समय
क्षण से पल ओ पल से घड़ी, घड़ी से दिन बन जाता है।
इसका बढ़ते रहना काम समय कब वापस आता है।।
पंचतत्व निर्मित है देह ,देह मे बसे हुए हैं प्राण,
प्राण में द्युतिमान हो प्रेम ,पे्रम में दिल रम जाता है।
नित प्रेम ही जीवन सार ,सार को खोज न पाये मान,
मान को त्याग हुआ जो आर्य, आर्य वो श्रेष्ठ कहाता है।
आर्य छॉड़ि देत निज कर्म , कर्म का बन जाता है काम,
काम में जो रमता सन्त सन्त वो असन्त कहाता है।
साम में ही सम्भव है दाम , दाम से बच जाता है दण्ड,
दण्ड से बचे जाने भेद ,भेद वो श्रेश्ठ कहाता है।
भेद को जाना हुआ वो एक , एक में ओंकार का वास,
वास वह ही पाने की चाह राष्ट्रप्रेमी ध्याता है।
सुन्दर भाव।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया संजय जी!
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