पिता महान होते है, यह समझने में उम्र निकल जाती है। और जब वाकई समझ में आता है कि पिताजी ही सही थे, तब तक काफी देर हो चुकी होती है..। हर बच्च अपनी पिता की गोद में बढ़ता है, उनकी उंगली पकड़कर चलना सीखता है, दुनिया देखता है, लेकिन फिर भी उसे अपने पिता की शख्सियत को समझने में काफी वक्त लग जाता है। उम्र के विभिन्न हिस्सों में हर बच्चे की नज़र में पिता की छवि बदलती रहती है। उनकी बातें स्मृतिपटल पर स्पष्ट निशान छोड़ जाती हैं। लेकिन एक समय ऐसा आता है, जब वही निशान फिर से उभरने लगते हैं..
पांच वर्ष की आयु तक हर बालक यही समझता व कहता है कि मेरे पिताजी बहुत अच्छे हैं। दुनिया में उनका जैसा कोई नहीं। फिर बच्चा बड़ा होता है। छह से बारह वर्ष की उम्र के बीच समझने के बाद कहता है- ‘मेरे पिताजी यूं तो बहुत अच्छे है, लेकिन पता नहीं क्यों जल्दी गुस्सा हो जाते हैं।’
युवावस्था में पहुंचने तक बच्चे की समझ-बूझ में परिवर्तन आने लगता है। अब वह अपने पिता के बारे में कहता है- ‘पहले मेरे पिताजी बहुत अच्छे थे, लेकिन अब न जाने क्यों वे तुनक-मिजाÊा होते जा रहे हैं।’
अब उसका विवाह हो चुका है और वह बच्च स्वयं एक पिता है। अब वह अपने ही बेटे को लेकर चिंतित है। ‘बच्चे को समझाना बहुत मुश्किल है। यह मेरी सुनता ही नहीं, जबकि मैं तो इस उम्र में पिताजी से काफी डरता था।’ जब वह चालीस वर्ष का होता है और उसका स्वयं का बालक बड़ा होने लगता है, तब उसके विचार एकदम से बदलने लगते हैं। वह सोचता है कि मेरे पिताजी ने मुझे अनुशासन में पालकर बड़े ही अच्छे संस्कार दिए थे, मुझे भी अपने बच्चे के लिए ऐसा ही कुछ करना चाहिए।
पैंतालीस से पचास वर्ष की उम्र में वह बड़ा आश्चर्यचकित होता है और सोचता है कि ‘मेरे पिताजी ने पता नहीं कैसे मुझे बड़ा किया होगा? मैं तो अपनी इकलौती संतान की ठीक ढ़ंग से देखभाल नहीं कर पा रहा हूं जबकि हम तो चार भाई-बहन थे।’
पचास से पचपन वर्ष की आयु तक पहुंचने पर वही बच्च सोचने लगता है कि ‘वाकई, मुझे यहां तक पहुंचाने में पिताजी ने कड़ी मेहनत की होगी। वे बड़े दूरदर्शी थे। उन्होंने हमारे लिए कई उन्नतिशील योजनाएं बनाई थीं। वे एक उच्च कोटि के इंसान थे। पर क्या करूं, मेरा बेटा तो मुझे सनकी ही समझता है।’
और बाकी बची उम्र में अपने पिता की तारीफ करते नहीं थकता। हमेशा कहता है कि- ‘मेरे पिताजी बड़े महान व्यक्ति थे।’अर्थात ‘पिता महान हैं’, यह बात समझने में उस बालक से वयस्क बने इंसान को पचपन-साठ वर्ष लग जाते हैं। लेकिन तब तक उसके पास अपने किए की क्षमा मांगने के लिए उसके पिता ही नहीं होते।]
देनिक भास्कर से साभार
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इसीलिये . पिता के बारे में उसके रोल के बारे में , बच्चों से नहीं, युवाओं से नहीं--अनुभवी, तपेहुए लोगों, शास्त्रों , आप्त बचनो से जानना व ग्रहण करना चाहिये । ये कल के पैदा स्व घोषित विद्वान--अखवार वाले ये कब समझेंगे।
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