सलीम अख्तर सिद्दीकी
मेरठ शहर आरभ्म से ही एक संवेदनशील और इन्कलाबी रहा है। 10 मई, 1857 को पहली आजादी की लड़ाई यहीं से आरम्भ हुई थी। 1980 के दशक से लेकर 1991 तक इस शहर ने बदतरीन साम्प्रदायिक दंगों को झेला। पूरी दूनिया में मेरठ 'दंगों के शहर' के रुप में कुख्यात रहा। इसी के साथ हफीज मेरठी जैसा शायर, विशाल भारद्वाज जैसा फिल्म निर्देशक, नसीरुद्दीन शाह जैसा क्लासिकल अभिनेता, हरिओम पंवार जैसा कवि और न जाने कितने नामचीन लोगों की सरजमीं भी मेरठ ही रही।
इधर, आजकल मेरठ कमेले (कमेला वह स्थान होता है, जहां मीट के लिए जानवरों को हलाल किया जाता है) को लेकर सुर्खियों में है। इस पर जमकर राजनीति हो रही है। भाजपा ने कमेले को साम्प्रदाियक रंग देकर इसे 'राममंदिर' सरीखा मुद्दा बना दिया है। चुनाव चाहे मेयर का हो, विधान सभा का हो या लोकसभा का, कमेला मुद्दा छाया रहता है।
अब इस कमेले का पसमंजर भी जान लें। मेरठ का कमेला हापुड़ रोड पर आबादी के बीचों-बीच स्थित है। कभी जब यहां कमेला बना होगा तो यह शहर से बहुत दूर जंगल में रहा होगा। आबादी बढ़ती गयी। कालोनियां बसती रहीं। देखते ही देखते कमेला आबादी के बीच में आ गया। यह कमेला शहर की मीट की मांग को पूरा करता रहा। जानवर कम ही हलाल किए जाते थे। इसलिए कोई समस्या नहीं थी। समस्या नब्बे के दशक से शुरु होती है। मेरठ शहर से खाड़ी के देशों को मीट एक्सपोर्ट होने लगा। कमेले में अनुमति से कई गुना जानवरों को हलाल किया जाने लगा। देखते ही देखते कुरैशी बिरादरी के जो लोग ठेलियों पर फल आदि बेचकर गुजारा करते थे, लखपति, करोड़पति और अरबपति हो गए। पैसा आया तो राजनीति का चस्का भी लगा। 1993 के विधानसभा चुनाव में मीट कारोबारी हाजी अखलाक कुरैशी ने सपा के टिकट पर भाजपा के उम्मीदवार को शिकस्त दे दी। इसके बार कुरैशी बिरादरी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। मेयर, सांसद और विधायक इसी बिरादरी के चुने गए। भाजपा को यह नागवार गुजरा कि मेरठ की राजनीति पर एक वर्ग का एकाधिकार हो गया था।
भाजपा ने कमेले से होने वाली गंदगी, दुर्गन्ध और प्रदूषण को मुद्दा बना लिया। इसमें कोई शक नहीं कि कमेले की वजह से शहर का एक बड़ा हिस्सा नरक बना हुआ है। जानवरों के अवशेषों और कमेले में हड्डियों से चर्बी को अलग करने वाली भट्टियों से निकलने वाले धुएं और बदबू से लोगों का जीवन नरक बन गया है। कमेले के मीट पर पलने वाले कुत्ते आदमखोर हो गए। इन कुत्तों ने कई मासूम बच्चों की जान ले ली। गुस्साए लोगों ने दर्जनों कुत्तों को पीट-पीट कर मार डाला। कमेले की गंदगी को बड़े-बड़े बोरिंग करके जमीन में डाला गया। जिसका नतीजा यह हुआ कि लगभग पच्चीस मौहल्लों का पानी पीने लायक तो दूर नहाने और कपड़े धोने लायक नहीं रहा।
भाजपा ने कमेले को हिन्दुओं की समस्या प्रचारित करके राजनैतिक लाभ उठाया। मौजूदा मेयर मधु गुर्जर कमेले को मुद्दा बनाकर मेयर बन गयीं। जबकि सच यह है कि कमेले से हिन्दु नहीं मुसलमान सबसे ज्यादा परेशान हैं। कमेले के चारों ओर मुस्लिम कालोनियां हैं। हिन्दु कालोनी शास्त्री नगर है, जो कमेले से काफी दूर है। हां, इतना जरुर है कि जब कभी शास्त्री नगर की दिशा में हवा चलती है तो बदबू वहां तक पहुंच जाती है। कमेले को 15 दिन के अन्दर बंद कराने के वादे पर जीती मेयर मधु गुर्जर अब कमेले की बात भी नहीं करना चाहतीं।
