श्रवण गर्ग Sunday, July 05, 2009
सरकारों द्वारा की जाने वाली घोषणाओं को लेकर विपक्षी दलों की प्रतिक्रियाएं स्टाक माल की तरह तैयार रहती हैं। आम जनता को भी पूरा आभास रहता है कि पक्ष और विपक्ष के ऊंट किस करवट बैठने वाले हैं।
ममता बनर्जी द्वारा शुक्रवार को लोकसभा में पेश किए गए रेल बजट को अगर विपक्षी दलों ने सतही, निराशाजनक और परिकथाओं वाला और कांग्रेसी खेमों ने प्रगतिशील, शानदार और व्यापक समझ वाला निरूपित किया तो इस पर बहुत ज्यादा आश्चर्य व्यक्त नहीं किया जाना चाहिए।
कल (सोमवार) को वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी द्वारा पेश किए जाने वाले वर्ष 2009-10 के बजट को लेकर भी कुछ इसी तरह की प्रतिक्रियाओं का इंतजार किया जा सकता है। यूपीए की सरकार पांच वर्षो तक सत्ता में रहने वाली है और हर साल ऐसे ही बजट पेश होंगे और फिर ऐसी ही प्रतिक्रियाएं देखने-पढ़ने को मिलेंगी। जो लोग सरकार में होते हैं वे अपनी हर घोषणा को आम जनता के हित में और विकासोन्मुखी बताते हैं और जो विपक्ष मंे होते हैं ठीक उसके विपरीत।
प्रतिक्रियाओं का यह अंतहीन सीरियल पहले आम चुनाव के बाद से ही लगातार चल रहा है। यही विपक्ष जब सत्ता में आ जाता है तो सबकुछ अच्छा हो जाता है। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में रेलमंत्री के रूप में जब ममता बनर्जी ने अपना रेल बजट पेश किया था तब जो लोग आज सत्ता में हैं, विपक्ष में बैठते थे और ममता के प्रस्तावों को लेकर उनकी ओर से कोई जय-जयकार नहीं की गई थी। पर ऐसा केवल भारत में ही नहीं होता और न ही केवल संसद तक सीमित है।
विधानसभाओं, नगरीय निकायों और पंचायतों तक ऐसे ही हालात हैं। दुनिया के सर्वाधिक विकसित और अति-संपन्न देशों में भी सत्तारूढ़ दलों और विपक्ष के बीच रिश्ते ऐसे ही हैं। घोर आर्थिक मंदी में फंसे अमेरिका को संकट से उबारने के लिए जब इसी साल फरवरी में राष्ट्रपति बराक ओबामा ने 37,776 अरब रुपए का पैकेज प्रस्तुत किया तो उसका विपक्षी रिपब्लिकन पार्टी ने यह महसूस करते हुए भी विरोध किया कि देश को ऐसी आर्थिक खुराक की तुरंत जरूरत है।
जब प्रतिनिधि सभा में आर्थिक प्रस्ताव को मंजूरी के लिए रखा गया तो रिपब्लिकन पार्टी का तो एक भी वोट ओबामा के समर्थन में नहीं ही पड़ा, राष्ट्रपति की खुद की डेमोक्रेटिक पार्टी के भी 11 सदस्यों ने पैकेज के विरोध में मतदान किया।
पैकेज पारित हो गया और अमेरिका आर्थिक संकट से उबरने की स्थिति में भी आ गया। भारत के शेयर बाजार में संस्थागत विदेशी पूंजी निवेश की जो अनुकूल परिस्थितियां आज निर्मित हो रही हैं उसका बहुत कुछ संबंध अमेरिका की आर्थिक तबीयत में होने वाले सुधार से भी है।
सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही खेमों में ऐसी राजनीतिक उदारता का वातावरण बनना अभी बाकी है कि देश के समग्र विकास की अवधारणा को तरजीह देते हुए मुद्दों के महत्व के आधार पर ही समर्थन और विरोध की मुद्रा अख्तियार की जाए। सैद्धांतिक रूप से अगर नीतियों में ही खोट नजर आती है तो सत्ता पक्ष के सदस्यों को भी विरोध करने की आजादी हो।
घोषणाओं के ‘परिकथाओं’ की तरह होने पर भी अगर उनमें आम आदमी का कुछ भला होने की थोड़ी सी भी गुंजाइश दिखती हो तो विपक्ष को भी साहस दिखाना चाहिए कि वह समर्थन में हाथ आगे बढ़ाए। ओबामा के पैकेज का प्रतिनिधि सभा में राष्ट्रपति के दल के ही ग्यारह सदस्यों ने विरोध किया पर जब उसे सीनेट में मंजूरी के लिए रखा गया तो रिपब्लिकन पार्टी के तीन सदस्यों व दो निर्दलीयों ने पक्ष में मतदान किया।
