दिनेश काण्डपाल, एंकर, वॉयस ऑफ इंडिया
लोक सभा चुनाव के नतीजे आने में ज़्यादा वक्त नहीं रह गया है। इस वक्त देश की जनता किसी एक पार्टी को तो छोड़िये घठबंधन को भी बहुमत देने के मूड में नहीं है। इसी से अनुमान लगा कर इस चुनाव में प्रधानमंत्री पद के दावेदारों की लिस्ट लम्बी होती जा रही है। सावल ये है कि अगर दलित के नाम पर प्रधानमंत्री पद के दावेदार की बात आती है तो मायावती ही एक मात्र विकल्प हैं। मायावती के सामने सीना ताने राम विलास पासवान भी खड़े हैं।
राम विलास पासवान का राजनीतिक अनुभव और उनका धुरंधर तिकड़मी अन्दाज़ उन्हैं मायावती से काफी आगे ले जाता है। माया को भरोसा है संख्या बल पर। अगर बीएसपी की सीटें ज़्यादा आती हैं तो मायावती की दावेदारी पुख्ता होती है, इसके अलावा मायावती के भरोसे की दूसरी चीज़ क्या है? मायावती के अगर अपनी सीटों का दबाव ना बनाये तो वो उम्मीदवारी की रेस में ही नहीं आती हैं। राजनीतिक अनुभव हो या फिर केन्द्रीय स्तर पर राजनीतिक क़द। राम विलास पासवान हर मोर्चे पर मायावती पर भारी पड़ते हैं।
राम विलास पासवान तो ऐसे नेता हैं जो विना अपनी पार्टी की ताकत के बड़े बड़े गुण रखते हैं। जब से रामविलास पासवान सक्रिय राजनीति में आये हैं तभी से वो कुछ न कुछ तिकड़म भिड़ा कर सत्ता के करीब ही रहते हैं। इस दौर में हमारे देश के ज़्यादातर नेता आज इस बात के लिये तरस रहे हैं कि उन्हैं दूसरे दल स्वीकार कर लें, लेकिन राम विलास के सामने ऐसी कोई दिक्कत नहीं है।
इस वक्त देश में पांच मोर्चे हैं। यूपीए, एनडीए, तीसरा मोर्चा, चौथा मोर्चा और कुछ वो लोग जो इस वक्त किसी मोर्च में नहीं हैं। राम विलास की स्वीकार्यता कमोबेश सभी मोर्चों में है। बेहद अनिश्तितता के इस माहौल में राम विलास पासवान का सिक्का चल सकता है। हमारे देश ने कई बार ऐसे प्रधानमंत्री देखे हैं जो एक रात पहले तक संसद के सदस्य भी नहीं थे।
दलितों के सम्मान और अधिकारों के नाम पर बीएसपी 1984 में बनी, रामविला पासवान ने 1983 में दलित सेना बना ली थी। राम विलास पासवान सरकारी रिकार्ड के मुताबिक मायावती से 10 साल बड़े हैं। राजनीतिक करियर की बात की जाय तो 1969 में रामविलास पासवान पहली बार विधायक बन गये थे। मायावती इसके 20 साल बाद 1989 में पहली बार चुनाव जीतीं। इसके अलावा मायावती को केन्द्र का कोई अनुभव नहीं है। रामविलास पासवान केन्द्र की राजनीति के माहिर रहे हैं।
दलित नेता अगर प्रधानमंत्री बनता है तो पहली पसंद के तौर पर रामविलास पासवान ही उभर रहे हैं। अगर समीकरण ये बनते हैं कि कोई न्यूट्रल व्यक्ति प्रधानमंत्री बने तब भी पासवान ही आगे नज़र आते हैं। इसके अलावा जितना समर्थन पासवान जुटा लेंगें उतना मायावती फिलहाल इस इमेज के साथ नहीं जुटा सकती हैं।