पिछला विधानसभा का चुनाव भी भाजपा ने फिर से कमेले को मुद्दा बनाकर चुनाव लड़ा। लेकिन जीता मीट कारोबारी याकूब कुरैशी। दरअसल, कमेले का ठेका याकुब कुरैशी के पुत्र इमरान कुरैशी के नाम पर ही था। इमरान कुरैशी के ठेके की अवधि 31 दिसम्बर 08 को पूरी हो गयी। नगर निगम ने ठेके का नवीनीकरण नहीं किया तो ठेकेदार ने 3 जनवरी 09 को कमेला नगर निगम को वापिस कर दिया। यानि कागजों में कमेला बन्द हो गया, लेकिन कमेला न केवल अवैध रुप से चलता रहा, बल्कि कमेले के चारों ओर दर्जनों अवैध मिनी कमेले विकसित हो गए। कमेले में अवैध रुप से जानवरों को हलाल किए जाने पर भाजपा, शिवसेना और बजरंग दल के कार्यकर्ताओं ने धरने प्रदर्शन किए। कमेले में जानवरों को ले जाने वाली गाड़ियों को हिन्दु बाहुल्य इलाकों में रोका गया। ड्राइवरों को बुरी तरह से मारा-पीटा गया। जानवरों को लूटा गया। ये सिलसिला आज तक जारी है।
इधर, लोकसभा के चुनाव घोषित होने पर सुप्रीम कोर्ट के एक वकील अजय अग्रवाल को लगा कि कमेले को मुद्दा बनाकर चुनाव जीता जा सकता है। उनकी मंशा भाजपा से टिकट लेने की थी, लेकिन भाजपा ने उन्हें टिकट नहीं दिया। अजय अग्रवाल सजपा की पार्टी से चुनाव लड़े। उन्हें चन्द सौ वोट ही मिले। अजय अग्रवाल कमेले मुद्दे को मानवाधिकार आयोग में ले गए। मानवाधिकार आयोग की टीम ने मौका मुआयना करके डीएम और नगर आयुक्त को 3 जून तक आयोग में पेश होकर रिपोर्ट देने के आदेश दिए थे। दोनों 3 जून को पेश हुए। आयोग ने दोनों अफसरों को 15 दिन के अन्दर कमेले में होने वाले अवैध कटान को बंद कराने के निर्देश दिए हैं। आयोग के निर्देश पर कितना अमल होता है, यह भविष्य ही बताएगा। अब हालात यह हैं कि हर दूसरे दिन जानवरों को ले जाने वाली गाड़ियां को पकड़कर उन्हें लूटा जा रहा है। पशु व्यापारी भी इस समस्या को लेकर लामबंद हो रहे हैं। कल पशु और मीट कारोबारियों ने जीमयतुल कुरैष के बैनर पर हुई एक मीटींग में जानवरों को ले जाने वाली गाड़ियों के साथ लाईसेंसी हथियार शुदा दस्ते की तैनाती की बात कही है। मीटींग में पूर्व सांसद षहिद अखलाक ने चेतावनी दी है कि प्रषासन में हिम्मत है तो कमेला बंद कराकर दिखाएं। उन्होंने प्रषासन पर भाजपा के दबाव में काम करने का आरोप भी लगाया। उनका साफ कहना था कि अब ईंट का जवाब पत्थर से दिया जाएगा।
भाजपा, विहिप, शिवसेना और बजरंग दल ने कमेला मुद्दे को, जो वास्तव में प्रत्येक शहरी की समस्या है, साम्प्रदायिक मोड़ देकर एक संवेदनशील मुद्दा बना दिया है। इस मुद्दे पर राजनैतिक रोटियां सेंकी जा रही हैं, जो मेरठ जैसे संवेदनशील शहर के लिए अच्छा नहीं है। एक तथ्य यह भी है अवैध कमेले केवल मुस्लिमों के ही नहीं हैं। हिन्दुओं की कुछ जातियों के भी अवैध कमेले कई कालोनियों में चल रहे हैं। बागपत रोड पर एक सिनेमा हॉल के बराबर मे तो सड़क पर ही सुअरों को जलाया और काटा जाता है। दलित बाहल्य क्षेत्रों में मीट की दुुकानें इसी तरह खुली रहती हैं, जिस तरह से मुस्लिम इलाकों में। मीट कारोबारियों का यह भी कहना है कि संघ परिवार का रुख हिन्दुओं द्वारा चलाए जा रहे कमेलों की तरफ क्यों नहीं होता ?
