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लो क सं घ र्ष !: प्रतिरोध के नये क्षेत्र: साहित्य, दलित और मुस्लिम दलित

हिन्दी में दलित-साहित्य का इतिहास साहित्य की जनतांत्रिक परम्परा तथा भाषा के सामाजिक आधार के विस्तार के साथ जुड़ा हुआ है। इसे सामंती व्यवस्था के अवसान, जो निश्चित ही पुरोहितवाद के लिए भी एक झटका साबित हुआ तथा समाज में जनतांत्रिक सोच के उदय, भले ही रूढ़िग्रस्त ही क्यों न हो, के साथ ही प्रजातांत्रिक शासन-व्यवस्था के एक महत्वपूर्ण पड़ाव के रूप में भी देखा जा सकता है। यहाँ हम यह स्वीकार करते चलें कि अन्यायपरक वर्ण-व्यवस्था पर आघात-दर-आघात करने वाला कविता का भक्ति-आंदोलन, ज्योतिबा फुले द्वारा आरम्भ किया गया सामाजिक पुनर्निर्माण का ऐतिहासिक अभियान, वर्ण-व्यवस्था के जुल्म से निजात पाने की इच्छा तथा प्रतिरोधस्वरूप बड़ी संख्या में संभव हुआ धर्मांतरण-जैसी दूरगामी प्रभावों वाली घटनाएँ सामंती व्यवस्था के काल में ही घटित हुई। भारतीय समाज, उसमें भी ज़्यादा अकल्पनीय दमन से त्रस्त दलित वर्ग को महामुक्ति के चिरस्मरणीय दूत के रूप में बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर का मिलना (मुक्ति-पथ पर जिनके कदमों के निशान बहुत गहरे हैं) एक सामंत का ही अवदान है। मानववादी उदारता से उपजी सहानुभूति की यह प्रवृत्ति ही साहित्य में भी दलित-दमन के त्रासद यथार्थ के प्रभावशाली चित्रांकन का आधार बनी। कहना होगा कि इस प्रवृत्ति को प्रौढ़ता आधुनिकताावदी सोच के प्रभाव में ही प्राप्त हो पायी। हिन्दी साहित्य के इतिहास का यह रोचक संयोग है कि सामंतवादी वैचारिकता से संघर्ष करते हुए प्रेमचंद, निराला तथा कुछ दूसरे लोगों में यह प्रवृत्ति विकसित हुई। यही वह काल है, बल्कि थोड़ा पहले, जब प्रसिद्ध शायर इक़बाल के सोच में भी इस प्रवृत्ति ने जगह बनायी। उनकी बहुत मशहूर पंक्ति है:-
‘जो करे इम्तियाजे़ रंग-ओ-खूँ मिट जाएगा’
यानी जो रंग व रक्त के आधार पर पक्षपात करेगा मिट जाएगा। वे आह्वान करते हैं:-
आ ग़ैरियत के पर्दे इक बार फिर उठा दें,
बिछड़ों को फिर मिला दें, नक़्शे दुई मिटा दें।
नज़्म ‘नानक’ में वे दलित यथार्थ की इस तह तक जाते हैं:-
आह! शूद्र के लिए हिन्दुस्तान ग़मख़ाना है
दर्दे इन्सानी से इस बस्ती का दिल बेगाना है
बिरहमन सरशार है अब तक मए-ए-पिंदार में
शम्मे गौतम जल रही है महफ़िले अग़ियार में।
उनका इशारा बौद्ध धर्म के प्रति दलितों में बढ़ते आकर्षण तथा ब्राह्मणों द्वारा उनके तिरस्कार की ओर है।
उन्होंने ब्राह्मणों को पुकारकर कहा कि तुम्हारे बुतक़दे के बुत पुराने हो गये हैं, उन्हें बदल डालो और लोकतंत्र का ज़माना आ रहा है, दलितों का दमन बंद करो।
इससे सहानुभूति को दलित लेखन का प्रमुख निकर्ष मान लेने का तात्पर्य नहीं लेना चाहिए। सच्चे दलित लेखन में स्वानुभूति व सहानुभूति में किसकी भूमिका प्रमुख है यह विवाद अभी समाप्त नहीं हुआ है। वह जारी है। दोनों के पक्षधर अपनी-अपनी जगह डटे हुए हैं। कुछ मानते हैं कि सहानुभूति से दलित जीवन का वास्तविक यथार्थ उभारा जा सकता है, तो दूसरे पक्ष का बल है कि स्वानुभूति के बिना ऐसा संभव नहीं है।
‘‘दलित समाज और सवर्ण समाज के अनुभव अलग ही नहीं, अपितु विपरीत होते हैं। दोनों के अनुभव और जीवन के स्तर का अंतर उनके जीवनबोध और सौंदर्यबोध में भी अंतर ला देता है। यही वह अन्तर है, जो दलित-साहित्य के संदर्भ में ‘स्वानुभूति’ और ‘सहानुभूति’ के प्रश्न को अनिवार्य बनाता है। यद्यपि प्रेमचंद और निराला सरीखे साहित्यकारों के संदर्भ में दावा किया जाता है कि साहित्य-सर्जन के लिए जीवनानुभव ग़ैर जरूरी है।’’ (राजेश कुमार, दलित साहित्य - 2006)
