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कहां चला राहुल गांधी का जादू?

अनंत विजय
डिप्टी एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर ibn7



अब जबकि लोकसभा चुनावों का शोरगुल खत्म हो चुका है, पखवाड़े भर की माथापच्ची के बाद कांग्रेस मंत्री और मंत्रालय तय करने में कामयाबी हासिल कर चुकी है। मंत्री अपने मंत्रालयों के सौ दिन के एजेंडे घोषित करने में जी जान से जुटे हैं। मीडिया के कई हिस्सों में राहुल गांधी के जादू और करिश्मे का कोलाहल भी थोडा़ कम होने लगा है, तो अब वक्त आ गया है कि दो हजार नौ में हुए लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी के जादू और करिश्मे की थ्योरी को कसौटी पर कसा जाए। जीत के बाद जब सोनिया गांधी रायबरेली की जनता को धन्यवाद देने अपने लोकसभा क्षेत्र पहुंचीं तो उन्होंने लोकसभा चुनाव में पार्टी की जीत का सेहरा राहुल के सर बांधा। कांग्रेस के रणनीतिकारों की तरफ से लगातार इस बात को प्रचारित प्रसारित किया, करवाया गया कि कांग्रेस को मिली सफलता के पीछे राहुल गांधी के करिश्मे और उनके व्यक्तित्व के जादू का हाथ है।
उत्तर प्रदेश में पार्टी को मिली आशातीत सफलता का श्रेय भी राहुल गांधी की रणनीति को दिया गया। मीडिया में ये बात भी आई कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के अकेले चुनाव लड़ने का फैसला राहुल गांधी का था, जिसकी वजह से पार्टी को जबरदस्त सफलता मिली और राहुल के इस फैसले ने पार्टी को प्रदेश में पुनर्जीवित कर दिया, आदि आदि। लेकिन अगर हम उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की चुनावी रणनीति और राहुल गांधी के तथाकथित होमवर्क की गहराई से पड़ताल करें तो राहुल की रणनीति के साथ-साथ उनके जादू और करिश्मे का मुलम्मा भी उतर जाता है। सबसे पहले हम उत्तर प्रदेश के दो जिलों रायबरेली और अमेठी की ही बात करें जिन जिलों की लोकसभा सीट से राहुल और उनकी मां कांग्रेस अध्यक्षा चुनाव लड़ती हैं। रायबरेली और सुल्तानपुर दो जिले हैं जिनमें तीन लोकसभा क्षेत्र आते हैं। यह सर्वविदित तथ्य था कि अमेठी से स्वयं राहुल और रायबरेली से सोनिया गांधी चुनाव लड़ेगी। लेकिन इसी जिले की तीसरी लोकसभा क्षेत्र सुल्तानपुर से कौन चुनाव लड़ेगा इसका फैसला अंतिम समय तक नहीं हो पाया था। ये कैसी रणनीति थी या फिर कैसा होमवर्क था जिसमें सूत्रधार अपने ही गृह जिले के उम्मीदावर तय करने में दुविधा का शिकार था। अगर होमवर्क किया गया होता तो ना तो ये दुविधा की स्थिति होती और ना ही मामला आखिरी वक्त तक लटकता। इस मामले में कभी भी ऐसा नहीं लगा कि राहुल या फिर उनके रणनीतिकारों ने उनके अपने ही गृह जिले के लिए कोई होमवर्क किया हो। बिल्कुल आखिरी वक्त तक संजय सिंह ही अपनी उम्मीदवारी को लेकर आशंकित थे और पार्टी में मचे घमासान की वजह से कार्यकर्ताओं में जबदस्त भ्रम की स्थिति थी।
अब एक और नमूना देखते हैं - सूबे की राजधानी लखनऊ की प्रतिष्ठित सीट, जहां से बीजेपी के कद्दावर नेता और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई चुने जाते थे, को लेकर भी कांग्रेस के पास कोई योजना नहीं दिखाई दी। इस सीट पर सबसे पहले समाजवादी पार्टी ने फिल्म अभिनेता संजय दत्त की उम्मीदवारी का ऐलान कर सबको चौंका दिया। सुप्रीम कोर्ट से इजाजत नहीं मिलने की वजह से संजय दत्त चुनाव नहीं लड़ सके। इसके बाद भारतीय जनता पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के उम्मीदवारों का भी ऐलान हो गया। लेकिन सूबे में अपनी खोई जमीन की तलाश में लगी कांग्रेस को कोई उम्मीदवार नहीं मिल पा रहा था। सुप्रीम कोर्ट के झटके से सकते में आई समाजवादी पार्टी ने मास्टर स्ट्रोक लगाया और कल तक कांग्रेस की समर्पित कार्यकर्ता रही ग्लैमरस नफीसा अली को लखनऊ से अपना उम्मीदवार बनाकर कांग्रेस को तगड़ा झटका दिया। बेहतर चुनावी रणनीति और राहुल गांधी के होमवर्क की बात करनेवाली पार्टी को उस वक्त लखनऊ जैसी प्रतिष्ठित सीट के लिए कोई उम्मीदवार नहीं सूझ रहा था। जब कोई विकल्प नहीं मिला तो पार्टी ने अपने प्रदेश अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी को ही अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया। इस अफरातफरी से राहुल गांधी की तथाकथित रणनीति और फॉर्वर्ड प्लानिंग के दावों की हवा निकल गई। सूबे और लखनऊ की राजनीति को बेहद करीब से देखने और जाननेवालों की राय है कि अगर रीता बहुगुणा जोशी को थोड़ा वक्त मिलता तो वो लखनऊ की ये प्रतिष्ठित सीट कांग्रेस की झोली में डाल सकती थी।
