Skip to main content

जब शौच से उपजे सोना

जब कोई युवा पढ़ाई-लिखाई करके शहरों की ओर भागने की बजाय अपनी शिक्षा और नई सोच का उपयोग अपने गाँव, ज़मीन, अपने खेतों में करने लगे तो बदलाव की एक नई कहानी लिखने लगता है, ऐसे युवा यदि सरकार और संस्थाओं से सहयोग पा जाएं तो निश्चित ही क्रान्तिकारी परिवर्तन ला देते हैं। ऐसी ही एक कहानी है ‘जब शौच से उपजे सोना’ की और कहानी के नायक हैं युवा किसान श्याम मोहन त्यागी......

आर के श्रीनिवासन, डाऊनटूअर्थ की रपट
अपने हरे-भरे खेतों की ओर उत्साह और खुशी से इशारा दिखाते हुए श्याम मोहन त्यागी बताते हैं “आसपास के खेतों के मुकाबले मेरी फ़सल ज्यादा अच्छी हुई है, कारण मानव मल-मूत्र की बनी खाद।“ अपने खेतों की ओर देखते हुए उनकी आंखों में चमक है।

श्याम मोहन त्यागी गांव- असलतपुर, वाया भोपुरा मोड़, गाजियाबाद, के निवासी हैं। श्याम ने अपने खेतों में रासायनिक खादों का इस्तेमाल करना सन् 2006 से बन्द कर दिया था। खाद के लिये वह अपने गांव के सार्वजनिक शौचालय से मानव मल-मूत्र इकट्ठा करते हैं। चूंकि यह सार्वजनिक शौचालय "पर्यावरणमित्र शुष्क शौचालय" है, मल-मूत्र ठोस और द्रव रूप में अलग-अलग खुद-ब-खुद मिल जाता है। इसलिये उनको अधिक मेहनत नहीं करनी पड़ती। इस तकनीक को "ईकोसैन" (Ecological Sanitation का छोटा स्वरूप) कहा जाता है।

जब 2005 में दिल्ली स्थित एक गैर सरकारी संगठन "फॉउन्डेशन फॉर डेवलपमेंट रिसर्च एंड एक्शन (फोडरा)" ने ईकोसैन तकनीक वाले शौचालय निर्माण करने की सोची, तो गांव के लोगों को इसे उपयोग के लिये राजी करना एक बेहद कठिन काम था, तभी एक सुशिक्षित युवा किसान श्याम त्यागी आगे आये और उन्होंने इसका भरपूर उपयोग करने की ठान ली, उन्होंने अपने खेत के एक बीघा में यह प्रयोग शुरू किया। हालांकि उनके पिता श्री मूलचन्द त्यागी ने मानव मल से बनने वाले इस खाद के प्रति विरोध जताया, लेकिन पिता की नाराजगी के बावजूद श्याम ने अपने खेत में इसका परीक्षण किया और मूत्र को खाद के रूप में इस्तेमाल भी किया, नतीजा अच्छा मिला और उन्होंने मुश्किल से ही सही लेकिन अपने पिता को भी राजी किया। इस तकनीक की वजह से न तो उन्हें अपनी फ़सल की गुणवत्ता की चिंता करने ज़रूरत थी, न ही महंगे उर्वरकों और खाद के लिये पैसे खर्चने की।

इकोसैन का कमालईकोसैन को अपनाने से पहले श्याम हर साल डाइअमोनियम फ़ॉस्फ़ेट पर 1500 और कीटनाशकों पर 1000 रुपये खर्चते थे। लेकिन अब फसल की गुणवत्ता बरकरार रखने के लिए उन्हें कुछ खर्च नहीं करना पड़ता। श्याम के पिता मूलचन्द त्यागी का कहना है "अब धीरे-धीरे गाँव वालों की सोच में बदलाव आने लगा है, वे भी अपने घरों में ईकोसैन शौचालय की मांग करने लगे हैं, जब मैंने अपने खेतों में फ़सलों की बढ़ोतरी देखी तो मुझे लगा मेरे बेटे ने सही फ़ैसला लिया है। ऐसी तकनीक अपनाकर स्थानीय स्तर पर खाद का उत्पादन होना चाहिये…"।