राजेश कुमार ने इसी लेख में डाॅ0 विश्वनाथ त्रिपाठी की कुछ पंक्तियाँ उद्धृत की हैं, जिनमें जीवन-बोध को प्रमुखता दी गयी है:
‘‘बोध हो भी, तो जरूरी नहीं कि निजी अनुभव से बना हो। यह बोध या चेतना ज़्यादा जरूरी चीज़ है। निराला ने ‘विधवा’ पर कविता लिखी। वे खुद तो विधवा नहीं थे। प्रेमचंद ने होरी जैसा किसान गढ़ा। यह सब बोध से पैदा हुआ।’’
वीरेन्द्र यादव ने तो यह घोषणा तक कर डाली कि जिस साहित्य में प्रेमचंद एवं निराला सरीखे दलितों-पीड़ितों के प्रवक्ता एवं पक्षधर रहे हों, वहाँ दलित-साहित्य की पक्षधरता के नाम पर किसी साहिव्योतर प्रेरणा की कोई आवश्यकता नहीं।’’ (उत्तर प्रदेश, दलित विशेषांक)
मुद्राराक्षस सामाजिक न्याय के लिए दोनों तरह की अनुभूतियों की भूमिका को खारिज करते हैं और शिवकुमार मिश्र निराला के ‘चतुरी चमार’ को सहानुभूति व स्वानुभूति दोनों प्रेरणाओं का उदाहरण मान लेने का आग्रह करते हैं। ऐसा आग्रह करते हुए वे यह अनुमान नहीं लगा पाते कि इससे बहुत सारे लोग विचलित हो सकते हैं। दरअसल, भक्तिकाल के लंबे अंतराल के बाद बीसवीं सदी में दलित-यातना के प्रति प्रकट रूप में पहला ध्यान औपनिवेशिक मुक्ति के संघर्ष की तीव्रता के दौर में गया। यानी कि दलित मुक्ति की चिंता दूसरे या तीसरे नंबर पर थी और मुल्क की आज़ादी की चिंता पहले नम्बर पर। इस ओर ध्यान प्रमुख रूप से उन लेखकों का गया, जो तात्कालीन सामाजिक हालात से अपनी संवेदनशीलता या आगे बढ़ी हुई चेतना के कारण गहरे तक असंतुष्ट थे, जिनके पास आधुनिक से प्रभावित निश्चित सामाजिक दृष्टिकोण था। अतः ऐसे लेखकों की कविताओं या कहानियों में चित्रित दलित यथार्थ न तो स्वानुभूति से प्रेरित है और न सहानुभूति से, इसमें मुख्य भूमिका सामाजिक दृष्टिकोण की है। उदार मानवतावादी चेतना का भी कुछ दखल हो सकता है। दलित जीवन अर्थात् अपने अनुभवों को ही रचना में डालते हुए दलित रचनाकार के लिए भी इस दृष्टिकोण का पर्याप्त महत्व है। इसके अभाव में रक्त धधका देने वाले दमन व यातना का बहुत सच्चा अनुभव भी बड़ा रचनात्मक अनुभव नहीं बन सकता। यह सामाजिक चेतना, जो संवेदनशील व्यक्ति को अन्याय के विरूद्ध सक्रिय करती है, यदि दलित रचनाकार के पास नहीं है, तो वह अन्याय व दमन का प्रथम अनुभूति रखने के बावजूद उसी तरह सक्रिय नहीं हो पाएगा न वह उसी दृढ़ता से वैसा स्टैण्ड ले पाएगा जैसा प्रेमचंद ने ‘सद्गति’, ‘ठाकुर का कुआं’, ‘दूध का दाम’ या ‘गोदान’ में, जगदीशचन्द्र ने ‘धरनती धन न अपना’ या ‘नरक कुंड में वास’ में; गोपाल उपाध्याय ने ‘एक टुकड़ा इतिहास’ में, मुद्राराक्षस ने ‘दण्डविधान’ में; मदन दीक्षित ने ‘मोरी की ईंट’ में या शिवमूर्ति ने अपनी लगभग सभी कृतियों में लिया। हम ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘शव यात्रा’, ‘सलाम’; सूरजपाल चैहान की ‘बदबू’; रमणिका गुप्ता की ‘दाग दिया सच’; महेश कुमार केसरी की ‘क़ैद’ कहानियों का उदाहरण ले सकते हैं। ये कहानियाँ कौन-सा स्टैण्ड लेती नज़र आती हैं।
