प्रोफेसर सभरवाल प्रकरण
राजेश माली
Senior Correspondent, Dainik Bhaskar
26 अगस्त 2006, यही वह दिन था जब उज्जैन के माधव कॉलेज में छात्रसंघ चुनाव कि प्रक्रिया के दौरान उपजी हिंसा की आग में प्रो एचएस सभरवाल को अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी। उस दिन कॉलेज में क्या हुआ, यह कई लोगों ने देखा। प्रोफेसरों को 'तुम्हें पोंछा लगाना पड़ेगा, परिणाम भुगतना पड़ेगा' जैसी धमकियां कैमरे के सामने देने वाले एबीवीपी के नेताओं का चेहरा टीवी चैनलों के माध्यम से पूरे देश ने देखा, लेकिन फिर भी सभी आरोपी बरी हो गए तो फिर प्रो. सभरवाल को किसने मारा? दरअसल इस प्रकरण के संभावित नतीजे का आभास तभी हो गया था जब 5 फरवरी 2007 को उज्जैन की जिला अदालत में गवाही के दौरान प्रमुख चश्मदीद कोमल सिंह जांच एजेंसी को दिए बयान से मुकर गया था। इसके बाद तो कुछ दूसरे गवाह भी कोमल सिंह की श्रेणी में आ गए जिन्हें अभियोजन पक्ष के आग्रह पर पक्ष विरोधी घोषित किया गया। इनमें तीन पुलिसकर्मी भी शामिल थे। जब सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर मामला नागपुर ट्रांसफर हुआ तो जांच एजेंसी और अभियोजन पक्ष को अपनी गलतियां सुधारने का मौका मिला, लेकिन जांच एजेंसी पर केस को कमज़ोर करने का आरोप लगाने, गवाहों के प्रभावित होने की शंका करने के बीच किसी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि एक और मिले अवसर में केस को मज़बूत करने के लिए और क्या किया जा सकता है। अभियोजन पक्ष के वकील प्रतुल शांडिल्य तो दो टूक कह चुके हैं कि जांच एजेंसी की वजह से हार हुई है, तो जांच एजेंसी के बारे में बहुत कुछ कहने को बचता नहीं है। और फिर आरोपी एबीवीपी के पदाधिकारी हो, राज्य में भाजपा की सरकार हो, जांच करने वाली एजेंसी केंद्र सरकार के अधीन हो, ऐसे में जांच एजेंसी से कितनी इमानदारी की उम्मीद की जा सकती है, यह बताने की भी ज़रूरत नहीं है। शायद इसी वजह से प्रो. सभरवाल के परिजन लगातार यह कहते रहे हैं कि उन्हें जांच एजेंसी पर भरोसा नहीं है। जेसिका लाल प्रकरण में भी गवाह पलटा था, निचली अदालत से आरोपी बरी हुए थे लेकिन बाद में हाईकोर्ट के आदेश के बाद दोबारा केस खुला तो नतीजा बदल गया। सवाल यह है कि प्रो. सभरवाल मामले में भी ऐसा हो सकता है क्या?
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--- संजय सेन सागर