श्याम के अनुसार "इस तकनीक से प्रत्येक तीन माह में उसे लगभग 500 किलो उत्तम खाद प्राप्त होती है। जिसका उपयोग मिट्टी के उपचार, पानी सोखने की क्षमता में बढोत्तरी और ज़मीन की जैविक शक्ति बढ़ाने में किया जाता है। ज़मीन और मिट्टी रेतीली होने पर भी मैं अपने खेतों में दिन में सिर्फ़ एक बार सिंचाई करता हूं जबकि दूसरों को दो बार सिंचाई करनी पड़ती है। एकत्रित किया हुआ मूत्र पानी के साथ एक : दस (1:10) के अनुपात में मिलाकर खेत में छिड़काव करता हूं, एक हेक्टेयर खेत में 2000 लीटर का छिड़काव पर्याप्त होता है…"। गाँव में बढ़ती माँग को देखते हुए संस्था ने पास के दो स्कूलों में भी इस प्रकार के शौचालय बनवाए हैं।

हालांकि यह सब इतना आसान नहीं था। फोडरा के सीताराम नायक कहते हैं सन् 2002 से हम लगे हुए हैं, सफलता मिली 2005 में। शुरु-शुरु में हमें काफ़ी दिक्कतें हुईं, असलतपुर में हमने ग्रामीणों से बातचीत करके उनकी फ़सलों, उसकी लागत, खाद के उपयोग, आदि के बारे में जानकारी ली। हम सप्ताह में दो बार एक गाँव में जाते थे। अगले चरण में हमने ईकोसैन शौचालय के बारे में उन्हें समझाना प्रारम्भ किया और उन्हें बताया कि इसके ज़रिये वे अपने उर्वरक खर्चों में भारी कमी ला सकते हैं और खेत से पैदावार भी अच्छी होगी। उन्हें मानव मल में मौजूद प्राकृतिक तत्वों, मिट्टी को उर्वरा बनाने के उसके गुणों आदि के बारे में विस्तार से बताया।

असलतपुर के निवासी अब ईकोसैन शौचालय के आदी हो चले हैं। गाँव के लगभग 20% लोग निचली जाति के हैं और वे खेतों में मजदूरी करते हैं। उनमें से एक मजदूर ने बताया कि पहले गाँव के बड़के लोग उन्हें अपने खेतों में शौच करने से मना करते थे, इसलिये उन्हें अपने घर के पास एक खुला गढ्ढा करके निवृत्त होना पड़ता था, जिसकी सफ़ाई के लिये वे मासिक 20-50 रुपये खर्च करते थे, ओर अपमानजनक भी था। लेकिन जब से यह सार्वजनिक शौचालय बना है उन्हें काफ़ी सुविधा हो गई है। 12वीं कक्षा के छात्र तेजवीर ने बताया कि इस शौचालय में पानी का उपयोग कम से कम करने की बन्दिश की वजह से थोड़ी मुश्किल तो होती है, लेकिन परम्परागत सार्वजनिक शौचालयों की तरह इसमें बदबू कम आती है, क्योंकि टैंक में पानी अथवा मूत्र नहीं होने की वजह से मल जल्दी ही सूख जाता है। ईकोसैन पर इंडिया वाटर पोर्टल से जुड़े ईकोसैन विशेषज्ञ विश्वनाथन का कहना है कि ईकोसैन शौचालय की खुशबू आगे बढ़ाने की जरूरत है, इससे कस्बों और गांवो की तस्वीर बदली जा सकती है। अधिकतर बड़े किसानों ने इस तकनीक के प्रति रुचि तो दिखाई लेकिन मानव मल एकत्रित करने के बारे में सोचकर वे नानुकुर करते रहे। संस्था ने बड़े किसानों का एक समूह बनाया और वर्कशॉप आयोजित करवाईं जिसमें स्वीडन से कुछ विशेषज्ञों को इस तकनीक को समझाने के लिये भी बुलवाया गया। विशेषज्ञों ने विभिन्न तरह के शौचालय के डिज़ाइन और सीमेंट, लोहे सहित अन्य निर्माण तकनीक को आजमाया, लेकिन अन्ततः सिरेमिक के विशेष डिजाइन वाले शौचालय सीट को अन्तिम रूप दिया गया, जिसमें ठोस तथा द्रव दोनों अलग-अलग एकत्रित होते हैं और ये साफ़ करने में भी सुविधाजनक हैं। असलतपुर के सामुहिक शौचालय का निर्माण मात्र 18,000 रुपये में हो गया था, पर इस शौचालय का उपयोग करना ही तो पर्याप्त नहीं था, ग्रामीणों को इसका सही-सही उपयोग करना भी सिखाना आवश्यक था। शुरुआत में लोग इस शुष्क शौचालय में भी अपनी आदत के मुताबिक ढेर सारा पानी डाल देते थे, इस वजह से उस गढ्ढे में मल के डीहाइड्रेशन में काफ़ी समय लगता था। उन्हें समझाया गया कि यह शौचालय परम्परागत भारतीय शौचालय अथवा अंग्रेजी टॉयलेट जैसा नहीं है, बल्कि यह एक शुष्क शौचालय है, इसमें अधिकतम आधा लीटर ही पानी का उपयोग करें, तथा हाथ-पैर धोने के लिये अलग से जो स्थान बना है उसका उपयोग करना चाहिये। त्यागी ने बताया कि यह अतिरिक्त पानी भी सीधे एक पाइप के जरिये खेतों में भेज दिया जाता है। ठोस रूप में मानव मल एक अलग टैंक में, तथा द्रवरूपी मूत्र एक दूसरे टैंक में एकत्रित किया जाता है, इस प्रकार तीनों को अलग-अलग रखा जाता है।