यह तो हो सकता है कि अखिलेश की कहानी ‘ग्रहण की बदबू’ की अपेक्षा सूरजपाल चैहान की कहानी की बदबू ज़्यादा तेज़ और सघन हो और दूर तक पीछा करती हो तथा अखिलेश जिस बदबू में अपनी प्रतिभा के विकास के साक्ष्य देख रहे हों या अपनी पक्षधरता की व्याकुलता, वहीं सूरजपाल चैहान की यह गंध एक समुदाय कि यातना के रूप में सताती हो; परन्तु प्रश्न यही है कि वह इस गंध या इस गंध से पैदा हुई व्यथा से क्या काम लेना चाहते हैं। दलित यथार्थ के चित्रांकन से साहित्य से क्या काम लेना चाहते हैं? दलित यथार्थ के चित्रांकन मंे साहित्य के अनुभव लोक को नये क्षेत्र की सम्पन्नता मिलती है। निश्चय ही यह स्थिति किसी भी भाषा के लिए उल्लेखनीय उपलब्धि हो सकती है। फिर दिल और दिमाग़ छील देने वाली क्रूर यातना के भयानक दृश्य तथा तिरस्कार व अवमानना की वेदनापरक घटनाओं से अश्वेत लेखन विश्व साहित्य का शिलालेख बन पाया तो इसलिए कि उसमें मनुष्यों को ज़िंदा जलाये जाने से उपजी चीत्कार और हाहाकार की आघातकारी ध्वनियाँ अब भी उसी आवेग से सुनी जा सकती हैं। जलते माँस की उबकाई भरी गंध अब भी आपको बेचैन करती है, परन्तु इन्सानों के साथ जानवरों से बदतर सुलूक का वृतांत एवं अपने को सभ्य व सुसंस्कृत होने का दर्प पाले लोगों की पैशाची हरकतों के अचूक साख्य क्या साहित्य की अभिवृद्धि तक सीमित रह जाने चाहिए?
हर क्षण शब्दों में ढ़ल जाने को व्याकुल सादियों की संचित व्यथा का शेष क्या साहित्य की अभिवृद्धि और उसके अनुभव लोक के विस्तार तक ही सीमित रह जाना चाहिए? कुछ लोगों के लिए डाॅक्ट्रेट की डिग्री, कुछ के लिए पुरस्कार, कुछ के लिए शोहरत, कुछ के लिए सामाजिक दृष्टिकोण की व्यापकता का कवच, कुछ के लिए अपने भोगे हुए को बयान कर देने के गौरव या संतोष की अनुभूति, कुछ के लिए जातिवादी आग्रहों के बावजूद उदार मानवतावादी दृष्टिकोण का दंभ, तो कुछ के लिए वैचारिक प्रतिबद्धता के दायित्वों की पूर्ति का साधन बनने की चेतना के प्रसार की कर्मभूमि बनने की चिंता से संलग्न होना चाहिए?
अवश्य ही साहित्य सामाजिक बदलाव को संभव नहीं बनाता लेकिन वह बदलाव की चेतना के अंकुर रोपने की क्षमता अवश्य रखता है। बदलाव में कविता, कहानी या उपन्यास की अपेक्षा वैचारिक लेखन की भूमिका अधिक कारगर होती है। सामाजिक आंदोलन इस भूमिका को निर्णायक मोड़ तक ले जाने की सामथ्र्य रखते हैं। यह उत्साहपूर्ण स्थिति है कि दलित मुक्ति के पक्ष में हिन्दी में वैचारिक लेखन भी खूब हुआ है। अब भी हो रहा है। डाॅ0 भीमराव अम्बेडकर यदि दलित मुक्ति के अग्रदूत बन पाये, तो इस कारण ही कि साहसिक धारदार वैचारिक लेखन तथ कानूनी लड़ाई तक ही सीमित नहीं रहे, बल्कि उन्होंने विराट सामाजिक आन्दोलन भी खड़ा किया। आजादी से पहले हिन्दी और उर्दू में दलित यथार्थ की जो रचनाएँ आयीं, उनके पीछे यह आंदोलन प्रेरक शक्ति के रूप में उपस्थित रहा है। इतना अवश्य है कि दलित रचनाकारों की आत्मकथाएँ, कहानियाँ, कविताएँ भी वैचारिक लेखन की भूमिका अदा करती हैं। आन्दोलन संवेदना की अपेक्षा चेतना के विकास को अधिक संभव बनाते हैं। दलित-साहित्य के विकास में चेतना की जो भूमिका रही है, वैसी संवेदना की नहीं हो पायी। आगे भी चेतना ही प्रमुख भूमिका निभाएगी। कह सकते हैं कि संवेदना के बिना तो लेखन हो ही नहीं सकता। जो संवेदनशील नहीं है वह किसी की तक़लीफ़ को क्या समझेगा? ज़रूरी तौर पर संवेदना किसी भी रचना का महत्वपूर्ण तत्व होती है। संवेदना दर्द को महसूस करने की सामथ्र्य तो देती है, परन्तु दर्द के निवारण की तमीज़ चेतना ही से मिलती है। संवेदना भावुकता के अतिरेक में वर्चस्ववाद को तो चुनौती दे सकती है, लेकिन इस वर्चस्व के ध्वंस की कल्पना बिना चेतना के संभव नहीं है। यहाँ दलित व ग़ैर-दलित के बीच इतना ही अंतर हो सकता है कि ग्रहण का अंधकार जिस सघनता व व्यापकता में एक दलित के मन-मस्तिवक में आकार लेता है, ग़ैर-दलित के नहीं। फिर भी, रचना का शेष रह जाना इस अंधकार के स्वरूप या उसकी अनुभूति के आकार से ही नहीं बल्कि रचना-कौशल से ही संभव होता है। ‘गोदान’ और ‘मैला आँचल’ कालजयी बन पाये, तो इन दोनों विशिष्टताओं के बेहतर एकीकरण के कारण।
