सरकारी व्यवस्था में भ्रष्टाचार का घुन कुछ इस तरह लग चुका है कि इसे रोकने के सारे उपाय निष्फल होते रहे हैं। भ्रष्टाचार रोकने के लिए गठित केंद्रीय सतर्कता आयोग जैसी शीर्ष संस्थाओं की सिफारिशों को जैसे नजरअंदाज किया जाता रहा है, उससे यह मानने में कोई विवाद
नहीं है कि सरकार ही भ्रष्टाचार रोकने के प्रति गंभीर नहीं है। ऐसे में केंद्रीय कानून मंत्री वीरप्पा मोइली का यह कथन कुछ आशा जगाता है कि केंद्रीय सतर्कता आयुक्त की सिफारिशों को सरकार के लिए बंधनकारी बनाने की जरूरत है तथा प्रधानमंत्री भी इस दिशा में गंभीर हैं।
केंद्रीय सतर्कता आयोग का गठन 1964 में किया गया और 2003 में विशेष कानून बनाकर इसे नया रूप दिया गया। इसी के समानांतर राज्यों में भी लोकायुक्त जैसी संस्थाओं को अस्तित्व में लाया गया। आधी सदी के बाद इन संस्थाओं के कामकाज पर निगाह डालें तो साफ हो जाता है कि भ्रष्टाचार को रोकने में इनकी भूमिका नगण्य रही है। दरअसल इन संस्थाओं को भ्रष्टाचार के मामलों की जांच कर कार्रवाई करने की सिफारिश करने का अधिकार दिया गया है। यह बात उठती रही है कि जब तक ये सिफारिशें सरकार के लिए बंधनकारी नहीं होंगी, तब तक ये संस्थाएं दंतविहीन बनी रहेंगी।
भ्रष्टाचार में लिप्त तंत्र को ही भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई करने के निर्णय लेने का अधिकार देने का अर्थ भ्रष्टाचार को बढ़ावा देना बन गया है। भ्रष्टाचार को खाद-पानी देने में सरकारी नियम प्रक्रियाओं की जटिलताएं, अधिकारियों के विवेकाधीन अधिकार तथा निर्णय लेने व अमल में विलंब जैसी विसंगतियों की पहचान भी साठ के दशक में कर ली गई थी। बावजूद इसके न तो तंत्र की विसंगतियों को दूर किया गया और न भ्रष्टाचार निरोधक संस्थाओं को अधिकारसंपन्न बनाया गया।
ऐसे में यह निष्कर्ष स्वत: ही उभरता है कि सरकारें चाहें किसी दल की हों या सत्ता का नेतृत्व कोई भी करे, भ्रष्टाचार को खत्म करना किसी की प्राथमिकता नहीं रही। इसीलिए समय गुजरने के साथ-साथ भ्रष्टाचार की जड़ें मजबूत होती र्गई। भ्रष्टाचार मिटाने की दुहाई देने वाले सत्ताधारी जब सार्वजनिक रूप से यह स्वीकारने लगते हैं कि इसे खत्म करना संभव नहीं, तो यह उनकी लाचारी नहीं, बल्कि भ्रष्टाचार के पोषण की उनकी इच्छाशक्ति को ही उजागर करता है। अभिशप्त जनता को सरकारें बदलने के लिए विवश होना पड़े, इसके पहले सरकारों का चेत जाना उनके व देश और समाज के लिए श्रेयस्कर होगा।

केंद्रीय सतर्कता आयोग का गठन 1964 में किया गया और 2003 में विशेष कानून बनाकर इसे नया रूप दिया गया। इसी के समानांतर राज्यों में भी लोकायुक्त जैसी संस्थाओं को अस्तित्व में लाया गया। आधी सदी के बाद इन संस्थाओं के कामकाज पर निगाह डालें तो साफ हो जाता है कि भ्रष्टाचार को रोकने में इनकी भूमिका नगण्य रही है। दरअसल इन संस्थाओं को भ्रष्टाचार के मामलों की जांच कर कार्रवाई करने की सिफारिश करने का अधिकार दिया गया है। यह बात उठती रही है कि जब तक ये सिफारिशें सरकार के लिए बंधनकारी नहीं होंगी, तब तक ये संस्थाएं दंतविहीन बनी रहेंगी।
भ्रष्टाचार में लिप्त तंत्र को ही भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई करने के निर्णय लेने का अधिकार देने का अर्थ भ्रष्टाचार को बढ़ावा देना बन गया है। भ्रष्टाचार को खाद-पानी देने में सरकारी नियम प्रक्रियाओं की जटिलताएं, अधिकारियों के विवेकाधीन अधिकार तथा निर्णय लेने व अमल में विलंब जैसी विसंगतियों की पहचान भी साठ के दशक में कर ली गई थी। बावजूद इसके न तो तंत्र की विसंगतियों को दूर किया गया और न भ्रष्टाचार निरोधक संस्थाओं को अधिकारसंपन्न बनाया गया।
ऐसे में यह निष्कर्ष स्वत: ही उभरता है कि सरकारें चाहें किसी दल की हों या सत्ता का नेतृत्व कोई भी करे, भ्रष्टाचार को खत्म करना किसी की प्राथमिकता नहीं रही। इसीलिए समय गुजरने के साथ-साथ भ्रष्टाचार की जड़ें मजबूत होती र्गई। भ्रष्टाचार मिटाने की दुहाई देने वाले सत्ताधारी जब सार्वजनिक रूप से यह स्वीकारने लगते हैं कि इसे खत्म करना संभव नहीं, तो यह उनकी लाचारी नहीं, बल्कि भ्रष्टाचार के पोषण की उनकी इच्छाशक्ति को ही उजागर करता है। अभिशप्त जनता को सरकारें बदलने के लिए विवश होना पड़े, इसके पहले सरकारों का चेत जाना उनके व देश और समाज के लिए श्रेयस्कर होगा।
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आपका बहुत - बहुत शुक्रिया जो आप यहाँ आए और अपनी राय दी,हम आपसे आशा करते है की आप आगे भी अपनी राय से हमे अवगत कराते रहेंगे!!
--- संजय सेन सागर