असलतपुर के निवासी अब ईकोसैन शौचालय के आदी हो चले हैं। गाँव के लगभग 20% लोग निचली जाति के हैं और वे खेतों में मजदूरी करते हैं। उनमें से एक मजदूर ने बताया कि पहले गाँव के बड़के लोग उन्हें अपने खेतों में शौच करने से मना करते थे, इसलिये उन्हें अपने घर के पास एक खुला गढ्ढा करके निवृत्त होना पड़ता था, जिसकी सफ़ाई के लिये वे मासिक 20-50 रुपये खर्च करते थे, ओर अपमानजनक भी था। लेकिन जब से यह सार्वजनिक शौचालय बना है उन्हें काफ़ी सुविधा हो गई है। 12वीं कक्षा के छात्र तेजवीर ने बताया कि इस शौचालय में पानी का उपयोग कम से कम करने की बन्दिश की वजह से थोड़ी मुश्किल तो होती है, लेकिन परम्परागत सार्वजनिक शौचालयों की तरह इसमें बदबू कम आती है, क्योंकि टैंक में पानी अथवा मूत्र नहीं होने की वजह से मल जल्दी ही सूख जाता है। ईकोसैन पर इंडिया वाटर पोर्टल से जुड़े ईकोसैन विशेषज्ञ विश्वनाथन का कहना है कि ईकोसैन शौचालय की खुशबू आगे बढ़ाने की जरूरत है, इससे कस्बों और गांवो की तस्वीर बदली जा सकती है।

बहरहाल आईये देखें, कि प्रकृति ने हमें (यानी मानव शरीर रूपी) कितनी "सब्सिडी" पहले से दे रखी है, एक अध्ययन के मुताबिक प्रत्येक व्यक्ति अपने मल-मूत्र के जरिये 4.56 किलो नाईट्रोजन (N), 0.55 किलो फ़ॉस्फ़ोरस (P) तथा 1.28 किलो पोटेशियम (K) प्रतिवर्ष उत्पन्न करता है। यह मात्रा 200 X 400 मीटर के एक भूमि के टुकड़े को उपजाऊ बनाने के लिये पर्याप्त है। इसका दूसरा अर्थ यह भी है कि भारत की एक अरब से ज्यादा आबादी, कुल मिलाकर साठ लाख टन का NPK निर्माण कर सकती है, जो कि भारत की कुल उर्वरक खपत का एक तिहाई होता है…। ग्रामीण कृषि क्षेत्रों में इस प्रकार के "इकोसैन शौचालय" की संख्या में बढ़ोतरी की जानी चाहिये, ताकि देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले उर्वरक सबसिडी के बोझ को कम किया जा सके…