देश जब भी असाधारण परिस्थितियों में घिरा होता है, जैसे कि किसी अन्य राष्ट्र से युद्ध अथवा कोई राष्ट्रीय आपदा, सारे के सारे राजनीतिक दल, समस्त विचारधाराएं अपने-अपने आग्रहों-पूर्वाग्रहों को तकियों के नीचे सरकाकर एक हो जाते हैं। आम नागरिक में भी तब सैनिकों के गुण यकायक प्रकट हो जाते हैं।
चारों ओर एक तरह का सामूहिक सहमति का सन्नाटा छा जाता है। पर इस तरह की परिस्थितियां न तो हमेशा बनती हैं और न ही उनके बनने की ईश्वर से प्रार्थनाएं ही की जा सकती हैं। तकाजा इस बात का अवश्य किया जा सकता है कि सामान्य परिस्थितियों में भी आम आदमी की बेहतरी और विकास के मुद्दों पर पक्ष और विपक्ष के बीच व्यापक सहमति का कोई आधार खड़ा हो सकता है अथवा नहीं।
एक ऐसे कालखंड में जिसमें कि अपना सबकुछ त्यागकर एक ही ईश्वर की आराधना में लगे हुए संतों ने भी अपने भक्तों को संख्या की ताक त के आधार पर आपस में बांट रखा हो और मठों पर अपना वर्चस्व कायम करने के लिए संघर्ष से भी परहेज नहीं करते हों, केवल सत्ता की राजनीति में ही जीवन खपा देने वाले राजनेताओं से इस तरह की उम्मीदें बांधने को जान-बूझकर निराशा आमंत्रित करने का प्रयास भी करार दिया जा सकता है। पर कवि दुष्यंत कुमार को याद किया जाए तो, एक पत्थर को तबीयत से उछालने में कोई हर्ज भी नहीं। आसमान में सुराख हो पाएगा कि नहीं, उसकी ज्यादा चिंता नहीं पालनी चाहिए।
- लेखक भास्कर के समूह संपादक हैं।
भास्कर से साभार प्रकाशित
आगे पढ़ें के आगे यहाँ
सरकारों द्वारा की जाने वाली घोषणाओं को लेकर विपक्षी दलों की प्रतिक्रियाएं स्टाक माल की तरह तैयार रहती हैं। आम जनता को भी पूरा आभास रहता है कि पक्ष और विपक्ष के ऊंट किस करवट बैठने वाले हैं।
ममता बनर्जी द्वारा शुक्रवार को लोकसभा में पेश किए गए रेल बजट को अगर विपक्षी दलों ने सतही, निराशाजनक और परिकथाओं वाला और कांग्रेसी खेमों ने प्रगतिशील, शानदार और व्यापक समझ वाला निरूपित किया तो इस पर बहुत ज्यादा आश्चर्य व्यक्त नहीं किया जाना चाहिए।
कल (सोमवार) को वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी द्वारा पेश किए जाने वाले वर्ष 2009-10 के बजट को लेकर भी कुछ इसी तरह की प्रतिक्रियाओं का इंतजार किया जा सकता है। यूपीए की सरकार पांच वर्षो तक सत्ता में रहने वाली है और हर साल ऐसे ही बजट पेश होंगे और फिर ऐसी ही प्रतिक्रियाएं देखने-पढ़ने को मिलेंगी। जो लोग सरकार में होते हैं वे अपनी हर घोषणा को आम जनता के हित में और विकासोन्मुखी बताते हैं और जो विपक्ष मंे होते हैं ठीक उसके विपरीत।
प्रतिक्रियाओं का यह अंतहीन सीरियल पहले आम चुनाव के बाद से ही लगातार चल रहा है। यही विपक्ष जब सत्ता में आ जाता है तो सबकुछ अच्छा हो जाता है। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में रेलमंत्री के रूप में जब ममता बनर्जी ने अपना रेल बजट पेश किया था तब जो लोग आज सत्ता में हैं, विपक्ष में बैठते थे और ममता के प्रस्तावों को लेकर उनकी ओर से कोई जय-जयकार नहीं की गई थी। पर ऐसा केवल भारत में ही नहीं होता और न ही केवल संसद तक सीमित है।
