चंडीगढ़. इन बच्चों को उस ख़ता की सजा मिल रही है जो इन्होंने कभी की ही नहीं। जून की शुरुआत के साथ ही पंजाब में लोगों के ज़ेहन में बुरे दिनों की यादें कुलबुलाने लगती हैं। 1984 से 88 के बीच की घटनाओं की यादें। लेकिन सूबे में आतंकवाद के दौर की यादें इससे कहीं ज्यादा कड़वी हैं। नवें दशक में मारे गए ऐसे तमाम लोगों की अगली पीढ़ी के बच्चे अब जवान हो गए हैं। समाज आज भी उन्हें अतीत से ही जोड़कर देखता है। ग्रुरु ट्रस्ट में रह रहे ऐसे ही बच्चों की आपबीती, उन्हीं की ज़बानी।
गुरजीत कौर अब 22 बरस की हो गई हैं। पिछले चार साल से मोहाली के गुरु आसरा ट्रस्ट में आश्रय ले रखा है। सिल्वर ओक्स अस्पताल से जीएनएम का कोर्स करने के बाद अब फोर्टिस अस्पताल में नर्स हैं। अपना काम उन्हें पसंद नहीं। वह टीचर बनना चाहती हैं। लेकिन कैसे, इस सवाल का जवाब अभी उन्हें तलाशना है।
गुरजीत बताती हैं, ‘मेरे पिता हरजिंदर सिंह, बाबा ठाकर सिंह के साथ रहते थे। यही उनका दोष था। 1992 में बटाला चौक (अमृतसर) में पुलिस ने उन्हें मार दिया। तब मैं पांच साल की थी। नहीं जानती कि इतना बड़ा क्या कसूर था, लेकिन मैं अकेली संतान और उस पर गांव में बैठी मां। आज तक अपने साथ हुई नाइंसाफी की वजह जानने की कोशिश करती हूं।’
गुरदासपुर के गांव ठक्कर संधु की गुरजीत का अतीत तो कांटों भरा था ही, अब भविष्य भी धूमिल नजर आता है। एक अजीब सी चुप्पी सारे सवालों के जवाब दबा जाती है। किसी तरह कहती हैं, ‘जब पापा की याद आती है तो आंसू आ जाते हैं। क्या समाज कुछ ऐसा नहीं कर सकता कि हम भी सिर उठा कर जिएं। हमें केवल आतंकवादियों के बच्चे के रूप में ही पहचाना जाता है। आखिर क्यों?’
24 वर्ष की सरबजीत कौर 9 साल पहले यहां आई थी। पढ़ाई करके अब सोहाना के अस्पताल में नर्स हैं। पिता जीवन ंिसंह तरनतारन के डेरा संगतपुरा के बाबा के अनुयायी थे। पुलिस बार-बार पकड़ कर ले जाती। बाबा दया सिंह हर बार छुड़ा लेते। पिता ने सारा घर बार यहां तक कि बीवी-बच्चे भी बाबा के नाम कर रखे थे। 1992 में एक दिन मोटरसाइकिल पर निकले तो किसी ने गाड़ी से टक्कर मार दी। वे वहीं मारे गए।
अब सरबजीत के दो छोटे भाई और एक बहन गांव में रहते हैं। कहती हैं, ‘मेरे पिता ने तो केवल सेवा की थी। फिर उन्हें क्यों मारा गया, इस सवाल का जवाब कभी न मिलेगा। संघर्ष करेंगे तो भी इंसाफ न मिलेगा। मैं अपने कॅरिअर से खुश हूं, लेकिन पिता की कमी तो कभी पूरी न होगी। सबसे बड़ी बात यह है कि समाज हमें उस नजर से देखता ही नहीं जिसकी हमें जरूरत है।’
सीतल सिंह मत्तेवाल मनदीप कौर का ताया था। 1991 में मनदीप के पिता, ताई और चाचा को घेर कर मार दिया गया। गग्गरवाल (अमृतसर) की तजिंदरदीप कौर के पिता मनजिंदर सिंह के पास खाड़कू आकर ठहरते थे। 1992 में उनका पुलिस एनकाउंटर दिखा दिया गया।
रविंदरबीर कौर पंडितों की लड़की है। सारा परिवार गुरु ग्रंथ साहिब में अगाध श्रद्घा रखता। तकरीबन हर रोज दरबार साहब जाते। गांव कालिया सकत्तर (अमृतसर) के इस परिवार के 13 लोग अलग-अलग हमलों में मारे गए। पिता अनार सिंह दरबार साहिब पर हमले के दौरान तीन रिश्तेदारों सहित मारे गए। नौ और रिश्तेदार आतंकवाद के दौरान 1992 तक मारे गए। ‘अब तो हालात से समझौता कर लिया है। अकेली संतान हूं, मां घर में बैठी है, उसको मेरा और मुझे उसी का सहारा है। समाज हमें सम्मान देता नहीं। हम बेकसूर हैं इसके बावजूद।’
12 वर्षीय तजिंदर कौर कहती हैं कि जिस तरह की शिक्षा मिल रही है, कौन जाने हमें मिल भी पाती या नहीं। हमें पता चला है कि ‘नन्हीं छांव’ नाम से एक प्रोजेक्ट चलाया जा रहा है जो हम जैसी ही बच्चियों के लिए है, लेकिन कभी उनका ध्यान हमारी ओर नहीं गया। हम भी तो नन्हीं बच्चियां हैं जिन्हें मां-बाप जैसा प्यार-दुलार चाहिए, लेकिन हमें तो नफरत मिल रही है।’
ये बच्चे समाज में सिर उठाकर जीने को किस कदर लालायित हैं, इस का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि गुरु आसरा ट्रस्ट वालों ने एक बार ट्रस्ट की गाड़ी पर अनाथालय शब्द लिखाना चाहा तो बच्चों ने खाना ही छोड़ दिया। कहा कि हम अनाथ नहीं हैं और जि़ंदगी भर ये बोझा नहीं ढोना चाहते। हम आगे बढ़ना चाहते हैं पढ़-लिखकर। उन्हें समाज से हिकारत की नहीं प्यार की अपेक्षा है, अपनेपन की उम्मीद है जो किसी का जीवन बदल सकती है।
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--- संजय सेन सागर