मेरठ शहर आरभ्म से ही एक संवेदनशील और इन्कलाबी रहा है। 10 मई, 1857 को पहली आजादी की लड़ाई यहीं से आरम्भ हुई थी। 1980 के दशक से लेकर 1991 तक इस शहर ने बदतरीन साम्प्रदायिक दंगों को झेला। पूरी दूनिया में मेरठ 'दंगों के शहर' के रुप में कुख्यात रहा। इसी के साथ हफीज मेरठी जैसा शायर, विशाल भारद्वाज जैसा फिल्म निर्देशक, नसीरुद्दीन शाह जैसा क्लासिकल अभिनेता, हरिओम पंवार जैसा कवि और न जाने कितने नामचीन लोगों की सरजमीं भी मेरठ ही रही।
इधर, आजकल मेरठ कमेले (कमेला वह स्थान होता है, जहां मीट के लिए जानवरों को हलाल किया जाता है) को लेकर सुर्खियों में है। इस पर जमकर राजनीति हो रही है। भाजपा ने कमेले को साम्प्रदाियक रंग देकर इसे 'राममंदिर' सरीखा मुद्दा बना दिया है। चुनाव चाहे मेयर का हो, विधान सभा का हो या लोकसभा का, कमेला मुद्दा छाया रहता है।
अब इस कमेले का पसमंजर भी जान लें। मेरठ का कमेला हापुड़ रोड पर आबादी के बीचों-बीच स्थित है। कभी जब यहां कमेला बना होगा तो यह शहर से बहुत दूर जंगल में रहा होगा। आबादी बढ़ती गयी। कालोनियां बसती रहीं। देखते ही देखते कमेला आबादी के बीच में आ गया। यह कमेला शहर की मीट की मांग को पूरा करता रहा। जानवर कम ही हलाल किए जाते थे। इसलिए कोई समस्या नहीं थी। समस्या नब्बे के दशक से शुरु होती है। मेरठ शहर से खाड़ी के देशों को मीट एक्सपोर्ट होने लगा। कमेले में अनुमति से कई गुना जानवरों को हलाल किया जाने लगा। देखते ही देखते कुरैशी बिरादरी के जो लोग ठेलियों पर फल आदि बेचकर गुजारा करते थे, लखपति, करोड़पति और अरबपति हो गए। पैसा आया तो राजनीति का चस्का भी लगा। 1993 के विधानसभा चुनाव में मीट कारोबारी हाजी अखलाक कुरैशी ने सपा के टिकट पर भाजपा के उम्मीदवार को शिकस्त दे दी। इसके बार कुरैशी बिरादरी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। मेयर, सांसद और विधायक इसी बिरादरी के चुने गए। भाजपा को यह नागवार गुजरा कि मेरठ की राजनीति पर एक वर्ग का एकाधिकार हो गया था।
भाजपा ने कमेले से होने वाली गंदगी, दुर्गन्ध और प्रदूषण को मुद्दा बना लिया। इसमें कोई शक नहीं कि कमेले की वजह से शहर का एक बड़ा हिस्सा नरक बना हुआ है। जानवरों के अवशेषों और कमेले में हड्डियों से चर्बी को अलग करने वाली भट्टियों से निकलने वाले धुएं और बदबू से लोगों का जीवन नरक बन गया है। कमेले के मीट पर पलने वाले कुत्ते आदमखोर हो गए। इन कुत्तों ने कई मासूम बच्चों की जान ले ली। गुस्साए लोगों ने दर्जनों कुत्तों को पीट-पीट कर मार डाला। कमेले की गंदगी को बड़े-बड़े बोरिंग करके जमीन में डाला गया। जिसका नतीजा यह हुआ कि लगभग पच्चीस मौहल्लों का पानी पीने लायक तो दूर नहाने और कपड़े धोने लायक नहीं रहा।
भाजपा ने कमेले को हिन्दुओं की समस्या प्रचारित करके राजनैतिक लाभ उठाया। मौजूदा मेयर मधु गुर्जर कमेले को मुद्दा बनाकर मेयर बन गयीं। जबकि सच यह है कि कमेले से हिन्दु नहीं मुसलमान सबसे ज्यादा परेशान हैं। कमेले के चारों ओर मुस्लिम कालोनियां हैं। हिन्दु कालोनी शास्त्री नगर है, जो कमेले से काफी दूर है। हां, इतना जरुर है कि जब कभी शास्त्री नगर की दिशा में हवा चलती है तो बदबू वहां तक पहुंच जाती है। कमेले को 15 दिन के अन्दर बंद कराने के वादे पर जीती मेयर मधु गुर्जर अब कमेले की बात भी नहीं करना चाहतीं।