सामाजिक सरोकार से बँधी रचना,कला के प्रतिमानों पर खरी उतरे यह जरूरी नहीं हैं। उसका सौंदर्य उसकी प्रतिबद्धता है। उसकी एतिहासिकता समाज में व्याप्त बदसूरती के प्रति व्यक्त विक्षोभ है। तनिक सोंचिए,समाज में बदसूरती फैली हुई है और साहित्य सौंदर्य के नये प्रतिमान गढ़ रहा है।
हम यहाँ शरण लिंबाले का संदर्भ ले सकते हैं:-
‘‘दलित लेखक सामाजिक ज़िम्मेदारी से लिखता है। उसके लेखन में कार्यकर्ता का आवेश और निष्ठा अभिव्यक्त होती है। समाज बदले, समाज अपने प्रश्न समझे, वह तिलमिलाहट उसके लेखन में तीव्रता से व्यक्त होती है। दलित लेखक आंदोलन करते हुए लिखने वाला कार्यकर्ता-कलाकार है। वह अपने साहित्य को आंदोलन मानता है। उसकी प्रतिबद्धता दलित और शोषित वर्ग से है।’’ (दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, पृष्ठ 41)
प्रगतिशील आंदोलन के प्रभाव में लिखी गयी बहुत-सी रचनाएँ भी उद्देश्यगत प्रतिबद्धता तथा विचार की उपस्थिति के कारण कुछ आलोचकों के द्वारा ख़ारिज की जाती रही हैं। ख़ारिज होकर भी वे मरी नहीं हैं। बड़ी बात यह है कि एक ख़ास दौर में, जिसे हम जन-संधर्षों का दौर भी कह सकते हैं, इन रचनाओं ने, जिनमें उर्दू की अनेक प्रगतिशील कविताओं को प्रमुखता प्राप्त है, महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। कितनी लड़ाइयों को उन्होंने शक्ति और ऊर्जा दी, कितने निराश लोगों में नयी स्फूर्ति भरी तथा जुल्म के ख़िलाफ खड़े होने का हौसला दिया। विचारणीय है कि इन्सानी शोषण के प्रतिमान टूट रहे हों और साहित्य कला-प्रतिमानों के नये शिखर छू रहा हो, मनुष्य जिं़दा जलाये जा रहे हों और रचना के शेष रह जाने पर जोर दिया जा रहा हो, घरों के रुदन तथा बलात्कार को जातीय श्रेष्ठता की स्वाभाविक अभिव्यक्ति माना जा रहा है। इन्सानों के बड़े समूह पर बड़े घर की देहरी पार करने पर प्रतिबंध हो। जाति विशेष के पुरूषों के लिए घोड़ों पर चढ़ना अपराध हो और इन भयावह दृश्यों से मुक्त किताबें शेल्फ़ में सजी हों एवं बिल्ली-कुत्ते एयर कंडीशंड कमरों में रहने की हैसियत में हों, तो उस समाज का चित्र कैसा बनता है? जो जितना बड़ा यथास्थितिवादी है, वह उतना ही बड़ा कलावादी है, रूपवादी और संरचनावादी भी हो सकता है, ग़रीब भारत के सर थोपे गये शाइनिंग इंडिया के नारे के साथ देश की जनता ने कैसा सुलूक किया था, आप सब अच्छी तरह जानते हैं।
यहाँ तात्पर्य कला और पुस्तकों के महत्व को कम करना नहीं है। प्रतिबद्ध रचनाकार के लिए कला हमेशा एक कठिन चुनौती की तरह रही है, रचना को प्रभावशाली बनाने की उसकी चिंता को समझा जा सकता है। लेकिन, कला के सामाजिक संदर्भ भी होते हैं, वह समाज-सापेक्ष होती है, समाज निरपेक्ष नहीं। वैसे ही, जैसे लेखक और रचना का समाज में द्वंद्वात्मक सम्बन्ध होता है। लेकिन, वह कला को रचना के केन्द्रीय तत्व होने की अनिवार्यता को स्वीकार नहीं करता। कला ज़रूरत है, निर्भरता नहीं।
