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लो क सं घ र्ष !: चिर मौन हो गई भाषा...


द्वयता से क्षिति का रज कण ,
अभिशप्त ग्रहण दिनकर सा
कोरे षृष्टों पर कालिख ,
ज्यों अंकित कलंक हिमकर सा

सम्पूर्ण शून्य को विषमय,
करता है अहम् मनुज का
दर्शन सतरंगी कुण्ठित,
निष्पादन भाव दनुज का


सरिता आँचल में झरने,
अम्बुधि संगम लघु आशा
जीवन, जीवन- घन संचित,
चिर मौन हो गई भाषा

-डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल 'राही'

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ग़ज़ल

गज़ब का हुस्नो शबाब देखा ज़मीन पर माहताब देखा खिजां रसीदा चमन में अक्सर खिला-खिला सा गुलाब देखा किसी के रुख पर परीशान गेसू किसी के रुख पर नकाब देखा वो आए मिलने यकीन कर लूँ की मेरी आँखों ने खवाब देखा न देखू रोजे हिसाब या रब ज़मीन पर जितना अजाब देखा मिलेगा इन्साफ कैसे " अलीम" सदकतों पर नकाब देखा