अच्छा होता हम बच्चे ही रहते ..
वो कागज़ कि कश्ती ...
वो बारिश का पानी ...
कितन अच्छा तो वो बच्चपन का
खेलना ...मस्ती भरे दिन थे ..मौजो की थी राते
ना कुछ सोचना....न कोई चिंता ...
मस्त मौला सा था सब वातावरण
अच्छा होता हम बच्चे ही रहते ....
क्यों हम बड़े हो गए है ..
दुनिया की रीत में खो गए है
क्यों हम भी मशीनी हो गए है
खो गया है भावनायो का समंदर ...
क्यों अपने भी अब बेगाने हो गए है
क्यों यहाँ बेगाने अपने हो गए है ...........
अच्छा होता हम बच्चे ही रहते ..
कम से कम दिल के सचे तो होते
अब देखो झूठ से लबालब हो गए है ..
चापुलूसी के घने जंगल में गहरे खो गए है
भटक गए है काया और माया के जाल में
यहाँ आके सब खूबसूरती के दंगल में फंस गए है
अच्छा होता हम बच्चे ही रहते .....
लड़ते झगड़ते पर साथ तो रहते
पर अब तो सब्र का पैमाना यू छलकता है
किसीकी छोटी सी बात भी नश्तर सी लगती है
तोडी सब्र की सारी सीमायें ...
हर दोस्त को दुश्मन बनाते चले गए ...
अच्छा होता हम बच्चे ही रहते ....
खेलते वो खेल जो मन में आता हमारे
कम से कम दिलो से तो ना खेलते थे हम ..
कभी छिप जाते ...कभी रूठ जाते
कम से कम संगी साथी हमहे
कही से भी ढूंढ़ तो लाते..
मानते हमहे साथी मिन्नतें करके
परअब क्या किसी से रूठना .और क्या है किसी को मनाना
कौन है अब जिस है अपना बनाना ...
हम पहले भी अकेले थे....और
अब भी अकेले है ......
अच्छा होता हम बच्चे ही रहते ...........
(.....कृति ...अनु..(अंजु)..)
kash aisa hota ki hum bacche he rehte
ReplyDeletepar yeh ho na saka aur na he ho sakta hai
so ab yeh alam hai ki hum hai aur yeh ham par thopa gaya badapan
jisse na bhag sakte hai ne muh phira sakte hai
bahut betareen ji
ReplyDeletevisit my blogs hoping u must enjoy
aleem azmi
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