प्रोफेसर एचएस सभरवाल की हत्या के आरोप में धरे गए सभी छह आरोपी छूट गए हैं। नागपुर की अदालत ने उन्हें बरी करते हुए अभियोग पक्ष पर कड़ी टिप्पणी की और कहा कि पुलिस प्रशासन अपने आरोप साबित करने में बुरी तरह असफल हुआ। सनद रहे कि प्रोफेसर सभरवाल के परिजनों ने उज्जैन में हुई इस घटना का मुकदमा मध्य प्रदेश से बाहर लड़े जाने की याचना की थी।
चूंकि आरोपी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़े थे, जो भाजपा से जुड़ी है और जिसकी सरकार मध्य प्रदेश में है, सुप्रीम कोर्ट ने भी माना कि उसी प्रदेश में केस रहने से न्याय के निष्पादन में बाधा आ सकती है और यहां तक कि पुलिस पर दबाव बनाया जा सकता है। इसलिए केस को महाराष्ट्र के नागपुर भेज दिया गया।
पर क्या न्याय हो पाया? इसका जवाब है नहीं। यह इसलिए नहीं कि आरोपी बरी हो गए, बल्कि इसलिए कि अपने आदेश के साथ की टिप्पणी में न्यायालय ने ही अपने न्याय पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया। अब दिवंगत प्रोफेसर के पुत्र ने कहा है कि वह सुप्रीम कोर्ट से न्याय की गुहार लगाएंगे।
पर सवाल यह है कि अगर इतने हाई प्रोफाइल केस में राज्य बदलने के बावजूद न्याय नहीं मिलता, तो उन लाखों मुकदमों का क्या जिनके पैरवीकार हाई कोर्ट तक नहीं जा पाते, सुप्रीम कोर्ट तो दिल्ली में है जो बहुत दूर है।
प्रोफेसर सभरवाल का केस अकेला नहीं है जहां कोर्ट ने ऐसी टिप्पणी की हो। जेसिका लाल की हत्या के आरोपी को छोड़ते हुए दिल्ली की एक कोर्ट ने कुछ ऐसा ही कहा था। दोषी कौन है, इसका ज्ञान होते हुए भी अदालत उसे सजा नहीं दे सकती, क्योंकि अभियोजन पक्ष पुख्ता सबूत नहीं ला पाते या नहीं लाते।
जाहिर है ऐसी टिप्पणियां अदालतें मजबूरी में कर रही हैं, क्योंकि कानून यकीन पर फैसला नहीं दे सकता और यकीन भर पर फैसला देना भी नहीं चाहिए। न्याय तो पक्के सबूतों के आधार पर ही होना चाहिए और इसके सिवा दूसरा रास्ता नहीं है।
न्याय सिर्फ अदालतें नहीं करतीं, अदालतें न्याय व्यवस्था का एक अंग हैं। न्याय तो जांच से शुरू होता है। अगर हम एक विश्वसनीय और न्यायपूर्ण न्यायिक व्यवस्था की कल्पना करते हैं तो हमें अपने पुलिस तंत्र और जांच प्रक्रिया को आधुनिक और न्यायपरक बनाना होगा।
हमें एक ऐसा रास्ता निकालना ही होगा जिससे पुलिस राजनीतिक व अन्य दबावों से ऊपर उठकर जांच करे। अगर ईमानदारी और निष्ठा से जांच हो तभी अदालतें न्याय कर पाएंगी, नहीं तो फैसले होंगे, न्याय नहीं।
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चूंकि आरोपी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़े थे, जो भाजपा से जुड़ी है और जिसकी सरकार मध्य प्रदेश में है, सुप्रीम कोर्ट ने भी माना कि उसी प्रदेश में केस रहने से न्याय के निष्पादन में बाधा आ सकती है और यहां तक कि पुलिस पर दबाव बनाया जा सकता है। इसलिए केस को महाराष्ट्र के नागपुर भेज दिया गया।
पर क्या न्याय हो पाया? इसका जवाब है नहीं। यह इसलिए नहीं कि आरोपी बरी हो गए, बल्कि इसलिए कि अपने आदेश के साथ की टिप्पणी में न्यायालय ने ही अपने न्याय पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया। अब दिवंगत प्रोफेसर के पुत्र ने कहा है कि वह सुप्रीम कोर्ट से न्याय की गुहार लगाएंगे।
पर सवाल यह है कि अगर इतने हाई प्रोफाइल केस में राज्य बदलने के बावजूद न्याय नहीं मिलता, तो उन लाखों मुकदमों का क्या जिनके पैरवीकार हाई कोर्ट तक नहीं जा पाते, सुप्रीम कोर्ट तो दिल्ली में है जो बहुत दूर है।
प्रोफेसर सभरवाल का केस अकेला नहीं है जहां कोर्ट ने ऐसी टिप्पणी की हो। जेसिका लाल की हत्या के आरोपी को छोड़ते हुए दिल्ली की एक कोर्ट ने कुछ ऐसा ही कहा था। दोषी कौन है, इसका ज्ञान होते हुए भी अदालत उसे सजा नहीं दे सकती, क्योंकि अभियोजन पक्ष पुख्ता सबूत नहीं ला पाते या नहीं लाते।
जाहिर है ऐसी टिप्पणियां अदालतें मजबूरी में कर रही हैं, क्योंकि कानून यकीन पर फैसला नहीं दे सकता और यकीन भर पर फैसला देना भी नहीं चाहिए। न्याय तो पक्के सबूतों के आधार पर ही होना चाहिए और इसके सिवा दूसरा रास्ता नहीं है।
न्याय सिर्फ अदालतें नहीं करतीं, अदालतें न्याय व्यवस्था का एक अंग हैं। न्याय तो जांच से शुरू होता है। अगर हम एक विश्वसनीय और न्यायपूर्ण न्यायिक व्यवस्था की कल्पना करते हैं तो हमें अपने पुलिस तंत्र और जांच प्रक्रिया को आधुनिक और न्यायपरक बनाना होगा।
हमें एक ऐसा रास्ता निकालना ही होगा जिससे पुलिस राजनीतिक व अन्य दबावों से ऊपर उठकर जांच करे। अगर ईमानदारी और निष्ठा से जांच हो तभी अदालतें न्याय कर पाएंगी, नहीं तो फैसले होंगे, न्याय नहीं।
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आपका बहुत - बहुत शुक्रिया जो आप यहाँ आए और अपनी राय दी,हम आपसे आशा करते है की आप आगे भी अपनी राय से हमे अवगत कराते रहेंगे!!
--- संजय सेन सागर