ठीक इसी प्रकार, सामाजिक परिवर्तन तथा जुल्म व नाइन्साफ़ी के ख़िलाफ़ चलने वाला प्रत्येक आन्दोलन पुस्तकों से ही शक्ति व दृष्टि प्राप्त करता है। कारणवश, ऐसे व्यक्तियों के लिए पुस्तकें हमेशा बहुत प्रिय रही हैं। कार्ल माक्र्स से लेकर लेनिन तक, लेनिन से लेकर अम्बेडकर और भगत सिंह तक का पुस्तक-प्रेम उनके जीवन का बहुविदित यथार्थ है। कैसी होती हैं वे किताबें, जो दिलों में आग जलाती हैं और दिमाग़ों को रोशन करती हैं? इन्हें आप क्या ड्राइंगरूम में सजाते हैं? ऐसी किताबें घर में कहीं भी हो सकती हैं, यहाँ तक कि आपके काम करने की जगहों पर भी। यह कोई चमत्कार नहीं है कि जब हिन्दी की साहित्यिक पुस्तकों का बिकना कठिन हो रहा हो, तब दलित-साहित्य की माँग लगातार बढ़ रही है। इसलिए जब मुद्राराक्षस, प्रेमकुमार मणि या कुछ दूसरे विद्वान ज़ोर दे रहे हों कि ‘दलितों के लिए दलितों द्वारा लिखा गया साहित्य ही दलित साहित्य है’, तो इसे तर्कविहीन सिद्धांतशास्त्र का भोथरापन मानने के बजाव इसके बारे में गंभीरता से सोचे जाने की ज़रूरत है। ठीक उसी तरह जैसे दलित-लेखन के लिए अम्बेडकरवाद की अनिवार्यता के बारे में। ग़ैर-दलित रचनाकारों द्वारा दलित यथार्थ उभारने में चाहे जितनी ईमानदारी बरती गयी हो,इस यथार्थ के प्रति उनमें चाहे जितना गहरा विक्षोभ और आक्रोश क्यों न हो, दलित-साहित्य की आवश्यक पहचान-मुक्ति की समग्र चेतना तथा जातिवादी चेतना के बीच के अंतर को ध्यान में रखना चाहिए। प्रेमचद की दो-तीन कहानियाँ इस आंदोलन के लिए ऊर्जा-संचयन का काम करती रही हैं। प्रेमचंद ने अपने वैचारिक लेखन में भी जातिभेद तथा वर्ण-व्यवस्था का विरोध किया है। सच्ची राष्ट्रीयता के लिए सामाजिक समानता के सिद्धान्त को उन्होंने कभी नहीं छोड़ा, दो अतिवादी दृष्टिकोणों के बीच पिसने से प्रेमचंद को बचाना चाहिए।
विचारणीय है कि दलित-जीवन को आधार बनाकर ग़ैर-दलित रचनाकारों द्वारा कविता, कहानी या उपन्यास लिखना, भले वे अम्बेडकरवाद से प्रभावित न हों और उनमें से कुछ माक्र्सवाद के प्रभाव में लिखी गयी हों या उदार मानववाद के आवेग में, उनके प्रति निषेध या निंदा का रवैया हर हाल में हानिकारक है तथा दलित-मुक्ति के लक्ष्य के लिए भी आघातकारी है। निंदा तो उन प्रगतिशील क्रांतिकारियों, कलावादी, मानवतावादी, मनुष्य-मात्र से संलग्नता का दावा करने वाले रचनाकारों की कीजिए, जो हमारे समाज के सबसे भयावह यथार्थ की ओर से आँखें मूँदे रहे हैं। संभव है, इनमें ऐसे लोग भी हों, जो जाति-समस्या को आरोपित यथार्थ मानते हुए वर्गीय-एकता और इस आधार पर बनी चेतना को ही जातिवादी समस्या का हल मान रहे हों, लेकिन जातिवादी चेतना तथा उससे पैदा हुए विभेद के रहते वर्गीय-एकता न तो टिकाऊ हो सकती है और न वर्गीय चेतना का सही दिशा में विकास हो सकता है। प्रेमचंद वर्णविहीन सामाजिक-एकता के पक्षधर थे, दुखद यही है कि उनकी परम्परा का अपेक्षित विकास संभव नहीं हुआ, वरना स्थिति कुछ बदली हुई अवश्य नज़र आती। यह जानना विस्मयकारी हो सकता है कि उर्दू में रशीद जहाँ, सज्जाद ज़हीर, हयातुल्ला अंसारी, इस्मत चुग़ताई व कृश्नचंदर वग़ैरह ने प्रेमचंद के तत्काल बाद उनकी परंपरा को आगे बढ़ाया, परन्तु हिन्दी में इसका पुनरुत्थान कई दशकों बाद मराठी, दलित-साहित्य के प्रभाव से संभव हो पाया।
हिन्दी और उर्दू दोनों भाषाओं में रचे गये दलित-साहित्य की यह विडम्बना ध्यान खींचती है कि उसमें मुस्लिम, सिक्ख और ईसाई दलितों के जीवन-संघर्ष की अनुगूँज बहुत कम सुनायी पड़ती है। ‘झीनी-झीनी बीनी चदरिया’ जैसे कितने उपन्यास हैं हिन्दी में? उर्दू में तो वह भी नहीं है। भगवान दास मोरवाल के उपन्यास ‘काला पहाड़’ का नाम भी लिया जा सकता है। प्रश्न यह है कि क्या अस्पृश्यता को ही दलित होने का एकमात्र पहचान मान लिया जाना चाहिए? क्या मुस्लिम मेहतर और मोची मुस्लिम समाज में अछूत होने