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शिकारी ..............



यहाँ की जान पहचान अब बेमानी सी लगती है ..
सोचे भी तो क्या सोचे..और क्यों सोचे
कोई किसी को कुछ नहीं देता
बस हर कोई छिनता ..है यहाँ
किसी की बाते..किसी की मर्यादा
और किसी का स्वाभिमान ...
फंसा के अपनी बातो के जाल में
आकर्षण जगाता है ..
कर के मीठी मीठी बाते ..वो हमहे अपना बनता है
ऐसे जैसे कोई शातिर चिड़ी मार....
डाल के दाना अपनी बातो का
जाल में चिड़ी फंसता है .....
किसी बुझे दिल में आस का दीप जलाता है
और .......फिर
छोड़ हमहे वो किसी
नए शिकार की खोज में निकल जाता है ...
चतुर शिकारी.....अपना जाल कहीं और जा कर
फैलता है .....
नया दिन ...नया शिकार ....
बस है बातो का ये माया जाल
वो चिड़ी मार ..वो चिड़ी मार....
(...कृति...अंजु...(अनु)

Comments

  1. गलती फ़ंसने वाले की होती है, चिडीमार का अपना धर्म है, अपना धंधा,कर्म व अपना कर्म-भोग--फ़ंसने वाला अपने लालच वश फ़ंसता है। सारा धर्म-दर्शन -ग्यान इसी लालच में , माया में न फ़ंसने पर ही आधारित है।
    कविता के भाव अच्छे हैं, शिल्प की कमी है, सुधार की आवश्यकता है।

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  2. gaharaee liya hai ye rachana aaj ka darpan hai ye........

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आपका बहुत - बहुत शुक्रिया जो आप यहाँ आए और अपनी राय दी,हम आपसे आशा करते है की आप आगे भी अपनी राय से हमे अवगत कराते रहेंगे!!
--- संजय सेन सागर

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