पिछला विधानसभा का चुनाव भी भाजपा ने फिर से कमेले को मुद्दा बनाकर चुनाव लड़ा। लेकिन जीता मीट कारोबारी याकूब कुरैशी। दरअसल, कमेले का ठेका याकुब कुरैशी के पुत्र इमरान कुरैशी के नाम पर ही था। इमरान कुरैशी के ठेके की अवधि 31 दिसम्बर 08 को पूरी हो गयी। नगर निगम ने ठेके का नवीनीकरण नहीं किया तो ठेकेदार ने 3 जनवरी 09 को कमेला नगर निगम को वापिस कर दिया। यानि कागजों में कमेला बन्द हो गया, लेकिन कमेला न केवल अवैध रुप से चलता रहा, बल्कि कमेले के चारों ओर दर्जनों अवैध मिनी कमेले विकसित हो गए। कमेले में अवैध रुप से जानवरों को हलाल किए जाने पर भाजपा, शिवसेना और बजरंग दल के कार्यकर्ताओं ने धरने प्रदर्शन किए। कमेले में जानवरों को ले जाने वाली गाड़ियों को हिन्दु बाहुल्य इलाकों में रोका गया। ड्राइवरों को बुरी तरह से मारा-पीटा गया। जानवरों को लूटा गया। ये सिलसिला आज तक जारी है।
इधर, लोकसभा के चुनाव घोषित होने पर सुप्रीम कोर्ट के एक वकील अजय अग्रवाल को लगा कि कमेले को मुद्दा बनाकर चुनाव जीता जा सकता है। उनकी मंशा भाजपा से टिकट लेने की थी, लेकिन भाजपा ने उन्हें टिकट नहीं दिया। अजय अग्रवाल सजपा की पार्टी से चुनाव लड़े। उन्हें चन्द सौ वोट ही मिले। अजय अग्रवाल कमेले मुद्दे को मानवाधिकार आयोग में ले गए। मानवाधिकार आयोग की टीम ने मौका मुआयना करके डीएम और नगर आयुक्त को 3 जून तक आयोग में पेश होकर रिपोर्ट देने के आदेश दिए थे। दोनों 3 जून को पेश हुए। आयोग ने दोनों अफसरों को 15 दिन के अन्दर कमेले में होने वाले अवैध कटान को बंद कराने के निर्देश दिए हैं। आयोग के निर्देश पर कितना अमल होता है, यह भविष्य ही बताएगा। अब हालात यह हैं कि हर दूसरे दिन जानवरों को ले जाने वाली गाड़ियां को पकड़कर उन्हें लूटा जा रहा है। पशु व्यापारी भी इस समस्या को लेकर लामबंद हो रहे हैं। कल पशु और मीट कारोबारियों ने जीमयतुल कुरैष के बैनर पर हुई एक मीटींग में जानवरों को ले जाने वाली गाड़ियों के साथ लाईसेंसी हथियार शुदा दस्ते की तैनाती की बात कही है। मीटींग में पूर्व सांसद षहिद अखलाक ने चेतावनी दी है कि प्रषासन में हिम्मत है तो कमेला बंद कराकर दिखाएं। उन्होंने प्रषासन पर भाजपा के दबाव में काम करने का आरोप भी लगाया। उनका साफ कहना था कि अब ईंट का जवाब पत्थर से दिया जाएगा।
भाजपा, विहिप, शिवसेना और बजरंग दल ने कमेला मुद्दे को, जो वास्तव में प्रत्येक शहरी की समस्या है, साम्प्रदायिक मोड़ देकर एक संवेदनशील मुद्दा बना दिया है। इस मुद्दे पर राजनैतिक रोटियां सेंकी जा रही हैं, जो मेरठ जैसे संवेदनशील शहर के लिए अच्छा नहीं है। एक तथ्य यह भी है अवैध कमेले केवल मुस्लिमों के ही नहीं हैं। हिन्दुओं की कुछ जातियों के भी अवैध कमेले कई कालोनियों में चल रहे हैं। बागपत रोड पर एक सिनेमा हॉल के बराबर मे तो सड़क पर ही सुअरों को जलाया और काटा जाता है। दलित बाहल्य क्षेत्रों में मीट की दुुकानें इसी तरह खुली रहती हैं, जिस तरह से मुस्लिम इलाकों में। मीट कारोबारियों का यह भी कहना है कि संघ परिवार का रुख हिन्दुओं द्वारा चलाए जा रहे कमेलों की तरफ क्यों नहीं होता ?
बहुत खूब लिखा है आपने
ReplyDeleteआप इसी तरह प्रगति के मार्ग पर आगे बढते जाये यही दुआ है
बहुत खूब लिखा है आपने
ReplyDeleteआप इसी तरह प्रगति के मार्ग पर आगे बढते जाये यही दुआ है