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लो क सं घ र्ष !: आडम्बर की चितवन से....


तुम गंध में न बसते हो
तुम रूप में न मिलते हो।
साधना समर्पित मेरी ,
पाषाण न तुम हिलते हो॥

मेरे सपनो की छाया
अब मुझे जलाती रहती ।
कुछ गरल छलक जाता है,
आशा है गाती रहती॥

मानस की स्नेहलता को
सींचा हमने सिसकन से ।
पर वह टूटी मुरझाकर
आडम्बर की चितवन से॥

-डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल 'राही'

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ग़ज़ल

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