की प्रताड़ना बर्दाश्त नहीं करता? यदि हाँ, तो दमन की ग़ैर हिन्दू आकृतियाँ भी सामने आनी चाहिए। बहुत संभव है कि जिस प्रकार पिछली सदी के सत्तर-अस्सी के दशक में दलित लेखकों के व्यापक उभार ने हिंदू और बौद्ध दलितों की जीवन-स्थितियों को हिदी साहित्य की प्रमुख चिंताओं में स्थापित किया, एक अंतराल के बाद ठीक वैसा ही दूसरे दलित वर्गों के साथ भी हो और मुस्लिम व ईसाई समाजों में उपस्थित जातिगत विसंगतियाँ-विकृतियाँ संभव आवेग से उद्घाटित हो सकें। मुस्लिम दलित तथा पिछड़े वर्ग के अधिकारों के लिए सक्रिय अनेक कार्यकर्ताओं और संगठनों ने इस्लाम व मुस्लिम समाज के बारे में जातिगत असमानता व भेदभाव रहित होने के बहुप्रचारित यथार्थ का वास्तविक चेहरा सामने लाने का फ़ैसला किया है। इस प्रचार या बनी-बनायी धारणा ने दलित व पिछड़े मुसलमानों को भारी क्षति पहुँचायी है। इससे पूरे मुस्लिम समाज का चेहरा बिगड़ा है। भूख से तड़पते, वंचित, उपेक्षित, कई प्रकार की ताड़नाओं से त्रस्त मुस्लिम दलित के हिस्से की रोटी उस तक पहुँचने में बाधाएँ खड़ी हुई हैं, किसी हद तक यह स्थिति मुस्लिम पिछड़े वर्ग पर भी लागू होती है।
‘मसावत की जंग’ में अली अनवर लिखते हैं:-
‘‘चलिए, थोड़ी देर के लिए यह भी मान लें कि मुस्लिम दलित अपने समाज में ठीक हिन्दू दलित की तरह छुआछूत का शिकार नहीं होता, पर जिस लोकतंत्र में संख्या बल महत्वपूर्ण है, वहाँ यह सवाल कैसे दबा रहेगा कि मुस्लिम दलित समाज का दायरा कितना बड़ा है। कुल मुस्लिम आबादी बारह से चैदह प्रतिशत के बीच है। बाक़ी आबादी का वह तबक़ा तो मुस्लिम दलितों के साथ भी वही सुलूक करता है, जो हिन्दू दलित के साथ करता आ रहा है। मुस्लिम धोबी, मेहतर, चमार, नट, पासी आदि जातियों केा तो अपने पेशे के लिए हिन्दू-मुस्लिम दोनों समुदायों में जाना पड़ता है, इस तरह तो वे भी छुआछूत का शिकार होते हैं।’’
इसी पुस्तक में अली अनवर एक जगह लिखते हैं:
‘‘हिन्दू समाज में वर्ण व्यवस्था की उसूलन मान्यता थी, इसीलिए वहाँ जात-पाँत या छुआछूत है, तो यह बात समझ में आती है। मगर जहाँ इस्लाम और उनकी किताब ‘कुरआन’ में जात-पाँत की मान्यता नहीं, वहाँ तो इसका होना और भी ख़तरनाक है। मुस्लिम समाज की इस बीमारी के लिए कौन जवाबदेह है? इसको कैसे समाप्त किया जाए? इस पर खुलकर विचार-विमर्श करने के बजाय बीमारी को छिपाने की प्रवृत्ति आज भी मुस्लिम समाज पर हावी है।’’
बीमारी को छिपाने की प्रवृत्ति तथा परम्परा से चली आ रही अवधारणाओं के कारण मुस्लिम समाज की जातिवादी पहचान नहीं बन पायी। 1857 के विद्रोह में अग्रणी भूमिका के कारण भीषण दमन; उसके तकरीबन 70-75 वर्ष बाद से लगातार होने वाले साम्प्रदायिक दंगों; देश-विभाजन, उसके बाद उपजी व्यापक घृणा तथा ‘इस्लाम ख़तरे में है’ के अनवरत प्रलाप ने दलित व पिछड़े मुसलमानों को अपने अधिकारों के लिए संगठित व आंदोलित होने से बार-बार रोका। उन्हें यह समझने का अवसर ही नहीं मिला कि उनके दुखों के कुछ ठोस कारणों में ये मौलवी साहिबान भी शामिल हैं। अभाव और वंचना के विरूद्ध संघर्षशील सामाजिक चेतना की अपेक्षा उनमें अपने हालात को अल्लाह की मर्ज़ी मानने तथा धार्मिक कर्मकांड के प्रति उन्मुखता अधिक बढ़ी। जहाँ हर समय मुसलमानों के सर पर तलवार लटक रही हो, वहाँ धोबी, नाई, मोची, नट-नचनिया या सफ़ाईकर्मी अपने लिए अलग से कैसे बात करें। इनमें पिछड़े वर्ग में आने वाली बुनकर (अंसारी) जाति को किसी हद तक अवश्य अपवाद माना जा सकता है।