आगे पढ़ें के आगे यहाँ

Comments

  1. इस स्टोरी के साथ यदि आप यह भी बताते कि स्टोरी कहां से ली है तो बहुत अच्छा लगता। hindi.indiawaterportal.org

    ReplyDelete

Post a Comment

आपका बहुत - बहुत शुक्रिया जो आप यहाँ आए और अपनी राय दी,हम आपसे आशा करते है की आप आगे भी अपनी राय से हमे अवगत कराते रहेंगे!!
--- संजय सेन सागर

Popular posts from this blog

हाथी धूल क्यो उडाती है?

केहि कारण पान फुलात नही॥? केहि कारण पीपल डोलत पाती॥? केहि कारण गुलर गुप्त फूले ॥? केहि कारण धूल उडावत हाथी॥? मुनि श्राप से पान फुलात नही॥ मुनि वास से पीपल डोलत पाती॥ धन लोभ से गुलर गुप्त फूले ॥ हरी के पग को है ढुधत हाथी..

खुशवंत सिंह की अतृप्त यौन फड़फड़ाहट

अतुल अग्रवाल 'वॉयस ऑफ इंडिया' न्यूज़ चैनल में सीनियर एंकर और 'वीओआई राजस्थान' के हैड हैं। इसके पहले आईबीएन7, ज़ी न्यूज़, डीडी न्यूज़ और न्यूज़24 में काम कर चुके हैं। अतुल अग्रवाल जी का यह लेख समस्त हिन्दुस्तान का दर्द के लेखकों और पाठकों को पढना चाहिए क्योंकि अतुल जी का लेखन बेहद सटीक और समाज की हित की बात करने वाला है तो हम आपके सामने अतुल जी का यह लेख प्रकाशित कर रहे है आशा है आपको पसंद आएगा,इस लेख पर अपनी राय अवश्य भेजें:- 18 अप्रैल के हिन्दुस्तान में खुशवंत सिंह साहब का लेख छपा था। खुशवंत सिंह ने चार हिंदू महिलाओं उमा भारती, ऋतम्भरा, प्रज्ञा ठाकुर और मायाबेन कोडनानी पर गैर-मर्यादित टिप्पणी की थी। फरमाया था कि ये चारों ही महिलाएं ज़हर उगलती हैं लेकिन अगर ये महिलाएं संभोग से संतुष्टि प्राप्त कर लेतीं तो इनका ज़हर कहीं और से निकल जाता। चूंकि इन महिलाओं ने संभोग करने के दौरान और बाद मिलने वाली संतुष्टि का सुख नहीं लिया है इसीलिए ये इतनी ज़हरीली हैं। वो आगे लिखते हैं कि मालेगांव बम-धमाके और हिंदू आतंकवाद के आरोप में जेल में बंद प्रज्ञा सिंह खूबसूरत जवान औरत हैं, मीराबा

Special Offers Newsletter

The Simple Golf Swing Get Your Hands On The "Simple Golf Swing" Training That Has Helped Thousands Of Golfers Improve Their Game–FREE! Get access to the Setup Chapter from the Golf Instruction System that has helped thousands of golfers drop strokes off their handicap. Read More .... Free Numerology Mini-Reading See Why The Shocking Truth In Your Numerology Chart Cannot Tell A Lie Read More .... Free 'Stop Divorce' Course Here you'll learn what to do if the love is gone, the 25 relationship killers and how to avoid letting them poison your relationship, and the double 'D's - discover what these are and how they can eat away at your marriage Read More .... How to get pregnant naturally I Thought I Was Infertile But Contrary To My Doctor's Prediction, I Got Pregnant Twice and Naturally Gave Birth To My Beautiful Healthy Children At Age 43, After Years of "Trying". You Can Too! Here's How Read More .... Professionally