वक्त कुछ इस तरह मेहरबान गया
आंधियां आती गई मैं आशियाँ होता गया
सीखा न था जब चेह्चाहाता था बहुत
ढल गया अल्फाज़ में तो बेजुबान होता गया
ढूंढ लेता था अंधेरों में भी अपने आपको
पर उजालो से मिला तो बदगुमान होता गया
जब किया था कैद उसे था बहुत बाकी मगर
रफ्ता रफ्ता वोह परिंदा हम जुबां होता गया
आँधियों के साथ ऊंचा कुछ दिनों वो क्या उड़ा
गर्द का राह था लेकिन आसमान तो होता गया
आंधियां आती गई मैं आशियाँ होता गया
सीखा न था जब चेह्चाहाता था बहुत
ढल गया अल्फाज़ में तो बेजुबान होता गया
ढूंढ लेता था अंधेरों में भी अपने आपको
पर उजालो से मिला तो बदगुमान होता गया
जब किया था कैद उसे था बहुत बाकी मगर
रफ्ता रफ्ता वोह परिंदा हम जुबां होता गया
आँधियों के साथ ऊंचा कुछ दिनों वो क्या उड़ा
गर्द का राह था लेकिन आसमान तो होता गया
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--- संजय सेन सागर