अगर हम सूबे की एक और सीट मुरादाबाद पर नजर डालें तो यहां भी कांग्रेस की लचर प्लानिंग दिखाई देती है। इस सीट पर भी जब कांग्रेस को कोई उम्मीदवार नहीं मिला तो आंध्र प्रदेश से पूर्व क्रिकेटर अजहरुद्दीन को आनन-फानन में यहां से टिकट दे दिया गया। अजहरुद्दीन वही क्रिकेट खिलाड़ी हैं, जिनपर मैच फिक्सिंग के मामले में भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने आजीवन प्रतिबंध लगाया हुआ है। ये दीगर बात है कि जातिगत समीकरणों और ग्लैमर के सहारे अजहरुद्दीन चुनाव जीत गए। यह तो तीन सीटों की बानगी है, उत्तर प्रदेश में इनके अलावा भी कई सीटें गिनाई जा सकती हैं, जहां कांग्रेस की ना तो कोई योजना थी, ना ही कोई व्यूह रचना और ना ही किसी का कोई जादू चला। जीत की वजह कहीं स्थानीय फैक्टर रहा तो कहीं सूबे की राजनीति में चुनाव के वक्त बना गठबंधन रहा, जिसकी वजह से वोट बैंक शिफ्ट हुआ।
अब अगर हम बिहार के चुनावी नतीजों पर नजर डालें तो यहां इस बार पार्टी को एक सीट का नुकसान हुआ। कांग्रेसियों का तर्क है कि बिहार में पार्टी के वोट प्रतिशत में बढो़तरी हुई है और वोटर राहुल गांधी के करिश्मे की वजह से पार्टी की ओर आकृष्ट हुए हैं। लेकिन अगर आंकड़ों पर गौर करें तो इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि बिहार में कांग्रेस का वोट प्रतिशत इस वजह से बढ़ा है कि पार्टी ने लगभग सभी चालीस सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए। पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस ने लालू की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल से तालमेल की वजह से कम सीटों पर चुनाव लड़ा था। जाहिर है कि कोई भी पार्टी अगर ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ेगी तो उसके वोट प्रतिशत में वृद्धि तो होगी ही, इसके लिए ना तो किसी जादू की जरूरत है और ना ही किसी करिश्मे की।
बिहार की ही तरह अगर हम आंध्र प्रदेश और गुजरात का विश्लेषण करें तो पाते हैं कि वहां भी राहुल गांधी का कोई करिश्मा नहीं चला। आंध्र प्रदेश में कांग्रेस की जीती तैंतीस सीटों में से पच्चीस सीट ऐसी हैं जहां अगर तेलगू देशम के चार पार्टियों के गठजोड़ और प्रजाराज्यम को मिले वोट जोड़ दिए जाएं तो वह कांग्रेस से ज्यादा है। इन पच्चीस में से सत्रह सीटें तो ऐसी हैं जहां तेलगू देशम गठजोड़ और प्रजाराज्यम का कुल वोट कांग्रेस के वोट से एक लाख से भी ज्यादा है। राज्य में कांग्रेस को भले ही तैंतीस सीटें मिली हों और तेलगू देशम गठबंधन को आठ, लेकिन दोनों के वोट प्रतिशत में एक फीसदी से कुछ ही ज्यादा का अंतर है। इसी तरह अगर हम गुजरात पर नजर डालें तो नरेन्द्र मोदी का अड़ियल रवैया और पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को दरकिनार करने की वजह से कांग्रेस को फायदा हुआ । मोदी ने पिछली बार जीते चौदह में से ग्यारह सांसदों का टिकट काटकर नए चेहरों को मौका दिया और ये सभी नए चेहरे चुनाव हार गए। इस वजह से राज्य में कांग्रेस को सिर्फ एक सीट का ही नुकसान हुआ। तो उत्तर, दक्षिण और पश्चिम के राज्यों में हमने देखा कि राहुल का जादू कहीं नहीं चला। हमें यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि राजीव गांधी के बाद पहली बार कांग्रेस ने चुनाव के पहले अपने प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह के नाम का ऐलान कर दिया था। मनमोहन सिंह की छवि आम जनता में एक ईमानदार और कर्मठ प्रधानमंत्री के अलावा एक एक ऐसे राजनेता की रही है जो काम करता है और फालतू की बयानबाजी से बचता है। राहुल गांधी की प्रशस्ति करनेवालों को ये नहीं भूलना चाहिए कि पिछले पांच साल में मनमोहन सिंह का कद बहुत बढ़ा है।




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