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लोक सभा चुनाव के नतीजे आने में ज़्यादा वक्त नहीं रह गया है। इस वक्त देश की जनता किसी एक पार्टी को तो छोड़िये घठबंधन को भी बहुमत देने के मूड में नहीं है। इसी से अनुमान लगा कर इस चुनाव में प्रधानमंत्री पद के दावेदारों की लिस्ट लम्बी होती जा रही है। सावल ये है कि अगर दलित के नाम पर प्रधानमंत्री पद के दावेदार की बात आती है तो मायावती ही एक मात्र विकल्प हैं। मायावती के सामने सीना ताने राम विलास पासवान भी खड़े हैं।
राम विलास पासवान का राजनीतिक अनुभव और उनका धुरंधर तिकड़मी अन्दाज़ उन्हैं मायावती से काफी आगे ले जाता है। माया को भरोसा है संख्या बल पर। अगर बीएसपी की सीटें ज़्यादा आती हैं तो मायावती की दावेदारी पुख्ता होती है, इसके अलावा मायावती के भरोसे की दूसरी चीज़ क्या है? मायावती के अगर अपनी सीटों का दबाव ना बनाये तो वो उम्मीदवारी की रेस में ही नहीं आती हैं। राजनीतिक अनुभव हो या फिर केन्द्रीय स्तर पर राजनीतिक क़द। राम विलास पासवान हर मोर्चे पर मायावती पर भारी पड़ते हैं।
राम विलास पासवान तो ऐसे नेता हैं जो विना अपनी पार्टी की ताकत के बड़े बड़े गुण रखते हैं। जब से रामविलास पासवान सक्रिय राजनीति में आये हैं तभी से वो कुछ न कुछ तिकड़म भिड़ा कर सत्ता के करीब ही रहते हैं। इस दौर में हमारे देश के ज़्यादातर नेता आज इस बात के लिये तरस रहे हैं कि उन्हैं दूसरे दल स्वीकार कर लें, लेकिन राम विलास के सामने ऐसी कोई दिक्कत नहीं है।
इस वक्त देश में पांच मोर्चे हैं। यूपीए, एनडीए, तीसरा मोर्चा, चौथा मोर्चा और कुछ वो लोग जो इस वक्त किसी मोर्च में नहीं हैं। राम विलास की स्वीकार्यता कमोबेश सभी मोर्चों में है। बेहद अनिश्तितता के इस माहौल में राम विलास पासवान का सिक्का चल सकता है। हमारे देश ने कई बार ऐसे प्रधानमंत्री देखे हैं जो एक रात पहले तक संसद के सदस्य भी नहीं थे।
दलितों के सम्मान और अधिकारों के नाम पर बीएसपी 1984 में बनी, रामविला पासवान ने 1983 में दलित सेना बना ली थी। राम विलास पासवान सरकारी रिकार्ड के मुताबिक मायावती से 10 साल बड़े हैं। राजनीतिक करियर की बात की जाय तो 1969 में रामविलास पासवान पहली बार विधायक बन गये थे। मायावती इसके 20 साल बाद 1989 में पहली बार चुनाव जीतीं। इसके अलावा मायावती को केन्द्र का कोई अनुभव नहीं है। रामविलास पासवान केन्द्र की राजनीति के माहिर रहे हैं।
दलित नेता अगर प्रधानमंत्री बनता है तो पहली पसंद के तौर पर रामविलास पासवान ही उभर रहे हैं। अगर समीकरण ये बनते हैं कि कोई न्यूट्रल व्यक्ति प्रधानमंत्री बने तब भी पासवान ही आगे नज़र आते हैं। इसके अलावा जितना समर्थन पासवान जुटा लेंगें उतना मायावती फिलहाल इस इमेज के साथ नहीं जुटा सकती हैं।
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आपका बहुत - बहुत शुक्रिया जो आप यहाँ आए और अपनी राय दी,हम आपसे आशा करते है की आप आगे भी अपनी राय से हमे अवगत कराते रहेंगे!!
--- संजय सेन सागर