इस मनोविज्ञान को भी समझना चाहिए कि वर्ण-व्यवस्थाजनित अमानुषिकता से बचने के उद्देश्य से जिन लोगों ने कभी हिंदू धर्म का परित्याग किया था, वे ही धर्म-परिवर्तन के बाद यह कैसे कहें कि यहाँ भी उनके साथ कमोवेश पहले जैसा सुलूक हो रहा है, यहाँ उन्हें मस्जिद में जाने तथा साफ़-सुथरे कपड़ों में दूसरी जातियों के साथ उठने-बैठने की सुविधा तो है ही, रोटी-बेटी का सम्बन्ध न सही। विडम्बना यह भी रही कि न तो समानता के दर्शन पर आधारित राजनीतिक दलों ने, न तो इस्लाम को समानता व भाईचारगी का धर्म बताने वाले मौलानाओं ने, न सामाजिक कार्यकर्ताओं और न जाति-विहीन समाज का नारा लगाने वाले दलित नेताओं ने उनकी समस्याओं की ओर ध्यान दिया। दलित नेताओं ने मुस्लिम व ईसाई दलितों के साथ एका बनाने के प्रयास भी नहीं किये। नतीजा यह हुआ कि हिंदु दलित जातियों को मिलने वाली आरक्षण की सुविधा से मुस्लिम दलितों को वंचित कर दिये जाने से उनके सामाजिक हालात खराब होते गये। शिक्षा और रोज़गार सहित दूसरे सभी क्षेत्रों में उनका पिछड़ते जाना एकदम स्वाभाविक था। ऐसे में सच्चर कमेटी के इन निष्कर्षों पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि मुस्लिम आबादी का बड़ा भाग हिन्दू दलितों से भी ज्यादा दरिद्र है। हिन्दुओं के समान ही भारतीय मुसलमानों में भी पिछड़ों-दलितों की संख्या अधिक है। साहित्य के संदर्भ में प्रतिरोध के नये क्षेत्रों पर विमर्श करते हुए चिंतन की कुछ दिशाएँ इस ओर भी जानी चाहिए। यह साहित्य की धर्म-निरपेक्ष परम्परा की इज्ज़त का भी सवाल है। जिस प्रकार गुजरात के नर-संहार के उपरांत धार्मिक आधार पर राहत-पैकेज़ निश्चित किया गया, क्या साहित्य में पीड़ाओं और प्रतिरोध की अभिव्यक्तियाँ भी इसी आधार पर होंगी। कहा जा सकता है कि विभिन्न आन्दोलनों के ज़रिये जिस प्रकार हिन्दू दलितों ने समकालीन बौद्धिकता तथा संवेदना को प्रभावित किया, वैसा मुस्लिम दलित या पिछड़े वर्ग के माने जाने वाले लोग नहीं कर पाये। किसी हद तक यथार्थ का यह वास्तविक आख्यान है यानी कि हालात का खंडित सच। प्रश्न यह है कि यदि भगवानदास मोरवाल ‘काला पहाड़’ जैसा उपन्यास लिख सकते हैं, तो फिर दूसरे लोग क्यों नहीं? लेकिन इससे भी बड़ा सवाल यह है कि वह उर्दू भाषा, जो उत्तर व पूर्वी भारत के मुसलमानों के अनुभव-लोक, उनके सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति का सबसे प्रिय माध्यम रही है, उसमें ही मुस्लिम दलितों-पिछड़ों को लेकर इतनी गहरी ख़ामोशी क्यों छायी रही? हिन्दी में कम से कम ‘झीनी-झीनी बीनी चदरिया’ तथा ‘काला पहाड़’ जैसे उपन्यास तो हैं।
इसे विडंबना मानिए या रोचक प्रसंग कि उर्दू कविता और कहानी दोनों में हिन्दू दलितों के कारूणिक सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्तियाँ मिल जाएँगी, परन्तु मुस्लिम दलितों को लेकर शून्य जैसी स्थिति है।
प्रेमचंद, हयातुला अंसारी, कृश्नचंदर, इस्मत चुग़ताई, जीलानी बानो, राजेन्द्र सिंह बेदी, रशीद जहाँ, ग़ज़नफ़र जैसे और भी कई रचनाकार हैं, जिनकी रचनाओं में दलित-जीवन का अवसाद ध्वनित हुआ। यहाँ तक कि पाकिस्तान में लिखे गये अब्दुल्ला हुसैन के अति चर्चित उपन्यास ‘उदास नस्लें’ में भी यह ध्वनि साफ़ सुनायी पड़ती है। इस्मत चुग़ताई और किसी हद तक हयातुल्ला अंसारी अवश्य अपवाद हैं, जिन्होंने मुस्लिम समाज में मौजूद जातिवादी भेदभाव की रचना को अंतर्वस्तु के रूप में स्वीकार किया। दास्तानों में, कुर्रतुल ऐन हैदर के कथा-साहित्य में भी इन जातियों के पात्र तो हैं, लेकिन अपनी त्रासदियों से कटे हुए। समाज