इस संघर्ष के युग में हर किसी को गिरोहबंदी की सूझती है। जो गिरोह बना सकता है,वह जीवन के हर एक विभाग में सफल है,जो नही बना सकता ,उसकी कहीं पूँछ नही -कहीं मान नही। हम अपने स्वार्थ के लिए अपने जात और अपने प्रान्त की दुहाई देते है । अगर हम बंगाली है,और हमने दवाओ की दुकान खोली है ,तो हम हरेक बंगाली से आशा रखते है की वह हमारा ग्राहक हो जाए ,हम बंगालियों को देख कर उनसे अपनापन का नाता जोड़ते है और अपने स्वार्थ के लिए प्रांतीय भावना की शरण लेते है । अगर हम हिंदू है और हमने स्वदेशी कपड़ो की दुकान खोली है ,तो हम अपने हिंदुत्व का शोर मचाते है और हिन्दुवो की साम्प्रदायिकता को जगाकर अपना स्वार्थ सिद्ध करते है । अगर इसमें सफलता न मिली ,तो अपनी जाती विशेष की हांक लगते है । इस तरह प्रांतीयता और साम्प्रदायिकता की जड़ भी कितनी ही बुरइयो की भांति हमारी आर्थिक परिस्तिथि से पोषक रस खींच कर फलती फूलती रहती है। हम अपने ग्राहकों को विशेष सुविधा देकर अपना ग्राहक नही बनते , सम्भव है उसमें हमारी हानि हो , इसलिए जातीय भेद की पूँछ पकड़कर बैतरणी के पास पहुँच जाते है ।
-प्रेमचंद, 19 फरवरी 1934
(आतंकवाद का सच से साभार )
Comments
Post a Comment
आपका बहुत - बहुत शुक्रिया जो आप यहाँ आए और अपनी राय दी,हम आपसे आशा करते है की आप आगे भी अपनी राय से हमे अवगत कराते रहेंगे!!
--- संजय सेन सागर