं पाए बौराइ।।
विषय को गहराई में जाकर देखा गया है और इसकी गंभीरता और चिंता को आगे बढ़या गया है।
पैसे को लेकर बहुत बातें की जाती हैं, पर पहली बार उसपर इतनी सिलसिलेवार सोच देखने को मिली।
ReplyDelete( Treasurer-S. T. )