विधानसभाओं, नगरीय निकायों और पंचायतों तक ऐसे ही हालात हैं। दुनिया के सर्वाधिक विकसित और अति-संपन्न देशों में भी सत्तारूढ़ दलों और विपक्ष के बीच रिश्ते ऐसे ही हैं। घोर आर्थिक मंदी में फंसे अमेरिका को संकट से उबारने के लिए जब इसी साल फरवरी में राष्ट्रपति बराक ओबामा ने 37,776 अरब रुपए का पैकेज प्रस्तुत किया तो उसका विपक्षी रिपब्लिकन पार्टी ने यह महसूस करते हुए भी विरोध किया कि देश को ऐसी आर्थिक खुराक की तुरंत जरूरत है।
जब प्रतिनिधि सभा में आर्थिक प्रस्ताव को मंजूरी के लिए रखा गया तो रिपब्लिकन पार्टी का तो एक भी वोट ओबामा के समर्थन में नहीं ही पड़ा, राष्ट्रपति की खुद की डेमोक्रेटिक पार्टी के भी 11 सदस्यों ने पैकेज के विरोध में मतदान किया।
पैकेज पारित हो गया और अमेरिका आर्थिक संकट से उबरने की स्थिति में भी आ गया। भारत के शेयर बाजार में संस्थागत विदेशी पूंजी निवेश की जो अनुकूल परिस्थितियां आज निर्मित हो रही हैं उसका बहुत कुछ संबंध अमेरिका की आर्थिक तबीयत में होने वाले सुधार से भी है।
सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही खेमों में ऐसी राजनीतिक उदारता का वातावरण बनना अभी बाकी है कि देश के समग्र विकास की अवधारणा को तरजीह देते हुए मुद्दों के महत्व के आधार पर ही समर्थन और विरोध की मुद्रा अख्तियार की जाए। सैद्धांतिक रूप से अगर नीतियों में ही खोट नजर आती है तो सत्ता पक्ष के सदस्यों को भी विरोध करने की आजादी हो।
घोषणाओं के ‘परिकथाओं’ की तरह होने पर भी अगर उनमें आम आदमी का कुछ भला होने की थोड़ी सी भी गुंजाइश दिखती हो तो विपक्ष को भी साहस दिखाना चाहिए कि वह समर्थन में हाथ आगे बढ़ाए। ओबामा के पैकेज का प्रतिनिधि सभा में राष्ट्रपति के दल के ही ग्यारह सदस्यों ने विरोध किया पर जब उसे सीनेट में मंजूरी के लिए रखा गया तो रिपब्लिकन पार्टी के तीन सदस्यों व दो निर्दलीयों ने पक्ष में मतदान किया।
देश जब भी असाधारण परिस्थितियों में घिरा होता है, जैसे कि किसी अन्य राष्ट्र से युद्ध अथवा कोई राष्ट्रीय आपदा, सारे के सारे राजनीतिक दल, समस्त विचारधाराएं अपने-अपने आग्रहों-पूर्वाग्रहों को तकियों के नीचे सरकाकर एक हो जाते हैं। आम नागरिक में भी तब सैनिकों के गुण यकायक प्रकट हो जाते हैं।
चारों ओर एक तरह का सामूहिक सहमति का सन्नाटा छा जाता है। पर इस तरह की परिस्थितियां न तो हमेशा बनती हैं और न ही उनके बनने की ईश्वर से प्रार्थनाएं ही की जा सकती हैं। तकाजा इस बात का अवश्य किया जा सकता है कि सामान्य परिस्थितियों में भी आम आदमी की बेहतरी और विकास के मुद्दों पर पक्ष और विपक्ष के बीच व्यापक सहमति का कोई आधार खड़ा हो सकता है अथवा नहीं।
एक ऐसे कालखंड में जिसमें कि अपना सबकुछ त्यागकर एक ही ईश्वर की आराधना में लगे हुए संतों ने भी अपने भक्तों को संख्या की ताक त के आधार पर आपस में बांट रखा हो और मठों पर अपना वर्चस्व कायम करने के लिए संघर्ष से भी परहेज नहीं करते हों, केवल सत्ता की राजनीति में ही जीवन खपा देने वाले राजनेताओं से इस तरह की उम्मीदें बांधने को जान-बूझकर निराशा आमंत्रित करने का प्रयास भी करार दिया जा सकता है। पर कवि दुष्यंत कुमार को याद किया जाए तो, एक पत्थर को तबीयत से उछालने में कोई हर्ज भी नहीं। आसमान में सुराख हो पाएगा कि नहीं, उसकी ज्यादा चिंता नहीं पालनी चाहिए।
- लेखक भास्कर के समूह संपादक हैं।
भास्कर से साभार प्रकाशित
आगे पढ़ें के आगे यहाँ
Comments
Post a Comment
आपका बहुत - बहुत शुक्रिया जो आप यहाँ आए और अपनी राय दी,हम आपसे आशा करते है की आप आगे भी अपनी राय से हमे अवगत कराते रहेंगे!!
--- संजय सेन सागर