की रौनक बढ़ाते हुए, उर्दू शायरी में शेख़-ओ-ब्रहमन के बीच व्याप्त दूरी और इस दूरी को ख़त्म करने की ज़रूरत का तो बहुत ज़िक्र आया है, परन्तु शेख़ और ब्रहमन जिन धार्मिक सम्प्रदायों से ताल्लुक रखते हैं, उनमें जाति या पेशे के आधार पर कैसा भयानक बँटवारा है और ताड़ना व दमन के कितने अवसर हैं, इस बारे में शायरी में दूर तक नीरवता छायी हुई है। यहाँ तक कि ख़ास पेशे के कारण मानी जाने वाली जातियों से आये शायर भी इस बारे में मौन साधे हुए हैं। नज़ीर अकबराबादी का कुछ ध्यान इस तरफ़ गया था, लेकिन एक तो सामंती आभिजात्य से गहरे तक ग्रस्त शायरों, तज़किरानिग़ारों ने उन्हें शायर मानने से इन्कार किया फिर ग़ज़ल के वर्चस्व के कारण उनकी समाजोन्मुखी नज़्म-निगारी की परम्परा भी आगे नहीं बढ़ पायी। प्रगतिशील आंदोलनों के दौर में इस परम्परा के लिए ख़ासी संभावनाएँ निर्मित हुईं उनका विकास भी हुआ परन्तु वहाँ वर्गवादी चेतना के हल्लाबोल का ज्यादा जोर था। निश्चय ही, इस कारण प्रगतिशील आंदालनों पर टीका-टिप्पणी तो अवश्य की जा सकती है, उसे कटघरे में खड़ा नहीं किया जा सकता। सामाजिक समानता के दृष्टिकोण की अलख आखि़र इस आंदोलन ने ही रोशन की और उसे साहित्य ही क्यों समूचे कला-कर्म का ज़रूरी मूल्य बनाया। जातिवादी भेदभाव व दमन के प्रति व्यापकता में लोगों का ध्यान खींचने का श्रेय अम्बेडकर के आंदोलन के बाद प्रगतिशील आन्दोलन से जुड़े रचनाकारों ने भी भारतीय समाज में जाति की समस्या को आम तौर पर अम्बेडकर की आँखों से ही देखा। स्वयं द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के फ़ार्मूले को यहाँ लागू करने की ज़रूरत नहीं समझी गयी। ऐसे में सामाजिक संरचना की समग्र पड़ताल एकांगी होकर रह गयी। पंडित नेहरू कहते रह गये कि हिन्दु और मुसलमान दोनों समाजों में ख़ास उच्च-वर्ग का एक समूह प्रभुत्व जमाये हुए है। ये नेहरू ही के शब्द हैं:-
‘‘हालाँकि इस तरह का प्रभुत्व सांस्कृतिक, शैक्षणिक आदि क्षेत्रों में व्याप्त है, परन्तु आर्थिक क्षेत्र में तो यह अनिवार्य रूप से मौजूद है। एक समूह, जो आर्थिक रूप से बुरी अवस्था में है, बड़े इत्मीनान से सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक स्तर पर ह्रासोन्मुख है और दूसरों के द्वारा बड़ी आसानी से शोषित हो रहा है।’ (पंडित नेहरू द्वारा बिहार के प्रसिद्ध नेता अब्दुल कय्यूम अंसारी को लिखे गये 1939 के पत्र का एक अंश)
शैक्षणिक रूप से पीछे रह जाने, बल्कि निरक्षरता के विकराल वर्चस्व की वजह से दूसरी दलित जातियों के समान मुस्लिम दलितों में सामाजिक चेतना का विकास संभव नहीं हो सका। अपनी अवमानना, वंचना तथा अधिकारों के प्रति जिस प्रतिरोधी चेतना की उन्हें जरूरत थी, वह चिरस्वप्न बनी रही। उनके बीच से ऐसे लोग नहीं उभर सके, जो अपने वाजिब हुकूक़ के लिए राजनीतिक दलों, धार्मिक नेताओं तथा सरकार पर दबाव बना सकने वाला आंदोलन चला सकते थे। जो बहुत थोड़े से लेखक, कथाकार, शायर पैदा भी हुए, तो वे मध्यकाल के शायरों के समान बहती धारा में विलीन हो गये। क्योंकि हिन्दी का सामाजिक आधार नित नया विस्तार पाता गया है और उसमें न्याय के संघर्षों की अनुगूँज लगातार अधिक फैलती गयी है कारणवश, यह अपेक्षा की जा सकती है कि वह प्रतिरोध के इस नये क्षेत्र तक अपना विस्तार पाये।

  • शकील सिद्दीकी
  • एम0आई0जी0 317, फेज-2, टिकैतराय एल0डी0ए0 कालोनी,
  • मोहान रोड, लखनऊ-17
लोकसंघर्ष पत्रिका में जल्द प्रकाशित

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